विकास का पैमाना क्या है- अनिल चमड़िया

जनसत्ता 3 जनवरी, 2012: विदेशी निवेश भूमंडलीकरण की नीति का हिस्सा है।
इसीलिए खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के हाथों में देने के केंद्र सरकार
के फैसले का स्थगन परमाणु समझौते की तरह ही है।
अमेरिका के साथ भारत के परमाणु समझौते की पूरी प्रक्रिया पर नजर दौड़ाएं तो
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में कह दिया था कि सरकार के पास यही
एकमात्र एजेंडा नहीं है। यूपीए-एक सरकार का समर्थन करने वाली वामपंथी
पार्टियों ने तब गलती से यह समझ लिया था कि मनमोहन सिंह सरकार ने परमाणु
समझौते के मामले में अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। जमीनी आंदोलन कमजोर हो
गया था। यह तय है कि भूमंडलीकरण की सारी नीतियों को एक-एक कर लागू किया
जाना है। 1991 के बाद ऐसी किसी नीति के बारे में यह दावा नहीं किया जा सकता
कि सरकार ने उसे हमेशा के लिए वापस ले लिया है।
हमें यह देखना चाहिए
कि भूमंडलीकरण के हर फैसले पर सरकार कैसे समर्थन जुटाती है और नतीजे के तौर
पर देश के लोगों को क्या देखना  पड़ा है। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश
के पक्ष में सरकार के तर्क थे कि इससे रोजगार के अवसर बढेÞंगे। उपभोक्ताओं
को लाभ होगा। किसानों को भी इसका लाभ मिलेगा। बेशक ये तर्क बेहद लुभावने
हैं। लेकिन कुछ सवाल हैं और उन्हें साफ कर लिया जाए तो सरकार के इन तर्कों
पर आंख मूंद कर सहमति दी जा सकती है।
पहली बात तो यह कि सरकार यह
स्वीकार कर रही है कि अब तक जो आर्थिक व्यवस्था खड़ी की गई है वह बिचौलियों
वाली अर्थव्यवस्था रही है। वह किसने खड़ी की है? सरकार को अब बिचौलियों की
परवाह नहीं रह गई है। वह बिचौलियों की जगह एक नई ताकत या नए ढांचे को खड़ा
करना चाहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में बिचौलियों वाली अर्थव्यवस्था
ने जो रोजगार के अवसर पैदा किए हैं वे अब खत्म हो जाएंगे। उनकी जगह नई
बाजार व्यवस्था में रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। रोजगार का खत्म होना
बनाम रोजगार का पैदा होना एक व्यवस्था के खत्म होने और दूसरी के शुरू होने
के सामान्य-से नियम हैं। सरकार केवल इस बात पर जोर दे रही है कि रोजगार के
नए अवसर पैदा होंगे।
दूसरा तर्क भी कम दिलचस्प नहीं है। बिचौलियों को
मिलने वाला लाभ उपभोक्ताओं और उत्पादकों को मिलेगा। यानी बिचौलियों को
मिलने वाला लाभ तीन हिस्सों में बंट जाएगा। पहला हिस्सा विदेशी पूंजी निवेश
करने वालों का होगा। दूसरा उपभोक्ता और उत्पादक के हिस्से में जाएगा।
लेकिन यह कब तक? जब तक इस तरह की नीतियों को लागू करने के लिए समर्थन चाहिए
और जब तक बड़ी विदेशी पूंजी के बाजार में पांव न जम जाएं। यही तथ्य है।
दुनिया
में कहीं भी बड़ी पूंजी ने अपना एकाधिकार जमाने के बाद आम लोगों के साथ
रियायत नहीं बरती है। यह उसके स्वभाव के विपरीत है। इसे दूसरे कई उदाहरणों
से भी समझा जा सकता है। मसलन, यह देखें कि जब डाक सेवा का निजीकरण किया जा
रहा था तो यह दावा किया गया किकूरियर कंपनियां आएंगी तो रोजगार के अवसर
बढ़ेंगे। निश्चय ही बढेÞ। लेकिन डाकघर से नौकरियां गर्इं। दूसरा तथ्य यह है
कि डाकघर में एक डाकिये को महीने में जो वेतन और अन्य सुविधाएं मिलती हैं
