रिटेल क्षेत्र में एफडीआई के फैसले को सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल
दिया है. मगर क्या यह हमारे हर मर्ज की दवा है जैसा कि सरकार हमें समझाती
रही है? सुधीरेंद्र शर्मा का आकलन
जाकी रही भावना जैसी
एफडीआई देखी तिन तैसी
खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर छिड़ी राजनीतिक
रस्साकशी ने तुलसीदास की इन पंक्तियों को पुनः सार्थक किया है. एकल ब्रांड
कारोबार में 51 और मल्टी-ब्रांड कारोबार में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश ने
जनमानस को आशा व आशंका के दायरे में उलझा दिया है. राजनीति से प्रेरित
बहसों में तथ्यों व तर्कों का खुल कर संहार हुआ है. जानना कठिन हो गया है
कि इसका सही स्वरूप आखिर है क्या?
मनमोहन सिंह की मानें तो एफडीआई से प्रगति की दर को प्रोत्साहन मिलेगा.
ममता बनर्जी की सुनें तो रिटेल में विदेशी निवेश से स्वरोजगार पर विपरीत
असर होगा. शरद पवार का मानना है कि किसानों को उनके उत्पाद की बेहतर कीमत
मिलेगी. क्या इस हाथी को ठीक से देखा-समझा भी जा सकता है या उन अंधों की
तरह ही जो इसे छूकर ही समझना चाहते हैं?
आखिर क्यों?
‘महंगाई की मार’ और ‘रोजगार की
कमी’ में भारतीय अर्थव्यवस्था की अच्छी भूमिका नहीं रही है. बढ़ती आर्थिक
दर महंगाई रोकने में अक्षम रही है वहीं रोजगार के अवसरों में भी कमी आई है.
वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से तीन वर्ष में एक
करोड़ नए रोजगार पैदा होंगे. प्रणब मुखर्जी विकास की दर बढ़ाने की बात कर
रहे हैं. और भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार इससे मुद्रास्फीति कम होने की
बात कर रहे हैं. तर्क यह भी दिया जा रहा है कि इससे खाद्य पद्धार्थों के
भंडारण की सुविधा में भी अत्यधिक सुधार होगा. शरद पवार का तर्क हम ऊपर पढ़
ही चुके हैं. तो प्रत्यक्ष तौर पर सरकार इन वजहों से खुदरा क्षेत्र में
एफडीआई की हामी है. उधर आर्थिक मंदी के इस विश्वव्यापी दौर में भारतीय
खुदरा व्यवसाय की प्रतिवर्ष 40 फीसदी की बढ़ोतरी पर विदेशी निवेशकों की नजर
भला क्यों न पड़े. इस पर आलम यह कि मध्यवर्ग की प्रतिमाह खर्च करने की
क्षमता में भी बढ़ोतरी हुई है. आखिर इससे बढ़िया बाजार और कहां मिलेगा?
शहरी उपभोक्ता भी मानता है कि जब विर्निमाण, कृषि सेवा और वित्तीय
क्षेत्र में विदेशी निवेश काे मंजूरी मिली है तो खुदरा व्यापार भी इसका लाभ
क्यों न उठाए? यह सोचना उनका काम नहीं कि इससे देसी बाजार का संतुलन पूरी
तरह बिगड़ जाएगा और भविष्य में इस घुसपैठ की मार से वह भी नहीं बच पाएगा.
रोजगार का अनर्थशास्त्र
वर्तमान में देश का खुदरा बाजार करीब 450 अरब डॉलर का है जिससे चार
करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है. यदि यह मान लें कि करीब आधा खुदरा व्यापार
विदेशी कंपनियों के हाथ में हो तो सच्चाई यह है कि रोजगार बढ़ने की बजाय
लगभग 1.6 करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे. अगर इसे समझने में कठिनाई हो रही
है तो किसी ‘मॉल’ में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या की तुलना मिलकर उतना
ही व्यापार करने वाले किरानास्टोरों के कर्मचारियों से करने की कोशिश
करें. सारा दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.
अमेरिका के नॉर्थ-वेस्टर्न विश्वविद्यालय में अतिथि शिक्षक शेखर स्वामी
का अध्ययन दर्शाता है कि बड़े रिटेल के विस्तार से पिछले 32 वर्षों में
अमेरिका में 77 लाख रोजगारों का नुकसान हुआ है. ऐसा इसलिए कि बड़े रिटेल
स्टोर ‘वॉलमार्ट’ या ‘टार्गेट’, ज्यादातर सामान अमेरिका के बाहर से सस्ते
दामों पर लेते हैं. इससे न सिर्फ अमेरिकी कारखाने बंद हुए हैं बल्कि लाखों
लोग बेरोजगार भी हुए हैं. इसके अलावा वॉलमार्ट स्टोर के अधिकांश कर्मचारी
अस्थायी होते हैं ताकि कंपनी पर कम आर्थिक बोझ पड़े और इनकी संख्या भी काफी
कम होती है. आज यह आलम है कि वॉलमार्ट के विश्व भर में केवल 13 लाख
कर्मचारी ही हैं जो कंपनी के लिए हर साल 400 अरब डॉलर का कारोबार करते हैं.
