सड़कों
पर अपना जीवन बिताने वाले बच्चे साहसी जरूर होते हैं, लेकिन उन्हें अपना
अस्तित्व बचाए रखने के लिए कड़ा संघर्ष भी करना पड़ता है। इनमें से अधिकांश
बच्चे वे होते हैं, जो या तो शराबी या हिंसक पिता की प्रताड़नाओं से बचने
के लिए घर से भाग आए हैं, या अपने सौतेले माता-पिता की उपेक्षा के शिकार
हैं, या उनका परिवार किसी क्रूर घटना या हादसे की भेंट चढ़ गया है या गरीबी
और भुखमरी के कारण उनकी यह स्थिति हो गई है।
इनमें से कई बच्चे वे भी होते हैं, जो या तो किसी कारणवश अपने परिवार से
बिछड़ गए हैं या उन्हें उनके परिवार द्वारा त्याग दिया गया है। ऐसे बच्चों
की भी कमी नहीं, जिनके माता-पिता की या तो मृत्यु हो गई है या वे किन्हीं
कारणों से जेल में हैं।
उन्हें कटु स्थितियों का सामना करना पड़ता है। सड़कों का कठोर यथार्थ
उन्हें तोड़ देता है। सार्वजनिक पार्को, रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड, फुटपाथ
या कूड़ागाह में पलने वाले ये बच्चे समय से पहले बड़े हो जाते हैं। वे
सड़कों पर जीने और पेट पालने के तौर-तरीके सीख जाते हैं।
वे छोटे-मोटे काम करना, भीख मांगना, अपनी जरूरत की चीजों के लिए लड़ना और
पुलिस या गुंडों से अपनी रक्षा करना सीख जाते हैं। लावारिस लड़कियां या तो
आस-पड़ोस के घरों में काम करने लग जाती हैं या उन्हें देह व्यापार की गर्त
में झोंक दिया जाता है। लावारिस लड़के या तो कचरा बीनकर अपना भरण-पोषण करते
हैं या गैरेज में काम करने जैसे छोटे-मोटे काम करके।
सड़कों पर पलने वाले ये बच्चे और किशोर हमारे सबसे संकटग्रस्त समूहों में
से हैं, लेकिन गरीबी, र्दुव्यवहार या समाज के लापरवाहीपूर्ण रवैये के कारण
वे उपेक्षित बने रहते हैं। उनका कोई अतीत या भविष्य नहीं होता, इसलिए वे
खुशी पाने का कोई मौका नहीं गंवाना चाहते। उनकी पृष्ठभूमि और उनके अनुभवों
के धूपछांहीपन के कारण ही उन्हें दिया गया नाम ‘रेनबो चिल्ड्रन’ उनके लिए
ठीक जान पड़ता है। जिस तरह किसी इंद्रधनुष को मुट्ठियों में नहीं भींचा जा
सकता, उसी तरह सड़कों पर पलने वाले ये बच्चे भी किसी एक वर्ग या परिवेश से
वास्ता नहीं रखते हैं।
धीरे-धीरे उनमें विद्रोही प्रवृत्ति पनपने लगती है। वे उन्हें सुधारने की
कोशिश करने वाले या उन पर निगरानी रखने वाले लोगों से खीझने लगते हैं।
इसीलिए उनकी देखरेख करने के लिए समझ-बूझ और संवेदनशीलता का होना जरूरी है।
इस तरह के बच्चों ने समय-समय पर यह साबित भी किया है कि यदि सकारात्मक
रवैये से उन्हें कुछ सिखाने का प्रयास किया जाए तो वे इसके लिए हमेशा तत्पर
रहते हैं।
इन बच्चों के अंतर्मन में खालीपन की एक खोह होती है और इसकी वजह हैं वे
वयस्क, जिन्होंनेउनके साथ छल किया। वे अपने आसपास एक सुरक्षा का घेरा गढ़
लेते हैं, ताकि वे सुरक्षित महसूस कर सकें। वे आसानी से दूसरे लोगों को
अपने इस अभेद्य दुर्ग में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते। उनके जख्म इतने
