भोपाल। वर्तमान
समय में भारतीय अभिभावकों की यह मानसिकता बन चुकी है कि पढ़ाई तो सिर्फ
निजी स्कूलों में ही होती है, सरकारी स्कूल में बच्चों को भेजना, जैसे समय
बर्बादी हो। इस मानसिकता का असर यह हो रहा है कि सरकारी स्कूलों में दाखिले
के लिए सरकार द्वारा आजमाए जा रहे तमाम उपाय फेल हो रहे हैं।
चाहे गरीब हों या अमीर, सभी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही भेजना
चाहते हैं। अब, मध्यप्रदेश के बड़ीचुर्ले गांव का उदाहरण लीजिए। इंदौर से
तीन घंटे की दूरी पर स्थित इस गांव में करीब ६क्क् बच्चे स्कूल जाने योग्य
हैं। इस गांव की कुल आबाद लगभग तीन हजार है और सभी खेती पर निर्भर हैं।
इस गांव में तीन सरकारी और तीन निजी स्कूल हैं। सरकारी स्कूलों के भवन काफी
लंबे-चौड़े हैं। साथ ही काफी बड़ा खेल का मैदान है। बच्चों को पढ़ाने के
लिए इन स्कूलों में विश्वविद्यालय की डिग्री लिए हुए उच्च शिक्षित शिक्षक
हैं। यही नहीं, बच्चों को यहां मुफ्त शिक्षा के साथ-साथ लंच, किताबें,
यूनिफॉर्म्स और यहां तक कि साइकिल (दो मील से अधिक दूरी से आने वाले बच्चों
के लिए) भी दिए जाते हैं।
साथ ही लड़कियों को 6 डॉलर और लड़कों को 4 डॉलर स्कॉरशिप भी दी जाती है। इस
गांव के तीन सरकारी स्कूलों में 166 बच्चें पढ़ते हैं। इनके लिए शिक्षकों
पर 3050 डॉलर खर्च किए जाते हैं।
वहीं, तुलनात्मक निजी स्कूलों में 272 बच्चें हैं और शिक्षकों, भवनों की
रख-रखाव एवं अन्य कामों पर सिर्फ 1340 डॉलर खर्च किया जाता है। इसके अलावा
करीब 100 बच्चे गांव से बाहर और महंगे निजी स्कूलों में जाते हैं। इन
बच्चों की फीस पर प्रत्येक साल करीब 240 डॉलर खर्च किया जाता है।
इस पूरे मामले पर रेम सिंह सोलंकी नाम के एक सरकारी शिक्षक ने बताया कि
उनके पास बच्चों को पढ़ाने के अलावा स्कूल के बाहर और कई काम करने होते
हैं। जैसे, जनगणना, चुनाव, पोलियो अभियान आदि जैसे कामों में उनका उपयोग
किया जाता है, जिसका सीधा असर पढ़ाई पर पड़ता है। इस कारण वे अपनी
जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभा पाते हैं।
इसके ठीक विपरीत निजी स्कूल के एक शिक्षम मनोज शर्मा ने बताया कि वे कम
सैलरी पर अच्छा पढ़ाने को इसलिए मजबूर होते हैं, क्योंकि उनके हाथ से नौकरी
जाने का डर होता है। इसके अलावा सरकार ने लोगों का रूझान सरकारी स्कूल की
ओर बढ़ाने के लिए निजी स्कूलों के मानदंड को कड़ा किया है, जिसके अंतर्गत
कई कड़े नियम बनाए हैं।
इन नियमों से आस-पास के निजी स्कूल मालिक काफी परेशान हैं। कुछ ऐसा ही देश
के लगभग सभी सरकारी स्कूलों की है। सरकार की तरफ सेलाख उपाय किए जा रहे
हैं, ताकि गरीब-से-गरीब बच्च भी पढ़ सके। लेकिन मानसिकता ने सबको जकड़ रखा
है। यह तो एक छोटे से गांव का उदाहरण है, जहां कोई अधिक पैसे वाला नहीं है।
इसके बावजूद उनका विश्वास निजी स्कूलों पर है।