उतने में कूरियर कंपनियों में चार-पांच आदमी काम करते हैं।
फर्क क्या
आया? फर्क केवल यह आया कि सरकार द्वारा एक परिवार को जो राशि दी जाती थी वह
निजी कंपनियों द्वारा चार-पांच परिवारों के बीच बंटने लगी। सरकार यह काम
नहीं कर सकती थी। यह संवैधानिक तौर पर गलत होता।
निजीकरण से आम परिवार
के जीवन-स्तर में किस हद तक सुधार दिखाई देता है? आम जीवन-स्तर में बेहतरी
के लिए निजीकरण है पहले के जीवन-स्तर को और गिराने के लिए? कूरियर कंपनियों
का मजदूरों की बेहतरी से सरोकार ज्यादा से ज्यादा इस बात को लेकर रहता है
कि वे न्यूनतम मजदूरी का भुगतान कर रही हैं। जबकि सरकार पर न्यूनतम वेतन
देने की ही जिम्मेदारी नहीं थी बल्कि उसे क्रमश: बढ़ाना भी था। निजी हाथों
में आकर वह न्यूनतम मजदूरी तक सिमट गया। दूसरे, सरकार ने इस न्यूनतम मजदूरी
के बदले निजी कंपनियों को आठ घंटे के बजाय ज्यादा से ज्यादा काम लेने की
भी छूट दे दी। इस तरह रोजगार के अवसर बढ़ने के सही मायने क्या हैं?
एक
दूसरा उदाहरण भी लिया जा सकता है। मनरेगा के तहत सौ दिनों तक काम की गारंटी
का कानून बना कर सरकार ने अपने को जनपक्षीय कहलाने का जुगाड़ कर लिया।
लेकिन दो सवाल पूछे जाने चाहिए। एक,काम की गारंटी के इस कानून में समान
न्यूनतम मजदूरी की नीति को क्यों गायब कर दिया गया। दूसरे, जहां देश की
राजनीतिक व्यवस्था के सामने यह सवाल था कि बेरोजगारी समाप्त करें, हर हाथ को काम दें, उससे छुटकारा मिल गया।
रोजगार की मांग साल में महज सौ
दिनों के लिए नहीं थी। लेकिन मनरेगा के तहत केवल सौ दिन की मजदूरी की
व्यवस्था की गई। क्या सौ दिन की मजदूरी के बल पर तीन सौ पैंसठ दिन जीने की
व्यवस्था रोजगार-निर्माण का कार्यक्रम कही जा सकती है?
सरकार केवल नए
कानून बनाने और पुराने कानून लागू करने के खेल से यह दिखाने का प्रयास कर
रही है कि वह अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी कर रही है। निजीकरण के इस दौर
में ही तीन चौथाई आबादी रोजाना बीस रुपए से कम पर गुजर-बसर कर रही है।
टुकड़ों
में बांट कर हम नीतियों और उनके असर को क्यों देखें? कुल मिला कर तो
भूमंडलीकरण की नीतियों की देन यह है कि दो लाख से ज्यादा किसानों ने  
आत्महत्या की है। बाजारवादी व्यवस्था की पक्षधरता के पीछे यही तर्क दिया
गया था कि इससे उत्पादकों को फायदा होगा। बाजार आधारित व्यवस्था में
प्रतिस्पर्धा बढेÞगी तो उपभोक्ताओं को लाभ होगा। कुछ दिनों पहले एक एसएमएस
आया। उसमें कहा गया था कि महंगाई बढ़ती नहीं है, घूमती रहती है। जब मोबाइल
फोन आया था तब एक कॉल की कीमत अठारह-बीस रुपए थी। आज मोबाइल कॉल एक पैसा
प्रति सेकंड है। आज दूध का भाव तब की मोबाइल कॉल से बहुत ज्यादा हो गया है।

भूमंडलीकरणकीनीतियों के केंद्र में आम जन-जीवन को बेहतर बनाना नहीं
है। कइयों के जीवन को बदतर स्थिति में ले जाकर एक की जीवन दशा को बेहतर
दिखाना है। मध्यवर्ग अगर पहले से संपन्न हुआ है तो दूसरी ओर गरीबों का जीना
और मुहाल हुआ है। इसके साथ अरबपतियों और खरबपतियों की तादाद भी बढ़ी है।
1973-74 में जब निर्धारित जीवन-निर्वाह स्तर प्रतिव्यक्ति राष्ट्रीय आय के
लगभग बासठ प्रतिशत पर था तब उसका पैमाना क्या था। और अब उसका क्या पैमाना
है?