गहरे होते हैं कि जब तक वे किसी व्यक्ति के प्रति आश्वस्त न हो जाएं, तब
तक उसके सामने नहीं खुलते। वे वयस्कों की परिपक्वता और बच्चों की मासूमियत
का एक अजीबो-गरीब मिश्रण होते हैं।
सड़कों पर पलने वाले बच्चे कई तरह की समस्याओं से जूझते हैं : संरक्षण का
अभाव, रोजी-रोटी के लिए रोजमर्रा का संघर्ष, अस्वास्थ्यकर परिस्थितियां,
भिक्षावृत्ति, यौन शोषण, कुपोषण, मानसिक-सामाजिक तनाव, शारीरिक
र्दुव्यवहार, ड्रग्स की लत इत्यादि। वे हिंसा, यौनाचार और मृत्यु के बीच
पलकर बड़े होते हैं। यदि उन्हें खुद पर भरोसा न हो तो वे इन परिस्थितियों
में अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएं।
जरूरत है उनके इसी आत्मविश्वास को परिपक्वता और संवेदनशीलता के साथ पोषित
करने की। अनुमान है कि सड़कों पर जीवन बिताने वाले इन बच्चों और किशोरों
में से दो फीसदी से भी कम बाल-किशोर संरक्षण गृहों और पांच फीसदी से भी कम
गैरसरकारी संगठनों से लाभान्वित हो पाते हैं। दिल्ली में एक अनुमान के
मुताबिक ५क् हजार बच्चे सड़कों पर अपना जीवन बिता रहे हैं, लेकिन इनमें से
१५क्क् से भी कम बच्चे इन संगठनों और समूहों से लाभान्वित हो पाते हैं।
भारत सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान और अन्य योजनाओं के माध्यम से बच्चों को
प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया है। लेकिन
बच्चों का एक वर्ग ऐसा भी है, जिन तक शिक्षा की रोशनी नहीं पहुंच पाती है,
फिर चाहे उनके पड़ोस में ही कोई स्कूल क्यों न संचालित हो रहा हो। ये ही वे
बच्चे हैं, जिन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता
है। इनमें शारीरिक रूप से अक्षम बच्चे, प्रवासी श्रमिकों के बच्चे, ग्रामीण
बाल कामगार और सड़कों पर अपना जीवन बिताने वाले शहरी बच्चे शामिल हैं।
यदि समाज के ‘अंतिम’ छोर पर खड़े इन बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलवाना
है और उन्हें शिक्षित करना है तो इसके लिए एक ठोस रणनीति तैयार करनी होगी।
यह पता लगाने का प्रयास करना होगा कि आखिर वे कौन-से कारण हैं, जो इन
बच्चों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखते हैं। हम पिछले पांच सालों से इस
तरह के बच्चों के लिए काम कर रहे हैं।
मैंने और अमन बिरादरी के मेरे साथियों ने पाया है कि इन बच्चों में साहस,
आत्मनिर्भरता, दृढ़ता और नवोन्मेष के एेसे कई गुण होते हैं, जो पारिवारिक
संरक्षण में जीवन बिता रहे आम बच्चों में सामान्यत: नहीं होते। यकीनन, वे
समाज द्वारा आहत होते हैं, लेकिन प्रेम, विश्वास और संवेदनशीलता से इन
जख्मों को भरा जा सकता है।
उन्होंनेबार-बारयह साबित किया है कि वे नई जिंदगी की शुरुआत कर सकते हैं
और अनुशासित हो सकते हैं। जीवन की कठोर स्थितियों ने उनके भीतर दृढ़ता का
इस्पात पैदा कर दिया है, जरूरत है तो बस उनके भीतर की संभावनाओं को प्रेम
और आत्मीयता के जल से सींचने की। -लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।
