जनसत्ता 5 जनवरी, 2012: पूरी दुनिया में एक सौ पचीस करोड़ से अधिक लोग भूख
से त्रस्त हैं, जिनमें से एक तिहाई लोग भारत के गरीब हैं।
नवीनतम वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान बहुत नीचे, इक्यासी देशों के
बीच सड़सठवां है। इसलिए यह स्वागत-योग्य है कि भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा
की गारंटी देने वाला विधेयक संसद में पेश किया है। इस विधेयक में ग्रामीण
इलाकों की पचहत्तर फीसद और शहरी इलाकों की पचास फीसद आबादी को रियायती दरों
पर अनाज मुहैया कराने का प्रावधान है। ग्रामीण भारत के लाभार्थियों में
छियालीस फीसद लोग ‘प्राथमिकता’ वाली श्रेणी में होंगे और उनतीस फीसद
‘सामान्य’ श्रेणी में।
इसी प्रकार लक्षित शहरी आबादी में अट्ठाईस फीसद
आबादी ‘प्राथमिकता’ श्रेणी में और बाईस फीसद सामान्य श्रेणी में होगी।
प्राथमिकता वाली आबादी को तीन रुपए प्रति किलो की दर से चावल, दो रुपए
प्रति किलो की दर से गेहूं और एक रुपए प्रति किलो की दर से मोटा अनाज
उपलब्ध कराया जाएगा और न्यूनतम सात किलो अनाज प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह के
हिसाब से मिलेगा। सामान्य श्रेणी को तीन किलो प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह की दर
से अनाज दिया जाएगा, मगर उन्हें गेहूं और मोटे अनाज के न्यूनतम समर्थन
मूल्य का आधा दाम चुकाना होगा। चावल के दाम का भिन्न मापदंड होगा।
कृषि
मंत्रालय ने खाद्यान्न की कमी और खुले बाजार में किसानों को अनाज का उचित
मूल्य न मिलने की आशंका जताई है। खाद्य मंत्रालय के एक अनुमान के अनुसार,
गरीबों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में करीब पंचानवे हजार करोड़ रुपए
का खर्च आएगा, जबकि अभी यह 67,310 करोड़ रुपए है। मगर यह अनुमान 2010-11 के
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आधारित है, जबकि 2011-12 का न्यूनतम समर्थन मूल्य
बढ़ा दिया गया है। लिहाजा, कुल खर्च एक लाख करोड़ रुपए से बढ़ सकता है।
दूसरी
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हालांकि अनुमानित व्यय में कल्याण योजनाओं,
शिकायत निवारण पद्धति और वार्षिक खाद्य अनुदान पर होने वाला आवर्ती खर्च
शामिल किया गया है, मगर कई निहित व्यय शामिल नहीं हैं। जैसे, अतिरिक्त
भंडारण क्षमता पर होने वाला खर्च, जन वितरण प्रणाली (राशन दुकान) के
सुधारों (कंप्यूटरीकरण, निगरानी आदि) पर होने वाला खर्च, रेलवे द्वारा
ढुलाई बढ़ाने पर होने वाला खर्च, अति निर्धनों को मुफ्त भोजन और राज्यों के
साथ साझा किया जाने वाला खर्च, आदि।
यह भी उल्लेखनीय है कि कृषि विभाग
के आकलन के अनुसार उसे कृषि-उत्पादन बढ़ाने के लिए 1.10 लाख करोड़ रुपए का
अतिरिक्त निवेश करना पडेÞगा। योजना पर अमल के लिए महिला एवं बाल विकास
विभाग को भी पैंतीस हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त निवेश करना होगा।
तीसरी
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्राथमिकता श्रेणी वाली आबादी की पहचान के
मानदंड अभी निर्धारित नहीं हैं। पूर्व में योजना आयोग द्वारा प्रस्तावित
मानदंड के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में छब्बीस रुपए तक की दैनिक आय और शहरी
