हम जीएम तकनीक को जोरशोर से अपनाने की पहल कर रहे हैं
और सरकार भी उस पर अमादा है। मगर हमारा पूरा तंत्र जिस तरह का है, उसमें
क्या इस संवेदनशील काम को सार्वजनिक क्षेत्र के वैज्ञानिकों के भरोसे छोड़ा
जा सकता है? जीएम तकनीक भी आणविक ऊर्जा की तरह है, इसलिए इस सवाल पर
सावधानी से विचार करने की जरूरत है। हाल ही में बीकानेरी नरमा या बीटी कपास
से संबंधित झूठ पकड़ा गया। बीकानेरी नरमा प्रजाति कुछ साल पहले एक किसान
ने विकसित की थी।
बीकानेरी नरमा को लेकर बीटी कॉटन की जो प्रजाति
बनाई जा रही थी, उसमें इसे हाइब्रिड के रूप में न लाकर साधारण प्रजाति के
रूप में लाने का भरोसा दिलाया गया था। धारवाड़ यूनिवर्सिटी और नागपुर स्थित
कॉटन रिसर्च इंस्टीट्यूट ने भी इस पहल को सही ठहराया। बाद में बताया गया
कि बीकानेरी नरमा में बीटी जीन डालकर नई प्रजाति बनाई गई है। इसे सार्वजनिक
क्षेत्र की प्रजाति बताकर प्रचारित किया गया। जबकि इस प्रजाति में
मोन्सेंटो का बीटी जीन डाला गया था। अंतत: फजीहत होने पर आईसीएआर (भारतीय
कृषि अनुसंधान परिषद्) ने इससे अपने कदम पीछे खींच लिए, जबकि इस क्षेत्र
में काम करने वालों को 2009 से इस पर संदेह था।
इस घटनाक्रम से इस
बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि जीएम तकनीक को लेकर हम कितने गैर
जिम्मेदार देश हैं। हमारे यहां हाइब्रिड बीटी पर अधिक जोर दिया जा रहा है।
जबकि हाइब्रिड बीजों के आने से किसान बीज तक नहीं बचा पाएगा और वह बाजार पर
आश्रित हो जाएगा। इससे सिर्फ कंपनियों के हित साधे जाएंगे। चीन और अमेरिका
की बात करें, तो वहां हाइब्रिड किस्मों के बजाय साधारण प्रजातियों पर अधिक
जोर दिया जाता है।
जीन कैंपेन जैसे संगठनों की कोशिश रही है कि जो
भी बीटी किस्में लाई जा रही हैं, वे हाइब्रिड न होकर साधारण प्रजाति के तौर
पर हों। हमारे देश में 300 से अधिक बीटी कॉटन किस्मों को अनुमति दी गई है,
जिनमें मोन्सेंटों के जीन ठूंसे जा रहे हैं। शायद ही ऐसा कोई देश होगा,
जहां इतनी बड़ी मात्रा में बीटी कॉटन को स्वीकृति दी गई हो। यह बड़ा सवाल
है कि मोन्सेंटो से बीटी जीन लेकर अंधाधुंध बीटी किस्में बनाने की स्वीकृति
आखिर क्यों दी जा रही है?