पर अपना जीवन बिताने वाले बच्चे साहसी जरूर होते हैं, लेकिन उन्हें अपना
अस्तित्व बचाए रखने के लिए कड़ा संघर्ष भी करना पड़ता है। इनमें से अधिकांश
बच्चे वे होते हैं, जो या तो शराबी या हिंसक पिता की प्रताड़नाओं से बचने
के लिए घर से भाग आए हैं, या अपने सौतेले माता-पिता की उपेक्षा के शिकार
हैं, या उनका परिवार किसी क्रूर घटना या हादसे की भेंट चढ़ गया है या गरीबी
और भुखमरी के कारण उनकी यह स्थिति हो गई है।
इनमें से कई बच्चे वे भी होते हैं, जो या तो किसी कारणवश अपने परिवार से
बिछड़ गए हैं या उन्हें उनके परिवार द्वारा त्याग दिया गया है। ऐसे बच्चों
की भी कमी नहीं, जिनके माता-पिता की या तो मृत्यु हो गई है या वे किन्हीं
कारणों से जेल में हैं।
उन्हें कटु स्थितियों का सामना करना पड़ता है। सड़कों का कठोर यथार्थ
उन्हें तोड़ देता है। सार्वजनिक पार्को, रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड, फुटपाथ
या कूड़ागाह में पलने वाले ये बच्चे समय से पहले बड़े हो जाते हैं। वे
सड़कों पर जीने और पेट पालने के तौर-तरीके सीख जाते हैं।
वे छोटे-मोटे काम करना, भीख मांगना, अपनी जरूरत की चीजों के लिए लड़ना और
पुलिस या गुंडों से अपनी रक्षा करना सीख जाते हैं। लावारिस लड़कियां या तो
आस-पड़ोस के घरों में काम करने लग जाती हैं या उन्हें देह व्यापार की गर्त
में झोंक दिया जाता है। लावारिस लड़के या तो कचरा बीनकर अपना भरण-पोषण करते
हैं या गैरेज में काम करने जैसे छोटे-मोटे काम करके।
सड़कों पर पलने वाले ये बच्चे और किशोर हमारे सबसे संकटग्रस्त समूहों में
से हैं, लेकिन गरीबी, र्दुव्यवहार या समाज के लापरवाहीपूर्ण रवैये के कारण
वे उपेक्षित बने रहते हैं। उनका कोई अतीत या भविष्य नहीं होता, इसलिए वे
खुशी पाने का कोई मौका नहीं गंवाना चाहते। उनकी पृष्ठभूमि और उनके अनुभवों
के धूपछांहीपन के कारण ही उन्हें दिया गया नाम ‘रेनबो चिल्ड्रन’ उनके लिए
ठीक जान पड़ता है। जिस तरह किसी इंद्रधनुष को मुट्ठियों में नहीं भींचा जा
सकता, उसी तरह सड़कों पर पलने वाले ये बच्चे भी किसी एक वर्ग या परिवेश से
वास्ता नहीं रखते हैं।
धीरे-धीरे उनमें विद्रोही प्रवृत्ति पनपने लगती है। वे उन्हें सुधारने की
कोशिश करने वाले या उन पर निगरानी रखने वाले लोगों से खीझने लगते हैं।
इसीलिए उनकी देखरेख करने के लिए समझ-बूझ और संवेदनशीलता का होना जरूरी है।
इस तरह के बच्चों ने समय-समय पर यह साबित भी किया है कि यदि सकारात्मक
रवैये से उन्हें कुछ सिखाने का प्रयास किया जाए तो वे इसके लिए हमेशा तत्पर
रहते हैं।
इन बच्चों के अंतर्मन में खालीपन की एक खोह होती है और इसकी वजह हैं वे
वयस्क, जिन्होंनेउनके साथ छल किया। वे अपने आसपास एक सुरक्षा का घेरा गढ़
लेते हैं, ताकि वे सुरक्षित महसूस कर सकें। वे आसानी से दूसरे लोगों को
अपने इस अभेद्य दुर्ग में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते। उनके जख्म इतने