समय में भारतीय अभिभावकों की यह मानसिकता बन चुकी है कि पढ़ाई तो सिर्फ
निजी स्कूलों में ही होती है, सरकारी स्कूल में बच्चों को भेजना, जैसे समय
बर्बादी हो। इस मानसिकता का असर यह हो रहा है कि सरकारी स्कूलों में दाखिले
के लिए सरकार द्वारा आजमाए जा रहे तमाम उपाय फेल हो रहे हैं।
चाहे गरीब हों या अमीर, सभी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही भेजना
चाहते हैं। अब, मध्यप्रदेश के बड़ीचुर्ले गांव का उदाहरण लीजिए। इंदौर से
तीन घंटे की दूरी पर स्थित इस गांव में करीब ६क्क् बच्चे स्कूल जाने योग्य
हैं। इस गांव की कुल आबाद लगभग तीन हजार है और सभी खेती पर निर्भर हैं।
इस गांव में तीन सरकारी और तीन निजी स्कूल हैं। सरकारी स्कूलों के भवन काफी
लंबे-चौड़े हैं। साथ ही काफी बड़ा खेल का मैदान है। बच्चों को पढ़ाने के
लिए इन स्कूलों में विश्वविद्यालय की डिग्री लिए हुए उच्च शिक्षित शिक्षक
हैं। यही नहीं, बच्चों को यहां मुफ्त शिक्षा के साथ-साथ लंच, किताबें,
यूनिफॉर्म्स और यहां तक कि साइकिल (दो मील से अधिक दूरी से आने वाले बच्चों
के लिए) भी दिए जाते हैं।
साथ ही लड़कियों को 6 डॉलर और लड़कों को 4 डॉलर स्कॉरशिप भी दी जाती है। इस
गांव के तीन सरकारी स्कूलों में 166 बच्चें पढ़ते हैं। इनके लिए शिक्षकों
पर 3050 डॉलर खर्च किए जाते हैं।
वहीं, तुलनात्मक निजी स्कूलों में 272 बच्चें हैं और शिक्षकों, भवनों की
रख-रखाव एवं अन्य कामों पर सिर्फ 1340 डॉलर खर्च किया जाता है। इसके अलावा
करीब 100 बच्चे गांव से बाहर और महंगे निजी स्कूलों में जाते हैं। इन
बच्चों की फीस पर प्रत्येक साल करीब 240 डॉलर खर्च किया जाता है।
इस पूरे मामले पर रेम सिंह सोलंकी नाम के एक सरकारी शिक्षक ने बताया कि
उनके पास बच्चों को पढ़ाने के अलावा स्कूल के बाहर और कई काम करने होते
हैं। जैसे, जनगणना, चुनाव, पोलियो अभियान आदि जैसे कामों में उनका उपयोग
किया जाता है, जिसका सीधा असर पढ़ाई पर पड़ता है। इस कारण वे अपनी
जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभा पाते हैं।
इसके ठीक विपरीत निजी स्कूल के एक शिक्षम मनोज शर्मा ने बताया कि वे कम
सैलरी पर अच्छा पढ़ाने को इसलिए मजबूर होते हैं, क्योंकि उनके हाथ से नौकरी
जाने का डर होता है। इसके अलावा सरकार ने लोगों का रूझान सरकारी स्कूल की
ओर बढ़ाने के लिए निजी स्कूलों के मानदंड को कड़ा किया है, जिसके अंतर्गत
कई कड़े नियम बनाए हैं।
इन नियमों से आस-पास के निजी स्कूल मालिक काफी परेशान हैं। कुछ ऐसा ही देश
के लगभग सभी सरकारी स्कूलों की है। सरकार की तरफ सेलाख उपाय किए जा रहे
हैं, ताकि गरीब-से-गरीब बच्च भी पढ़ सके। लेकिन मानसिकता ने सबको जकड़ रखा
है। यह तो एक छोटे से गांव का उदाहरण है, जहां कोई अधिक पैसे वाला नहीं है।
इसके बावजूद उनका विश्वास निजी स्कूलों पर है।