जीएम की वकालत करने वाले लोग चीन की
मिसाल रखते हैं, पर वहां जीएम तकनीक पर सार्वजनिक क्षेत्र का नियंत्रण है।
उनके खुद के बीटी जींस हैं, िजसके लिए वे निजी क्षेत्र पर आश्रित नहीं हैं।
हमारे यहां उलटा है। चीन में जीएम राइस पर काम चल रहा है, पर वहां
जल्दबाजी नहीं है। हमारे देश में चावल की हजारों नायाब किस्में मौजूद हैं,
इसके बावजूद हम जीएम राइस के पीछे भाग रहे हैं। यदि हम इस तकनीक को संभाल
पाने में सक्षम नहीं, तो इससे दूर रहना ही ठीक है। सिर्फ बायोसेफ्टी ही
खतरा नहींहै, तकनीक किसके हाथ में है, यह भी देखना होगा।
भारतीय
कृषि अनुसंधान परिषद् की तरह ऑस्ट्रेलिया में सार्वजनिक क्षेत्र की संस्था
सीएसआईआरओ कृषि को बढ़ावा देने के लिए काम करती है। मटर में लगने वाली
सूंडी को खत्म करने के लिए वहां एक शोध चल रहा था। मटर की फैमिली से मेल
खाने वाले बींस के जीन को इसके लिए चुना गया। करीब 10 साल यह शोध चला और
बाद में वैज्ञानिकों ने पाया कि ऐसा करने पर मटर में जहरीला पदार्थ पैदा हो
जाता है। लिहाजा यह शोध बंद कर दिया गया। यह एक जिम्मेदार तरीका है, जो
अपने यहां नहीं हो रहा। जीएम तकनीक के बेहतर नियंत्रण, पारदर्शी मंजूरी
प्रक्रिया और टेस्टिंग के काम को खुद वैज्ञानिक भी महत्वपूर्ण मानते हैं,
जबकि अपने यहां तो मंजूरी के नाम पर गोरखधंधा हो रहा है। जीएम फसलों में
जिस तरह अप्राकृतिक तरीके से बीटी जीन डाले जाते हैं, उसका दुष्प्रभाव
बायो-डाइवर्सिटी पर पड़ना तय है।
हमारी व्यवस्था में गड़बड़ियां
हैं। जीएम फसलों को लेकर जो कमेटियां गठित की जाती हैं, उनमें सरकारी
विभागों के सचिव रख दिए जाते हैं, इससे कोई फायदा नहीं होगा। तकनीकी
जानकारों की उसमें जरूरत है। जीएम के बूते खाद्य सुरक्षा की बात की जाती
है। क्या बीटी बैंगन जैसी फसलों से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी?
मोन्सेंटो जैसी कंपनियां भुखमरी का नाटक भारत जैसे देशों में ही करती हैं,
क्योंकि यूरोप में तो उनकी कोई सुनने वाला नहीं है। अगर वैज्ञानिकों से
पूछा जाए कि उत्पादन बढ़ाने का काम कौन-सी जीएम फसल ने किया है, तो उन्हें
जवाब देते नहीं बनता।
वास्तव में हमारे साइंटिफिक कैडर में क्षमता
ही नहीं है। हरित क्रांति के बाद से लेकर अब तक हमारे वैज्ञानिकों ने आखिर
क्या किया है? जो भी नई किस्में आई हैं, वे सार्वजनिक क्षेत्र की नहीं हैं।
भिंडी, आलू, टमाटर, बैंगन, चावल, कॉफी, चाय और यहां तक कि जड़ी-बूटियों को
भी नहीं बख्शा जा रहा। पानी, बिजली, खाद, बीज, भंडारण, भूमि की उर्वरता और
किसानों को बेहतर दाम दिलाने के बजाय क्या जीएम फूड ही खाद्य सुरक्षा का
विकल्प रह गया है? याद रखें, अमेरिका, यूरोप, चीन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों
की खाद्य सुरक्षा का आधार जीएम फूड नहीं है। फिर भी वे देश खाद्यान्नों का
निर्यात कर रहे हैं।
जीएम फसलों को लेकर हमारी नीतियां पारदर्शी
नहीं हैं। इसमें निजी क्षेत्र का दबाव कितना है, इसका अंदाजा इससे लगता है
कि 40 फीसदी शोध मोन्सेंटो के बीटी जीन पर ही हो रहा है। हाल में बंगलुरू
में एक कांफ्रेन्स के दौरान जीएम के कुछ पैरोकार बीटी कपास से 40,000 करोड़
रुपये के लाभ का हवाला दे रहे थे। यदि मुनाफा हो रहा था, तो सबसे अधिक
आत्महत्याएं विदर्भ, आंध्र प्रदेश और पंजाब के कॉटन बेल्ट में क्यों हो रही
थीं?
यह तय करना जरूरी है कि क्या हमें जीएम तकनीक की जरूरत है?
सबसे पहले कृषि समस्याओं की पहचान करनी चाहिए। इससे 99 फीसदी समस्याओं का
हल हमें साधारण प्लांट ब्रीडिंग में ही मिल जाएगा, जिसमें सरकार पैसा नहीं
लगा रही। ऐसा करने पर खाद्य सुरक्षा पांच वर्षों में ही पाई जा सकती है। और
यदि किसी समस्या का हलपरंपरागततरीके से न निकल पाए, तभी जीएम को विकल्प
बनाने पर सोचना चाहिए।
दैनिक अमर उजाला से साभार