जबसे दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने फेसबुक और अन्य
सोशल नेटवर्किंग साइटों पर नकेल कसने की बात की है, तब से इंटरनेट से जुड़े
देश के करोड़ों लोगों में उबाल आ गया है। सिब्बल ने इससे पहले इंटरनेट
कंपनियों के मालिकों से बात की थी। सरकार ने गुगल, याहू, माइक्रोसॉफ्ट और
फेसबुक के अधिकारियों से कहा था कि वे अपनी साइटों पर से कांग्रेस अध्यक्ष
सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और मोहम्मद साहब से जुड़ी
अपमानजनक, भ्रामक तथा भड़काऊ सामग्री हटाएं।
इन अधिकारियों का जवाब
था कि अगर कोई सामग्री धार्मिक भावनाएं भड़काती हैं या उससे सुरक्षा को
खतरा है, तो वे उसे हटाने को तैयार हैं। उनका दो टूक कहना था कि लोगों की
राय और टिप्पणियां हटाना उनके लिए संभव नहीं है। यह बात दूरसंचार मंत्री को
नागवार गुजरी। उन्होंने आनन-फानन में घोषणा कर डाली कि इस मामले में अब
सरकार ही पहल करेगी। उनके इस वक्तव्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में
दखलंदाजी माना जा रहा है। इस पूरे विवाद पर कई प्रश्न खड़े होते हैं।
पहली
बात तो यह कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में यह चलन आम हो गया है कि
जनता राजनेताओं या मशहूर हस्तियों के संबंध में अपनी राय खुलकर, बेधड़क
सोशल नेटवर्किंग साइटों पर व्यक्त करती है। यह तकनीक का कमाल है कि कोई
घटना घटित होते ही दुनिया भर से हजारों-लाखों लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया
देने लगते हैं। मसलन, क्रिकेट मैच हारने वाली टीम को उसके प्रशंसक इतना
जलील करते हैं कि बेचारे खिलाड़ी मुंह दिखाने लायक न बचें।
पर सबसे
ज्यादा नेताओं को लक्ष्य बनाकर टिप्पणियां की जाती हैं। दरअसल जनता के
चुने हुए प्रतिनिधि होने के बावजूद राजनीतिकों का संवाद जनता से लगभग टूट
जाता है। व्यावहारिक रूप से भी एक नेता के लिए यह संभव नहीं होता कि वह हर
व्यक्ति से व्यक्तिगत वार्ता कर सके। ऐसे में मतदाता उसके प्रति अपने विचार
और आक्रोश सोशल नेटवर्किंग साइटों पर अभिव्यक्त करने लगे हैं। लोकतंत्र के
नजरिये से इसे अच्छी शुरूआत माना जाना चाहिए, क्योंकि लोगों की राय जानने
के बाद राजनेता या मंत्री अपना पक्ष रख सकते हैं और अगर उनके आचरण में कोई
कमी है, तो वे उसे दूर कर सकते हैं। अगर इतना ही हो, तो सेंसर की कोई जरूरत
नहीं है।
पर पिछले दिनों देखने में आया है कि राजनीतिक दलों और
सिविल सोसाइटी के कुछ समूहों ने बहुत सारे पेशेवरों को महंगे वेतन देकर इसी
काम में लगा रखा है, जो उनके विरोधियों के मुंह काले करें। कॉल सेंटर की
तरह आउटसोर्स किए जाने वाले, ये टेलेंट्स तालिबान की तरह आक्रामक हैं। उनकी
भाषा और अभिव्यक्ति इतनी हमलावर और घातक होती है कि जिन्हें लक्ष्य बनाया
जाता है, वह तिलमिला कर रह जाता है। अकसर इस तरह से एक अभियान चलाकर हमला
करने वालों की फौज बिना तथ्यों की तहकीकात किए हमला बोल देती है। अपने
अभियान में ये समूह इस हद तक आगे चले जाते हैं कि सामने वाले का चरित्र हनन
करने या अश्लीलता की हद तक उस पर कीचड़ उछालने में भी संकोच नहीं करते।
चूंकि
इनहमलावरों को सीधे पकड़ना संभव नहीं है, इसलिए उनके विरूद्ध कोई कानूनी
कार्रवाई नहीं हो पाती। फिर जरूरी नहीं कि हमलावरों की यह टोली उसी देश में
बैठी हो, जिस देश के नेतृत्व को लक्ष्य बना कर हमला कर रही हो। इंटरनेट की
दुनिया में सूचना का आदान-प्रदान सेकेंडों में एक देश से दूसरे देश में हो
जाता है। टिप्पणी सही हो या गलत, आनन-फानन में आग की तरह पूरी दुनिया में
फैल जाती है। फिर प्रतिष्ठा का जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई करना आसान
नहीं है। शायद इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही दूरसंचार मंत्री ने यह कदम
बढ़ाया है।
पर उनके आलोचक उनसे तीखे सवाल पूछ रहे हैं। मसलन, जब
इन साइटों पर अत्यंत अश्लील और समाज के लिए हानिकारक सामग्री प्रचारित होती
है, तब मंत्री महोदय कहां सोए रहते हैं? जब भ्रष्टाचार के मामलों में
सुबूत के बावजूद हर दल के केंद्रीय और प्रांतीय सरकारें आरोपियों को बचाने
में लगी रहती हैं, तब जनता क्या करे? क्या अपनी भड़ास भी न निकाले? बात यह
भी कही जा रही है कि अगर ऐसी भड़ास न निकालने दी गई, तो फिर जनता हिंसक
होकर सड़कों पर भी निकल सकती है।
इसलिए उन्हें सलाह दी जा रही है
कि वह सोशल नेटवर्किंग साइटों पर शिकंजा कसने के बजाय अपनी सरकार की छवि
सुधारने का काम करें। इन आरोपों में दम है। पर फिर सवाल उठता है कि क्या यह
प्रतिक्रिया वास्तव में उन लोगों की है, जो मतदाता हैं, पीड़ित हैं और
नाराज हैं? या फिर उन लोगों की है, जो भाड़े के टट्टू हैं। अगर ऐसा है, तो
यह प्रवृत्ति ठीक नहीं, क्योंकि राजनीतिक हमले की जगह संसद है। छिपकर वार
करना ठीक नहीं। इसलिए अगर यह प्रवृत्ति बढ़ी, तो फिर इस आग से कोई नहीं
बचेगा। हर दल, हर राजनेता और हर जागरूक समूह ऐसे हमलों का शिकार बन सकते
हैं। इससे अराजकता फैलेगी।
आवश्यकता इस बात की है कि इस मामले पर
देश भर में एक बहस छेड़ी जाए, जिसके बाद इस खेल के नियम तय हों, इस माध्यम
को स्वस्थ्य लोकतांत्रिक परंपराओं के विस्तार के लिए अवश्य इस्तेमाल किया
जाए। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश न लगे, पर भाड़े के टट्टू इसे राजनीतिक
हथियार के रूप में प्रयोग न करें। यह पहल भी समाज को करनी होगी, सरकार को
नहीं।