क्षेत्र में बत्तीस रुपए तक की दैनिक आय वाले को ही गरीबी रेखा के नीचे
माना गया, जबकि उतने में मुश्किल से एक जून के खाने का जुगाड़ किया जा सकता
है। सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी रेखा के इस निर्धारण की कटु आलोचना की।कई
अर्थशास्त्रियों ने भी इस पर रोष जताया। यहां तक कि योजना आयोग के सदस्य
मिहिर शाह ने भी असहमति व्यक्त की। गरीबी के बारे में अपने मापदंड पर देश
भर में काफी विवाद के बाद योजना आयोग ने गलती स्वीकार की और गरीबी रेखा को
फिर से परिभाषित करने का वादा किया।
दूसरी ओर, कुछ अर्थशास्त्रियों ने
लगभग एक लाख करोड़ रुपए के प्रस्तावित खर्च की आलोचना की है और इसे पैसे की
बर्बादी या तुष्टीकरण या वोट बैंक की राजनीति कहा है। लेकिन भोजन का
अधिकार, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में कहा है,
जीने के अधिकार (संविधान के अनुच्छेद 21-ए) का अहम हिस्सा है और यह
संघ-राज्य का कर्तव्य है कि अपने नागरिकों को भूखा न सोने दे।
खाद्य
अनुदान की आलोचना करने वाले भूल जाते हैं कि रिजर्व बैंक की गणना के
अनुसार, विभिन्न राष्ट्रीयकृत बैंकों की न चुकाई जाने वाली परिसंपत्ति
(एनपीए) डेढ़ लाख करोड़ रुपए है और वर्ष 2010-11 में भारत के उद्योगपतियों को
साढेÞ चार लाख करोड़ रुपए की रियायतें और प्रोत्साहन राशि दी गई। फिर ‘सेज’
(विशेष आर्थिक क्षेत्र) में उद्योगपतियों को तरह-तरह की छूट हासिल है।
पश्चिमी
यूरोप के तमाम देशों ने उद्योगीकरण के दौरान राज्य को सबल और सुदृढ़ बनाने
के लिए सार्वजनीन स्वास्थ्य सुविधा, बेरोजगारी भत्ता, वृद्धावस्था पेंशन और
मुफ्त स्कूली शिक्षा आदि की व्यवस्था की, जिसके फलस्वरूप वहां से गरीबी
दूर की जा सकी। इन सार्वजनिक सुविधाओं की शुरुआत सबसे पहले बिस्मार्क ने
जर्मन साम्राज्य में 1890 में की थी। दूसरी ओर भारत में ‘गरीबी हटाओ’ का
नारा भले दिया गया, मगर हम गरीबी नहीं मिटा सके। हालांकि आजादी के पैंसठ
वर्षों में इसके लिए तमाम योजनाएं तैयार की गर्इं। मगर कुछ योजनाओं के
स्वरूप में कमी थी, और अधिकतर का क्रियान्वयन ही सही ढंग से नहीं हुआ।
यूरोपीय
देशों ने गरीबी रेखा से नीचे का लक्षित दृष्टिकोण नहीं अपनाया। भारत में
ऐसा दृष्टिकोण अपनाने का कारण सीमित बजट रहा है। 1991 से लागू नवउदारवादी
नीतियों के समय से लक्षित दृष्टिकोण ज्यादा कड़ाई से अपनाया जाता रहा है। सामाजिक
कार्यकर्ता अरुणा राय द्वारा व्यक्त की गई शंकाओं के समाधान के लिए विधेयक
में त्रि-स्तरीय शिकायत निवारण व्यवस्था की गई है। यहां यह भी कहना
प्रासंगिक है कि केंद्र को इस योजना की खातिर छह करोड़ टन अनाज (चावल और
गेहूं मिला कर) की खरीद करनी होगी।
सन 2010-11 में 6.23 करोड़ टन अनाज
की खरीद केंद्र सरकार ने की थी। कृषि मंत्रालय ने अनुमान लगाया है कि कृषि
पैदावार में ढाई करोड़ टन की वार्षिक वृद्धि करनी होगी। लिहाजा, इसे एक लाख
दस हजार छह सौ करोड़ रुपए का कुल कृषि निवेश करना होगा। इस बाबत राज्यों को
तीन सौ बीस करोड़ रुपए (प्रतिवर्ष) का खर्च वहन करना होगा। यह गणना अभी नहीं
की गई है कि परिवहन-व्यय के रूप में 8300 करोड़ रुपए कौन वहन करेगा-
केंद्र, या राज्य, या दोनों?
