हादसों की सड़क- राम प्रताप गुप्ता

देश में पिछले कुछ वर्षों में तेज गति वाले वाहनों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। इससे सड़क दुर्घटनाएं भी तेजी से बढ़ी हैं। यहां सालाना करीब तीन लाख सड़क दुर्घटनाओं में 1,10,000 से अधिक लोग मारे जाते हैं और 16 लाख से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल होते हैं। सड़क दुर्घटनाओं में हताहतों की आठ प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ोतरी हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत सरकार द्वारा संयुक्त रूप से कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि जहां अन्य देशों की सड़कें सुरक्षा की दृष्टि से दिनोंदिन बेहतर होती जा रही हैं, वहीं भारतीय सड़कें बद से बदतर होती जा रही हैं। हमारे यहां प्रति 10,000 वाहनों पर दुर्घटनाओं की संख्या 12.7 है, जबकि अमेरिका में यह अनुपात 9.78, ब्रिटेन में 1.0 और जर्मनी में 1.1 है। दुर्घटनाओं के इतने ऊंचे स्तर के कारण ही भारतीय सड़कें दुनिया में सर्वाधिक असुरक्षित मानी जाती हैं। फिर विदेशों में जहां दुर्घटना के तत्काल बाद ही घायलों के लिए चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध रहती है, वहीं हमारे यहां दुर्घटना में घायल अनेक व्यक्तियों को लंबे समय तक चिकित्सा उपलब्ध नहीं होती। इस कारण भी अनेक घायल दम तोड़ देते हैं।

सड़क दुर्घटना में होने वाली हर मौत या गंभीर रूप से चोटग्रस्त होने का अर्थ जहां परिवार का आजीविका के स्रोत से वंचित होना है, वहीं उस पर अपंग व्यक्ति के पालन-पोषण का अतिरिक्त भार भी आ जाता है। शहरों में सड़क दुर्घटनाओं के मुख्य शिकार पैदल चलने वाले और साइकिल यात्री ही होते हैं। सड़कों पर ट्रकऔर बस ही दुर्घटना के प्रमुख कारण के रूप में सामने आते हैं। वर्ष 2002 में योजना आयोग द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, सड़क दुर्घटनाओं के कारण देश को हर साल करीब 55,000 करोड़ रुपये की क्षति उठानी पड़ती है। इस समय इस क्षति का अनुमान 65 से 75 हजार करोड़ के लगभग माना जाता है, जो सकल राष्ट्रीय आय का करीब छह प्रतिशत है। इतनी भारी क्षति को देखते हुए तत्काल कदम उठाने और उसका संजीदगी से पालन करने की आवश्यकता है।

बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं के पीछे जिम्मेदार घटकों का विश्लेषण करते हुए हम पाते हैं कि सड़कों के विस्तार के साथ ही सरकार को शीघ्रगामी, सुरक्षित और आरामदायक सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था भी करनी थी। लेकिन ऐसा न होने से आम जनता निजी वाहनों की तरफ आकर्षित होती गई। इसका नतीजा यह है कि जहां सड़कों के विस्तार की गति तीन-चार प्रतिशत ही रही, वहीं निजी वाहनों की संख्या में आठ से 10 प्रतिशत की वृद्धि होती गई, जिससे सड़कों पर वाहनों का घनत्व लगातार बढ़ता गया। सड़कों पर ट्रैफिक के इस बदलते स्वरूप को देखते हुए सरकार को पैदल यात्रियों एवं साइकिल वालों के लिए सड़कों पर एक भाग सुरक्षित करना था, क्योंकि ज्यादातर यही लोग दुर्घटना के शिकार होते हैं। लेकिन व्यवहार में इसका ठीक उलटा हुआ। यानी जिन सड़कों पर पैदल यात्रियों एवं साइकिल वालों के सुरक्षित ट्रैक की व्यवस्था थी, उन्हें सड़क चौड़ी करने के दबाव में समाप्त कर दिया गया। इसका नतीजा यह है कि पैदल और साइकिल यात्रा औरभी असुरक्षित हो गई।

सड़क यात्रा के असुरक्षित हो जाने के और भी कई कारण हैं, उदाहरण के लिए, बिना समुचित प्रशिक्षण के लोगों को ड्राइविंग लाइसेंस मिल जाना, शराब पीकर गाड़ी चलाने की बढ़ती प्रवृति, वाहन चालकों द्वारा ट्रैफिक सिगनलों की उपेक्षा आदि। हमारे यहां क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय ऐसे दलालों से पटे हैं, जो थोड़ी-सी राशि के बदले किसी को भी ड्राइविंग लाइसेंस दिला सकते हैं, पुराने ओर जर्जर वाहन को पास करवा सकते हैं। ऐसे में दुर्घटना आश्चर्यजनक नहीं है। इसके अलावा शराब पीकर गाड़ी चलाने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है। मुंबई में इस दिशा में हुई पहल का नतीजा है कि वाहन चालकों की सांस से शराब की जांच के अभियान के बाद सड़क दुर्घटनाओं की संख्या आधी रह गई है।

सड़कों की ऐसी भीषण स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार एवं विश्व बैंक ने गुजरात, असम और कर्नाटक में सर्वाधिक असुरक्षित मानी जाने वाली ३,000 किलोमीटर सड़कों को सुरक्षित बनाने के लिए एक परियोजना शुरू की है। इसके तहत आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर सड़क दुर्घटनाओं में कमी लाने का उद्देश्य है। इस परियोजना में विश्व बैंक द्वारा अनेक अन्य देशों में चलाए गए ऐसे ही अभियानों का लाभ लिया जाएगा। सड़कों की जो स्थिति है, उसे देखते हुए यह परियोजना पूरे देश में लागू करनी चाहिए। सरकार को इस कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करनी होगी, क्योंकि सड़क दुर्घटना का मुख्य शिकार युवा आबादी ही होती है, जिससे देश की विकास दर पर असर पड़ता है। हमें सड़क दुर्घटनाओं के प्रति जीरो टॉलरेंस का नजरिया अपनाना होगा, जबकि वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। तीन साल पहले राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा नीति के निर्धारण के लिए सुंदर समिति का गठन किया गया था, परंतु उसकी सिफारिशों पर अमल करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया गया।

सड़क सुरक्षा के लिए सड़कों एवं वाहनों की डिजाइन में सुधार का कार्यक्रम भी हाथ में लिया जाना चाहिए। इसके लिए दुर्घटनाओं की रोकथाम हेतु चलाए जा रहे कार्यक्रमों के माध्यम से प्राप्त आंकड़ों का समुचित विश्लेषण करना भी आवश्यक होगा। सबसे पहले तो हमें सुंदर कमेटी की इस सिफारिश पर अमल करना होगा, जिसमें उसने राज्यों के परिवहन विभागों को वाहनों के पंजीयन और लाइसेंस प्रदान करने के अधिकार भी सौंपने की बात कही है। इन सब के बाद ही सड़कों की तसवीर बदलेगी।

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