मिसूरी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री एमिक वॉस्कर ने अध्ययन में पाया
कि वॉलमार्ट द्वारा प्रति 100 लोगों को रोजगार देने से छोटे स्टोरों के 50
और थोक बाजार के 20 लोगों का रोजगार चला जाता है. ऐसा इसलिए होता है कि
वॉलमार्ट अपनी लागत में कमी लाने के लिए सप्लाई चेन पर भी आधिपत्य स्थापित
करता है. हमारे यहां के शहरी उपभोक्ताओं को इन तथ्यों का गहनता से अध्ययन
करना होगा.
अक्षमता के सरकारी भंडार
यह तथ्य किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है कि एफडीआई से ही देश में
‘कोल्ड स्टोर’ खुलेंगे और ग्रामीण इलाकों से उत्पाद उठाने में निपुणता
आएगी. क्या सरकार इतनी कमजोर है कि वह किसानों के लिए भंडारण की उचित
सुविधाओं का विकास नहीं कर सकती? जबकि वह जानती है कि ‘सप्लाई चेन’ में
ढिलाई की वजह से करीब 60 प्रतिशत खाद्य सामग्री नष्ट हो जाती है. सरकार खेत
से बाजार के बीच की व्यवस्था को खुद दुरुस्त करने की बजाय इस बहाने को
खुदरा बाजार खोलने के लिए इस्तेमाल कर रही है. ऐसा लगता है कि विश्व
व्यापार संगठन की शर्तों के मुताबिक वह विश्व बाजार में उपजी असमताओं को
समाप्त करने के लिए ही कृतसंकल्प है. फिर चाहे इसमें अपना ही नुकसान क्यों न
हो.
कम कीमत के पीछे के खेल
जब वॉलमार्ट और केयरफोर जैसे स्टोर बाजार में उतरते हैं तो कीमतों में
कमी का वादा करते हैं. ऐसा करते हुए वे स्थानीय स्पर्धा को पूरी तरह ध्वस्त
कर देते हैं. आखिर कीमत में भारी कटौती की कीमत किसी को तो चुकानी ही
होगी. जब सैम वॉल्टन ने वॉलमार्ट की स्थापना 1962 में की थी तो उन्होंने
यही सोचा था कि वे अपने 16,000 वर्ग फुट के स्टोर के लिए कम-से-कम कीमत पर
सामान खरीदेंगे ताकि अधिक से अधिक उपभोक्ता इसका लाभ उठा सकें. इसके लिए यह
जरूरी हो जाता है कि थोक कीमतों पर नियंत्रण रखा जाए ताकि वॉलमार्ट के लाभ
में कोई कमी न हो.
इसलिए सरकार की यह दलील भ्रामक है कि बड़े रिटेलर किसानों से प्रचलित
मूल्यों से अधिक कीमतों पर सामान खरीदेंगे. इसके विपरीत बड़े रिटेलर
किसानों की मंडी में जाएंगे और कुछ ही समय में एकाधिकार जमाकर वहांकी
/>
स्पर्धा को समाप्त कर देंगे. फिर किसान अपना उत्पाद बेचने के लिए उनके
रहमोकरम पर रह जाएंगे. केवल थोड़े बड़े किसानों को ही बड़े रिटेलर के आने
से लाभ हो सकता है. सरकार का यह कहना कि बड़े रिटेलर को 30 प्रतिशत सामान
छोटे किसानों से लेना होगा सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है. सरकार के पास
ऐसा कौन सा जादू का चिराग है जिससे वह यह सुनिश्चित कर सकती है.
कम कीमत के खेल में छोटे खिलाड़ी की हार निश्चित है. जब तक बिक्री दर
नियंत्रित नहीं होगी तब तक बड़े रिटेलर लाभ में रहेंगे. यह तब ही संभव है
जब भारत में भी अमेरिका की तरह एक रॉबिन्सन पाटमेन ऐक्ट बनाया जाए जो
कीमतों पर नजर रखता है और प्रयास करता है कि छोटे, मझोले और बड़े रिटेलर को
बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए एकसमान अधिकार हों.