इसके अलावा अन्य कई समस्याओं को भी
सुलझाना है। मसलन, यह तय करना है कि कितने लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। अभी
गरीबी का अधिकतम फीसदनिर्धारितहै। ऐसा करने से गरीबी में गुजर-बसर करने
वाले बहुत सारे लोग छूट जाते हैं, या कि उन्हें जान-बूझ कर छोड़ दिया जाता
है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के बारे में मेरा कटु अनुभव है कि
कई समृद्ध लोगों ने भी गरीबी रेखा के नीचे वाला राशन कार्ड प्राप्त कर लिया
है, जबकि वास्तविक हकदारों का एक खासा बीपीएल राशन कार्ड से वंचित है।
यही
नहीं, जन वितरण प्रणाली अत्यंत दोषपूर्ण है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक
तिहाई राशन कार्ड बोगस हैं, यानी उनमें दर्ज नाम फर्जी हैं जिनका कोई वजूद
नहीं है। कुछ राज्यों में फर्जी राशन कार्ड करीब आधे हैं। मगर उनके नाम का
राशन नियमित रूप से उठ रहा है, जिसका फायदा आपूर्ति अधिकारी, विशिष्ट राशन
अधिकारी, एसडीएम आदि उठाते हैं और उस लूट का एक भाग राशन दुकानदार भी लेता
है।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में बीते साल जन वितरण प्रणाली में
करोड़ों रुपए का घपला हुआ और बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश से
सीबीआई ने धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया, जिसकी जांच अभी चल
रही है। फिर माप-तौल में भी राशन दुकानदार गड़बड़ी करते हैं। कम उपलब्धता के
बहाने या कम तौल कर कम मात्रा में राशन-किरासन तेल देना आम बात है। इसके
अलावा दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में राशन दुकानदार निर्धारित दर से ज्यादा
कीमत वसूलते हैं। राशन दुकानदारों को कम ढुलाई खर्च और बहुत कम कमीशन मिलने
के कारण भी काफी गड़बड़ी होती है।
यह भी उल्लेखनीय है कि भारत में
अनाज भंडारण की पर्याप्त क्षमता वाले गोदाम उपलब्ध नहीं हैं, जिससेकई
राज्यों में सरकारी खरीद का अनाज खुले आकाश के नीचे रखा जाता है और नतीजतन
बारिश के कारण सड़ जाता है। खाद्यान्न की सबसे ज्यादा बर्बादी 2000-2001 में
हुई जब 67.52 करोड़ रुपए मूल्य का 1.82 लाख टन खाद्यान्न बर्बाद हो गया। यह
विडंबना है कि किसानों से खरीद, भंडारण के लिए परिवहन, भंडारण, फिर वितरण
के लिए परिवहन और उपभोक्ताओं को वितरण जैसे विभिन्न चरणों में केंद्रीकरण
के कारण ज्यादा खर्च होता है और ज्यादा बर्बादी भी होती है। इसलिए खरीद,
परिवहन, भंडारण और वितरण की विकेंद्रीकृत व्यवस्था अत्यंत जरूरी है।
वास्तव
में भारत के कुल छह लाख गांवों में से पांच लाख गांवों में खाद्यान्न की
उपज पर्याप्त होती है, मगर वहां के निवासी भी भूख के शिकार क्यों हैं? अगर
पक्के तौर पर स्थानीय प्रबंधन किया जाए, तो खरीदारी, भंडारण, परिवहन और
वितरण की जटिल समस्याएं दूर हो जाएंगी। तकरीबन सभी पंचायतों का अपना-अपना
पंचायत भवन है, उसे स्थानीय स्तर पर न्यूनतम भंडारण के लिए उपयोग में लाया
जा सकता है और जरूरत पड़ने पर एक बड़ा गोदाम भी बनाया जा सकता है। फिर शेष एक
