नमस्कार-चमत्कार और प्रणाम…- गोपालकृष्ण गांधी

बात
खादी-परंपरा से जुड़ी राजनीति की ही नहीं। हर दल की विश्वसनीयता ने क्षति
देखी है। डॉ. लोहिया को कौन समाजवादी आज याद नहीं करता? अटलजी की आवाज
सुनने आज कौन भाजपा समर्थक आतुर नहीं?




एमना पागे लाग, गोपू (इनको प्रणाम कर, गोपू।) घर में जब कोई बुजुर्ग तशरीफ
लाते तो पिताजी मुझे गुजराती में यह हिदायत देते। हिदायत क्या, आदेश ही
समझिए। वह आदेश बहुत सुहावना होता था, क्यूंकि मेहमान हमेशा स्नेही और
आदर्श व्यक्ति होते थे।




फिर प्रणाम का ‘पुरस्कार’ – पीठ पर स्नेहसिक्त थपकी – बहुत मूल्यवान लगती।




मुझे यह संयोग खुद याद नहीं, क्यूंकि मैं तब सिर्फ दो-अढ़ाई साल ही का था,
पर मुझे बतलाया गया है कि जब 1947-48 के जाड़ों में दिल्ली के बिड़ला निवास
में बापूजी रुके थे, बिना किसी के कहे, मैं उन्हें देखते ही ‘दादा’ ‘दादा’
कहकर लिपट जाता और फिर गंभीर मुद्रा में प्रणाम करता। प्रणाम क्या करता,
प्रणाम करते जाता।




प्रणाम करता, सीधे खड़ा होता, फिर प्रणाम करता और फिर उठता, उनकी एक नहीं
अनेक थपकियों के लालच में। एक बार जब चौथा या पांचवां प्रणाम हो गया तो
बापू-जी हंसते हुए मुझे मेरी प्रणामी मुद्रा से उठाकर बोले : ‘ढोंगी, बहु
ठायूं!’ (ढोंगी, बहुत हुआ)। बापू-जी के साथ आसपास खड़े सब हंसे। ‘ढोंगी’ के
मतलब से अनभिज्ञ नन्हा प्रणामी भी हंसी में फूट पड़ा।




प्रणाम के संदर्भ में उस दिन जैसे अब मैं हंसता तो क्या, मुस्कराता भी नहीं
हूं। सच कहूं तो दरअस्ल घबरा जाता हूं। बल्कि मतलब, स्वार्थ, ठकुरसुहाती,
निर्लज्ज चापलूसी के प्रणामों को देखकर प्रणाम की क्रिया से विमुख हो जाता
हूं। लेकिन आज भी मेरी इस पीढ़ी में – अब छियासठ साल का हो चुका हूं – दिल
में कहीं मुझे किसी ना किसी को प्रणाम करने की इच्छा होती है, आशीर्वाद की
जरूरत लगती है।




लेकिन आज कोई प्रणम्य इंसान है भी?




हां, हर परिवार में बुजुर्ग हैं, वालिदैन, दादा-दादी, नाना-नानी, जिन्हें
प्रणाम करना हमारा कर्तव्य बनता है और हमारा सौभाग्य भी। लेकिन घर-परिवार
के बाहर, समाज में, भारत के सार्वजनिक जीवन में, ऐसे आदमी नहीं के बराबर हो
गए हैं। पर.. थमता हूं.. कुछ अपवाद हैं। सम्माननीय अपवाद।




इनमें उल्लेख करना चाहूंगा सात वर्गो का:




1. भारत के उन सब स्वतंत्रता सेनानियों का जो आज भी इस खर्चीली, चमकीली,
भड़कीली दुनिया में अपनी पुरानी सादगी से, ईमानदारी से रहते हैं। और अपनी
लड़त की प्रेरणात्मक यादों से भरपूर, आज की समस्याओं से चिंतित, विचलित
रहते हैं। वे प्रणम्य हैं।




2. उन माताओं औरमहिलाओं का, जिनके लाड़ले बेटों-भाइयों ने, और जिनके
बहादुर पतिदेवों ने भारत की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए अपनी जानें
न्यौछावर करी हैं। वे प्रणम्य हैं।




3. उन आदर्शवादी जजों और मजिस्ट्रेटों का, उन सब अफसरों का, जिन्होंने
रिश्वतों की मूसलधार बारिश में अपने ईमान और अपनी मर्यादा पर, भारत के
संविधान, उसकी न्यायपालिका और उसकी सरकार की इज्जत पर, ईमानदारी की
लड़खड़ाती हुई, पर स्वाभिमानी छतरी टिकाई रखी है। वे प्रणम्य हैं।