बानगी के तौर पर, 2004-2005 में जीवन निर्वाह के लिए आय-स्तर
प्रतिव्यक्ति राष्ट्रीय आय के सत्रह प्रतिशत के आसपास था। इन बत्तीस वर्षों
की अवधि में प्रतिव्यक्ति राष्ट्रीय आय 2004-2005 की कीमतों के आधार पर
26.4 गुना अधिक हो गई। इस नजरिए से विकास के दावे की राजनीति पर एक नजर
डालना चाहिए।
दूसरी बात यह कि हमने अपना कोई विकास का पैमाना तय नहीं
किया है। हम दुनिया की बड़ी पूंजीवादी व्यवस्थाओं की परिभाषाओं के अनुसार
अपने विकास का पैमाना तय करते हैं। कहा गया कि ऊर्जा की खपत विकास का
पैमाना होगी तो हमने परमाणु समझौते के लिए अपने लोकतांत्रिक उसूलों को भी
त्याग दिया। विकास के पैमाने अपने हों तो हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि
केवल पैसा आने से समाज की प्रगति नहीं मानी जा सकती। पैसा आ रहा है, लेकिन
विचारों में पिछड़ापन और विकृतियां बढ़ रही हैं। समान आर्थिक विकास की नीति
नहीं होने से सामाजिक स्तर पर तरह-तरह की विकृतियां आती हैं।
मार्क्सवादियों की यह समझ रही है कि पूंजीवाद का विकास होगा तो सामाजिक
असमानताएं खत्म हो जाएंगी। लेकिन यह नहीं हुआ। मार्क्सवादियों ने पूंजीवाद
को बढ़ने के मौके दिए। मगर पूंजीवाद का विस्तार समाज को खोखला कर रहा है।
सामाजिक स्तर पर दूरियां बढ़ा रहा है। खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी
निवेश, पूंजीवाद का विस्तार है, न कि उपभोक्ताओं और किसानों को लाभ
पहुंचाने की कोई नीति।
बिचौलिया आधारित व्यवस्था उत्पादकों और
उपभोक्ताओं के लिए शोषणकारी व्यवस्था है तो सरकार की जिम्मेदारी यह बनती थी
कि वह इसके खिलाफ राजनीतिक माहौल बनाती। पूंजीवादी रास्ते पर जाने के बजाय
सहकारिता पर जोर देती। सहकारिता आंदोलन इसी तरह की शोषणकारी व्यवस्था से
उत्पादकों और उपभोक्ताओं को लाभ की स्थिति में लाने के लिए शुरू हुआ था।
राजनीतिक व्यवस्थाएं हमेशा अपनी नीतियों को आम लोगों के लिए हितकारी कहती
हैं, लेकिन असल बात नतीजे में दिखाई देती है।
आज जब दुनिया की
पूंजीवादी व्यवस्थाएं अपने संकटों से जूझ रही हैं, वैसे समय में वे भारत
जैसे देशों में उपभोक्ताओं और उत्पादकों के कल्याण के इरादे से तो नहीं आ
सकतीं। उनका इरादा भारत ेजैसे देशों के जरिए अपने संकट दूर करना है। संभव
है कि इसमें भारत के कुछ लोगों को भी अपनी समृद्धि बढ़ाने का अवसर मिल जाए,
लेकिन वह देश के आम लोगों की समृद्धि तो नहीं कही जा सकती।
दरअसल,
सरकार ने संसद को अपनी नीतियों पर मुहर लगाने का कमरा भर बना लिया है।
राजनीतिक पार्टियों ने भूमंडलीकरण की नीतियों का समर्थन करके आंदोलनों के
तर्कों को भोथरा कर दिया है। इसीलिएविदेशी निवेश के फैसले को राजनीतिक
पार्टियों के जिम्मे छोड़ कर इसके स्थगन को स्थायी मानना बड़ी भूल साबित हो
सकता है। बिचौलियों को खत्म करने का मतलब दूसरे नए बिचौलियों के लिए रास्ता
खोलना नहीं हो सकता। वे बिचौलिये जो आज विज्ञापनों में आम खिलाते दिखेंगे,
कल गुठली भी छीन लेंगे और कोई खबर लेने वाला भी नहीं होगा।

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