लाख गांवों के लिए ही खरीदारी, परिवहन, भंडारण और वितरण की विस्तृत
व्यवस्था करनी होगी। वहां भी यथासंभव उसी प्रखंड या तहसील या जिले से
अतिरिक्त अनाज की व्यवस्था करनी चाहिए। तब बहुत कम गांव ऐसे होंगे जिन्हें
जिला स्तर से भी खाद्यान्न उपलब्ध नहीं कराया जा सकेगा। वे सूखाग्रस्त,
पहाड़ी और जंगल के इर्दगिर्द वाले गांव ही होंगे। जाहिरहै, खाद्य सुरक्षा
के लिए अनाज के भंडारण, प्रबंधन और आपूर्ति का विकेंद्रीकरण बेहद जरूरी है।
नवउदारवादी
अर्थशास्त्री और कुछ अन्य लोग रियायती दर पर राशन के बदले नकद राशि देने
के पक्ष में हैं। समस्या यह है कि ऐसे लोग भारतीय समाज की वास्तविकता से
दूर हैं। नकद राशि का दुरुपयोग बिचौलियों के जरिए होगा। फिर यह आशंका भी है
कि गरीब लोग भी उसे शादी-ब्याह, त्योहार, कर्मकांड, नशाखोरी जैसी अन्य
मदों में खर्च कर देंगे।
इस तरह भुखमरी और कुपोषण की समस्या दूर नहीं
होगी। ग्रामीण समाज में परिपाटी है कि नकद पैसे पर प्राय: पुरुष का
एकाधिकार होता है, जबकि भोजन-पानी व्यवहार में महिलाओं के नियंत्रण में
रहता है। इसलिए खाद्य सुरक्षा के नाम पर बीपीएल परिवारों को नकद राशि देने
का सुझाव उचित नहीं है। हमें खाद्य सुरक्षा को गरीबों को मात्र कुछ सरकारी
सहायता पहुंचाने के नजरिए से नहीं, उनके सशक्तीकरण के व्यापक परिप्रेक्ष्य
में देखना होगा।
से त्रस्त हैं, जिनमें से एक तिहाई लोग भारत के गरीब हैं।
नवीनतम वैश्विक भूख सूचकांक में भारत का स्थान बहुत नीचे, इक्यासी देशों के
बीच सड़सठवां है। इसलिए यह स्वागत-योग्य है कि भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा
की गारंटी देने वाला विधेयक संसद में पेश किया है। इस विधेयक में ग्रामीण
इलाकों की पचहत्तर फीसद और शहरी इलाकों की पचास फीसद आबादी को रियायती दरों
पर अनाज मुहैया कराने का प्रावधान है। ग्रामीण भारत के लाभार्थियों में
छियालीस फीसद लोग ‘प्राथमिकता’ वाली श्रेणी में होंगे और उनतीस फीसद
‘सामान्य’ श्रेणी में।
इसी प्रकार लक्षित शहरी आबादी में अट्ठाईस फीसद
आबादी ‘प्राथमिकता’ श्रेणी में और बाईस फीसद सामान्य श्रेणी में होगी।
प्राथमिकता वाली आबादी को तीन रुपए प्रति किलो की दर से चावल, दो रुपए
प्रति किलो की दर से गेहूं और एक रुपए प्रति किलो की दर से मोटा अनाज
उपलब्ध कराया जाएगा और न्यूनतम सात किलो अनाज प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह के
हिसाब से मिलेगा। सामान्य श्रेणी को तीन किलो प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह की दर
से अनाज दिया जाएगा, मगर उन्हें गेहूं और मोटे अनाज के न्यूनतम समर्थन
मूल्य का आधा दाम चुकाना होगा। चावल के दाम का भिन्न मापदंड होगा।
कृषि
मंत्रालय ने खाद्यान्न की कमी और खुले बाजार में किसानों को अनाज का उचित
मूल्य न मिलने की आशंका जताई है। खाद्य मंत्रालय के एक अनुमान के अनुसार,
गरीबों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में करीब पंचानवे हजार करोड़ रुपए
का खर्च आएगा, जबकि अभी यह 67,310 करोड़ रुपए है। मगर यह अनुमान 2010-11 के
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आधारित है, जबकि 2011-12 का न्यूनतम समर्थन मूल्य
बढ़ा दिया गया है। लिहाजा, कुल खर्च एक लाख करोड़ रुपए से बढ़ सकता है।
दूसरी
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हालांकि अनुमानित व्यय में कल्याण योजनाओं,
शिकायत निवारण पद्धति और वार्षिक खाद्य अनुदान पर होने वाला आवर्ती खर्च
शामिल किया गया है, मगर कई निहित व्यय शामिल नहीं हैं। जैसे, अतिरिक्त
भंडारण क्षमता पर होने वाला खर्च, जन वितरण प्रणाली (राशन दुकान) के
सुधारों (कंप्यूटरीकरण, निगरानी आदि) पर होने वाला खर्च, रेलवे द्वारा
ढुलाई बढ़ाने पर होने वाला खर्च, अति निर्धनों को मुफ्त भोजन और राज्यों के
साथ साझा किया जाने वाला खर्च, आदि।
यह भी उल्लेखनीय है कि कृषि विभाग
के आकलन के अनुसार उसे कृषि-उत्पादन बढ़ाने के लिए 1.10 लाख करोड़ रुपए का
अतिरिक्त निवेश करना पडेÞगा। योजना पर अमल के लिए महिला एवं बाल विकास
विभाग को भी पैंतीस हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त निवेश करना होगा।
तीसरी
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्राथमिकता श्रेणी वाली आबादी की पहचान के
मानदंड अभी निर्धारित नहीं हैं। पूर्व में योजना आयोग द्वारा प्रस्तावित
मानदंड के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में छब्बीस रुपए तक की दैनिक आय और शहरी
क्षेत्र में बत्तीस रुपए तक की दैनिक आय वाले को ही गरीबी रेखा के नीचे
माना गया, जबकि उतने में मुश्किल से एक जून के खाने का जुगाड़ किया जा सकता
है। सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी रेखा के इस निर्धारण की कटु आलोचना की।कई
अर्थशास्त्रियों ने भी इस पर रोष जताया। यहां तक कि योजना आयोग के सदस्य
मिहिर शाह ने भी असहमति व्यक्त की। गरीबी के बारे में अपने मापदंड पर देश
भर में काफी विवाद के बाद योजना आयोग ने गलती स्वीकार की और गरीबी रेखा को
फिर से परिभाषित करने का वादा किया।
दूसरी ओर, कुछ अर्थशास्त्रियों ने
लगभग एक लाख करोड़ रुपए के प्रस्तावित खर्च की आलोचना की है और इसे पैसे की
बर्बादी या तुष्टीकरण या वोट बैंक की राजनीति कहा है। लेकिन भोजन का
अधिकार, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में कहा है,
जीने के अधिकार (संविधान के अनुच्छेद 21-ए) का अहम हिस्सा है और यह
संघ-राज्य का कर्तव्य है कि अपने नागरिकों को भूखा न सोने दे।
खाद्य
अनुदान की आलोचना करने वाले भूल जाते हैं कि रिजर्व बैंक की गणना के
अनुसार, विभिन्न राष्ट्रीयकृत बैंकों की न चुकाई जाने वाली परिसंपत्ति
(एनपीए) डेढ़ लाख करोड़ रुपए है और वर्ष 2010-11 में भारत के उद्योगपतियों को
साढेÞ चार लाख करोड़ रुपए की रियायतें और प्रोत्साहन राशि दी गई। फिर ‘सेज’
(विशेष आर्थिक क्षेत्र) में उद्योगपतियों को तरह-तरह की छूट हासिल है।
पश्चिमी
यूरोप के तमाम देशों ने उद्योगीकरण के दौरान राज्य को सबल और सुदृढ़ बनाने
के लिए सार्वजनीन स्वास्थ्य सुविधा, बेरोजगारी भत्ता, वृद्धावस्था पेंशन और
मुफ्त स्कूली शिक्षा आदि की व्यवस्था की, जिसके फलस्वरूप वहां से गरीबी
दूर की जा सकी। इन सार्वजनिक सुविधाओं की शुरुआत सबसे पहले बिस्मार्क ने
जर्मन साम्राज्य में 1890 में की थी। दूसरी ओर भारत में ‘गरीबी हटाओ’ का
नारा भले दिया गया, मगर हम गरीबी नहीं मिटा सके। हालांकि आजादी के पैंसठ
वर्षों में इसके लिए तमाम योजनाएं तैयार की गर्इं। मगर कुछ योजनाओं के
स्वरूप में कमी थी, और अधिकतर का क्रियान्वयन ही सही ढंग से नहीं हुआ।
यूरोपीय
देशों ने गरीबी रेखा से नीचे का लक्षित दृष्टिकोण नहीं अपनाया। भारत में
ऐसा दृष्टिकोण अपनाने का कारण सीमित बजट रहा है। 1991 से लागू नवउदारवादी
नीतियों के समय से लक्षित दृष्टिकोण ज्यादा कड़ाई से अपनाया जाता रहा है। सामाजिक
कार्यकर्ता अरुणा राय द्वारा व्यक्त की गई शंकाओं के समाधान के लिए विधेयक
में त्रि-स्तरीय शिकायत निवारण व्यवस्था की गई है। यहां यह भी कहना
प्रासंगिक है कि केंद्र को इस योजना की खातिर छह करोड़ टन अनाज (चावल और
गेहूं मिला कर) की खरीद करनी होगी।
सन 2010-11 में 6.23 करोड़ टन अनाज
की खरीद केंद्र सरकार ने की थी। कृषि मंत्रालय ने अनुमान लगाया है कि कृषि
पैदावार में ढाई करोड़ टन की वार्षिक वृद्धि करनी होगी। लिहाजा, इसे एक लाख
दस हजार छह सौ करोड़ रुपए का कुल कृषि निवेश करना होगा। इस बाबत राज्यों को
तीन सौ बीस करोड़ रुपए (प्रतिवर्ष) का खर्च वहन करना होगा। यह गणना अभी नहीं
की गई है कि परिवहन-व्यय के रूप में 8300 करोड़ रुपए कौन वहन करेगा-
केंद्र, या राज्य, या दोनों?
इसके अलावा अन्य कई समस्याओं को भी
सुलझाना है। मसलन, यह तय करना है कि कितने लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। अभी
गरीबी का अधिकतम फीसदनिर्धारितहै। ऐसा करने से गरीबी में गुजर-बसर करने
वाले बहुत सारे लोग छूट जाते हैं, या कि उन्हें जान-बूझ कर छोड़ दिया जाता
है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के बारे में मेरा कटु अनुभव है कि
कई समृद्ध लोगों ने भी गरीबी रेखा के नीचे वाला राशन कार्ड प्राप्त कर लिया
है, जबकि वास्तविक हकदारों का एक खासा बीपीएल राशन कार्ड से वंचित है।
यही
नहीं, जन वितरण प्रणाली अत्यंत दोषपूर्ण है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक
तिहाई राशन कार्ड बोगस हैं, यानी उनमें दर्ज नाम फर्जी हैं जिनका कोई वजूद
नहीं है। कुछ राज्यों में फर्जी राशन कार्ड करीब आधे हैं। मगर उनके नाम का
राशन नियमित रूप से उठ रहा है, जिसका फायदा आपूर्ति अधिकारी, विशिष्ट राशन
अधिकारी, एसडीएम आदि उठाते हैं और उस लूट का एक भाग राशन दुकानदार भी लेता
है।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में बीते साल जन वितरण प्रणाली में
करोड़ों रुपए का घपला हुआ और बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश से
सीबीआई ने धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया, जिसकी जांच अभी चल
रही है। फिर माप-तौल में भी राशन दुकानदार गड़बड़ी करते हैं। कम उपलब्धता के
बहाने या कम तौल कर कम मात्रा में राशन-किरासन तेल देना आम बात है। इसके
अलावा दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में राशन दुकानदार निर्धारित दर से ज्यादा
कीमत वसूलते हैं। राशन दुकानदारों को कम ढुलाई खर्च और बहुत कम कमीशन मिलने
के कारण भी काफी गड़बड़ी होती है।
यह भी उल्लेखनीय है कि भारत में
अनाज भंडारण की पर्याप्त क्षमता वाले गोदाम उपलब्ध नहीं हैं, जिससेकई
राज्यों में सरकारी खरीद का अनाज खुले आकाश के नीचे रखा जाता है और नतीजतन
बारिश के कारण सड़ जाता है। खाद्यान्न की सबसे ज्यादा बर्बादी 2000-2001 में
हुई जब 67.52 करोड़ रुपए मूल्य का 1.82 लाख टन खाद्यान्न बर्बाद हो गया। यह
विडंबना है कि किसानों से खरीद, भंडारण के लिए परिवहन, भंडारण, फिर वितरण
के लिए परिवहन और उपभोक्ताओं को वितरण जैसे विभिन्न चरणों में केंद्रीकरण
के कारण ज्यादा खर्च होता है और ज्यादा बर्बादी भी होती है। इसलिए खरीद,
परिवहन, भंडारण और वितरण की विकेंद्रीकृत व्यवस्था अत्यंत जरूरी है।
वास्तव
में भारत के कुल छह लाख गांवों में से पांच लाख गांवों में खाद्यान्न की
उपज पर्याप्त होती है, मगर वहां के निवासी भी भूख के शिकार क्यों हैं? अगर
पक्के तौर पर स्थानीय प्रबंधन किया जाए, तो खरीदारी, भंडारण, परिवहन और
वितरण की जटिल समस्याएं दूर हो जाएंगी। तकरीबन सभी पंचायतों का अपना-अपना
पंचायत भवन है, उसे स्थानीय स्तर पर न्यूनतम भंडारण के लिए उपयोग में लाया
जा सकता है और जरूरत पड़ने पर एक बड़ा गोदाम भी बनाया जा सकता है। फिर शेष एक
लाख गांवों के लिए ही खरीदारी, परिवहन, भंडारण और वितरण की विस्तृत
व्यवस्था करनी होगी। वहां भी यथासंभव उसी प्रखंड या तहसील या जिले से
अतिरिक्त अनाज की व्यवस्था करनी चाहिए। तब बहुत कम गांव ऐसे होंगे जिन्हें
जिला स्तर से भी खाद्यान्न उपलब्ध नहीं कराया जा सकेगा। वे सूखाग्रस्त,
पहाड़ी और जंगल के इर्दगिर्द वाले गांव ही होंगे। जाहिरहै, खाद्य सुरक्षा
के लिए अनाज के भंडारण, प्रबंधन और आपूर्ति का विकेंद्रीकरण बेहद जरूरी है।
नवउदारवादी
अर्थशास्त्री और कुछ अन्य लोग रियायती दर पर राशन के बदले नकद राशि देने
के पक्ष में हैं। समस्या यह है कि ऐसे लोग भारतीय समाज की वास्तविकता से
दूर हैं। नकद राशि का दुरुपयोग बिचौलियों के जरिए होगा। फिर यह आशंका भी है
कि गरीब लोग भी उसे शादी-ब्याह, त्योहार, कर्मकांड, नशाखोरी जैसी अन्य
मदों में खर्च कर देंगे।
इस तरह भुखमरी और कुपोषण की समस्या दूर नहीं
होगी। ग्रामीण समाज में परिपाटी है कि नकद पैसे पर प्राय: पुरुष का
एकाधिकार होता है, जबकि भोजन-पानी व्यवहार में महिलाओं के नियंत्रण में
रहता है। इसलिए खाद्य सुरक्षा के नाम पर बीपीएल परिवारों को नकद राशि देने
का सुझाव उचित नहीं है। हमें खाद्य सुरक्षा को गरीबों को मात्र कुछ सरकारी
सहायता पहुंचाने के नजरिए से नहीं, उनके सशक्तीकरण के व्यापक परिप्रेक्ष्य
में देखना होगा।