प्रश्न समाज का
एक ओर जहां अमेरिका बड़े रिटेलरों
का गढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर ‘बिग बॉक्स’ के नाम से पहचाने जाने वाले इन
रिटेलरों का विरोध भी अमेरिकी समाज में जमकर हो रहा है. अमेरिका में चल रहे
ऐसे ही अनेक प्रयासों को शोधकर्ता स्टेसी मिशेल ने अपनी पुस्तक ‘बिग बॉक्स
स्विंडल’ में समाहित किया है. स्टेसी कहती हैं कि बड़े रिटेलरों ने न
सिर्फ मध्यवर्ग को निचोड़ा है बल्कि स्थानीय व्यवसाय को कमजोर करने के साथ
वहां के सामाजिक जीवन को भी अस्त-व्यस्त किया है. वे तो यह भी कहने से नहीं
चूकतीं कि अमेरिका में बढ़ती सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक समस्याओं के
पीछे भी इनका बहुत बड़ा हाथ है. वे इस नतीजे पर पहुंची हैं कि जहां-जहां
स्थानीय स्टोर हैं वहां गरीबी और अपराध में कमी देखी गई है. इसका मुख्य
कारण स्थानीय बैंकों, कारोबार और अन्य संस्थाओं में स्थानीय लोगों की
भागीदारी है.
समाजशास्त्रियों का मानना है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में बाजार ने
व्यापारी और खरीददार के बीच के जीवंत रिश्ते की आहुति दी है. उसके स्थान पर
ऐसा बाजार खड़ा किया गया जिसका अपना कोई चेहरा नहीं होता. बड़े रिटेल को
एक नए उपेनिवेशवाद के द्योतक के रूप में ही देखा जा रहा है जिसके विस्तार
से न केवल सामुदायिक ताना-बाना टूटता है बल्कि लोकतंत्र की जड़ें भी कमजोर
होती हैं. पर आर्थिक बिसात पर हो रही एफडीआई की बहस में समुदाय और लोकतंत्र
का शायद कोई स्थान नहीं है. बड़े रिटेल से स्थानीय रोजगार के अवसरों में
कमी से सामाजिक संतुलन तो बिगड़ता ही है, अराजकता की संभावनाएं भी बढ़ने
लगती हैं.
बाजार में बड़े रिटेल के एकाधिकार से उपभोक्ता क्या खरीदेंगे
और क्या खाएंगे यह भी बड़ा रिटेलर ही तय करेगा. इसका बड़ा असर देश की
जैव-विविधता पर भी पड़ेगा क्योंकि बाजार ही तय करेगा कि किस उत्पाद को
खरीदा जाएगा. किसान वही उगाएगा जिसका बाजार होगा. इसका स्वास्थ्य और पोषण
पर सीधा प्रभाव पड़ेगा. मगर आर्थिक समीकरण में समाज की स्वीकृति या
अस्वीकृति मायने नहीं रखती. बड़े रिटेल स्टोर को टिकाए रखने के लिए सरकार
जो कानून बनाती है उसके क्रियान्वयन के लिए वह बल प्रयोग से भी परहेज नहीं
करती.
रुकेगा कब तक
खुदरा कारोबार में एफडीआई अभी टला
है? चूंकि तथ्य ताक पर हैं और राजनीति हावी, इसलिए यह कहना सही होगा कि हर
बुरे सपने की तरह एफडीआई भी जरूर लौटेगा. इसका स्वरूप इस बात पर निर्भर
करेगा कि जनमानस बड़े रिटेलर के पूरे चक्रव्यूह को किस गहराई से समझ पाता
है. गौरतलब है कि एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी ऐक्ट में संशोधन
के बाद किसान अपने उत्पाद को सीधे बाजार में बेच सकता है. हालांकि, संशोधन
पर सभी राज्यों ने हरी झंडी नहीं दी है. मगर इसका यह अर्थ तो निकाला ही जा
सकता है कि सरकार ने बड़े रिटेल को लाने की तैयारी में पहला कदम उठा लिया
है. इसके क्रियान्वयन में अच्छी सड़कों की कमी और भंडारण क्षमता आड़े आ रही
है.थोड़ा और ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि नई राजमार्ग परियोजनाएं
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए द्रुत गति से माल आवाजाही के लिए ही बनाई जा
रही हैं. कुल मिलाकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार की विदेशी निवेश की
पूरी तैयारी है. एक मौका यह सरकार चूक गई है मगर दूसरा शायद नहीं चूकना
चाहेगी.
सिर्फ जागरूक जनमानस ही सरकारी मंशा को रोक पाएगा.