गहरे होते हैं कि जब तक वे किसी व्यक्ति के प्रति आश्वस्त न हो जाएं, तब
तक उसके सामने नहीं खुलते। वे वयस्कों की परिपक्वता और बच्चों की मासूमियत
का एक अजीबो-गरीब मिश्रण होते हैं।
सड़कों पर पलने वाले बच्चे कई तरह की समस्याओं से जूझते हैं : संरक्षण का
अभाव, रोजी-रोटी के लिए रोजमर्रा का संघर्ष, अस्वास्थ्यकर परिस्थितियां,
भिक्षावृत्ति, यौन शोषण, कुपोषण, मानसिक-सामाजिक तनाव, शारीरिक
र्दुव्यवहार, ड्रग्स की लत इत्यादि। वे हिंसा, यौनाचार और मृत्यु के बीच
पलकर बड़े होते हैं। यदि उन्हें खुद पर भरोसा न हो तो वे इन परिस्थितियों
में अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएं।
जरूरत है उनके इसी आत्मविश्वास को परिपक्वता और संवेदनशीलता के साथ पोषित
करने की। अनुमान है कि सड़कों पर जीवन बिताने वाले इन बच्चों और किशोरों
में से दो फीसदी से भी कम बाल-किशोर संरक्षण गृहों और पांच फीसदी से भी कम
गैरसरकारी संगठनों से लाभान्वित हो पाते हैं। दिल्ली में एक अनुमान के
मुताबिक ५क् हजार बच्चे सड़कों पर अपना जीवन बिता रहे हैं, लेकिन इनमें से
१५क्क् से भी कम बच्चे इन संगठनों और समूहों से लाभान्वित हो पाते हैं।
भारत सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान और अन्य योजनाओं के माध्यम से बच्चों को
प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया है। लेकिन
बच्चों का एक वर्ग ऐसा भी है, जिन तक शिक्षा की रोशनी नहीं पहुंच पाती है,
फिर चाहे उनके पड़ोस में ही कोई स्कूल क्यों न संचालित हो रहा हो। ये ही वे
बच्चे हैं, जिन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता
है। इनमें शारीरिक रूप से अक्षम बच्चे, प्रवासी श्रमिकों के बच्चे, ग्रामीण
बाल कामगार और सड़कों पर अपना जीवन बिताने वाले शहरी बच्चे शामिल हैं।
यदि समाज के ‘अंतिम’ छोर पर खड़े इन बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलवाना
है और उन्हें शिक्षित करना है तो इसके लिए एक ठोस रणनीति तैयार करनी होगी।
यह पता लगाने का प्रयास करना होगा कि आखिर वे कौन-से कारण हैं, जो इन
बच्चों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखते हैं। हम पिछले पांच सालों से इस
तरह के बच्चों के लिए काम कर रहे हैं।
मैंने और अमन बिरादरी के मेरे साथियों ने पाया है कि इन बच्चों में साहस,
आत्मनिर्भरता, दृढ़ता और नवोन्मेष के एेसे कई गुण होते हैं, जो पारिवारिक
संरक्षण में जीवन बिता रहे आम बच्चों में सामान्यत: नहीं होते। यकीनन, वे
समाज द्वारा आहत होते हैं, लेकिन प्रेम, विश्वास और संवेदनशीलता से इन
जख्मों को भरा जा सकता है।
उन्होंनेबार-बारयह साबित किया है कि वे नई जिंदगी की शुरुआत कर सकते हैं
और अनुशासित हो सकते हैं। जीवन की कठोर स्थितियों ने उनके भीतर दृढ़ता का
इस्पात पैदा कर दिया है, जरूरत है तो बस उनके भीतर की संभावनाओं को प्रेम
और आत्मीयता के जल से सींचने की। -लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।