4. उन शास्त्रीय कलाकारों का, जो कि हमारी प्राचीन कला-परंपरा के वृक्ष को सींचते आए हैं। वे प्रणम्य हैं।




5. उन कारीगरों का, जो कि अपने हाथों से, उंगलियों और आंखों की सूक्ष्म
दृष्टि से काम करते हैं। हस्तशिल्पियों के साथ जोड़े जाते हैं, हमारे अनथक
‘सफाई कर्मचारी’, जो कि हमारी ‘बा-सफा’ खुशहाली के लिए खुद दिन-रात गर्दिश
से घिरे रहते हैं। वे प्रणम्य हैं।




6. और उन निडर लोगों का, जो कि सरकारी और कॉपरेरेट और समाज-केंद्रित
भ्रष्टाचार को चुनौती देते आए हैं। आज हमारे बीच हय्यात कई व्यक्तियों और
संस्थाओं ने प्रणम्य काम कर दिखाए हैं, जैसे कि चंडी प्रसाद भट्ट, सुंदरलाल
बहुगुणा, ईलाबेन भट्ट, अन्ना हजारे, मेधा पाटकर, अरुणा रॉय, स्वामी
अग्निवेश, अभय और रानी बंग, वंदना शिवा, सुनीता नारायण, पी साईनाथ और केरल
की सीके जानू। भोपाल गैस कांड से ग्रस्त लोगों के लिए जिन्होंने दशकों से
काम किया है, वे प्रणम्य हैं।




यहां कुछ ऐतिहासिक ‘प्रणाम’ उल्लेखनीय हैं, जैसे शांतिनिकेतन में गांधीजी
का गुरुदेव रबींद्रनाथ को किया प्रणाम, दिल्ली की सरहद पर पंडित नेहरू और
आचार्य विनोबा भावे का परस्पर प्रणाम। लेकिन आज! आज सामाजिक क्षेत्र में
चंद नमस्कारणीय लोग जरूर मिल जाएंगे, प्रणम्यों की संख्या कम हो गई है।
नमस्कार किए बहुत जाते हैं राजनीतिक दरबारों में, समर्थकों-पिछलग्गुओं
द्वारा, कृपाओं की उम्मीद बनाए हुए।




यह दुर्भाग्य की बात है। राजनीति ही से तो हमें गांधी मिले थे, और जवाहर,
भगत सिंह, देशबंधु, सुभाष, पटेल, बादशाह खान, राजाजी, राजेंद्र बाबू,
मौलाना आजाद, आंबेडकर, सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, ईएमएस
नंबूदरीपाद, प्रकाशम, नरेंद्र देव, आशुतोष-श्यामाप्रसाद पिता-पुत्र,
इंदिरा-राजीव मातृ-पुत्र और फिर जयप्रकाश! आजादी के लिए और फिर एक
न्यायसंगत भारत की रचना के लिए राजनीति जब इंकलाबी थी, सक्रिय थी, तब वह
प्रणम्य थी। सत्ता ने उसकी सिफत बदल दी।




खादी पर कलफ चढ़ी तो इंकलाब की वर्दी वीआईपी-वस्त्र बन गई।




कमलादेवी चट्टोपाध्याय, रामेश्वरी नेहरू और अरुणा आसफ अली जैसी कर्मठ
महिलाएं सत्ता में नहीं आईं, प्रणम्य रहीं। ऐसा नहीं कि हर सत्ताधारी का
बागी वस्त्र दागी बन गया। शास्त्री जैसे नेताओं की सत्ता में उनकी खादी ने
काम किया, न कि उनकी खादी में उनकी सत्ता ने।




दिवंगतशंकरदयालजी शर्मा ने मुझे एक किस्सा सुनाया था : किसी खादीधारी भाई
ने गांधीजी को एक बार कहा : ‘बापू, खादी में दिक्कत यह है कि वह बहुत
जल्दी मैली हो जाती है’। कुछ सोचकर बापू बोले : ‘खादी को मैल पसंद नहीं।’
वैसे बात खादी-परंपरा से जुड़ी राजनीति की ही नहीं। हर दल की विश्वसनीयता
ने क्षति देखी है। डॉ. लोहिया को कौन-सा समाजवादी आज याद नहीं करता? अटलजी
की आवाज सुनने आज कौन भाजपा समर्थक आतुर नहीं? क्या यह स्थिति बदलेगी भी?




गालिबन तब जब नमस्कारियों को हम प्रणम्य बनने के लिए ललकारेंगे। और खुद प्रणाम दिमाग से नहीं, दिल से करेंगे।




(लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *