जनसत्ता 18 दिसंबर, 2011 : बहुत दिनों से जलगांव में बन रहे ‘गांधी शोध
संस्थान’ के बारे में सुन रहा था।
इसे देखने-समझने और जो लोग इसके पीछे हैं उनसे मिलने की इच्छा और उत्सुकता
थी। पर मैं इन लोगों को नहीं जानता था, इसलिए संकोच होता था। पर आखिरकार
जलगांव जाने का मौका मिल ही गया। वहां एक बडेÞ उद्योगपति हैं भंवरलाल जैन,
जिन्होंने टपक-सिंचाई (ड्रिप इरिगेशन) के क्षेत्र में देश में ही नहीं,
दुनिया में नाम कमाया है। वैसे तो देश से बाहर भी उनके उद्योग हैं, पर वे
अपने परिवार के साथ जलगांव में ही रहते हैं।
गांधी शोध संस्थान इन्हीं
भंवरलाल जैन जी की प्रेरणा, परिश्रम, धन और प्रतिबद्धता की वजह से बन रहा
है। जैन साहब, जिन्हें लोग ‘भाऊ’ के नाम से संबोधित करते हैं, पहली पीढ़ी के
उद्योगपति हैं। पिछले साढ़े तीन दशक में एक साधारण दुकानदार से बडेÞ
उद्योगपति के रूप में उन्होंने एक लंबा सफर तय किया है। उनका परिसर देखने
लायक है। खानदेश के इस इलाके में भयंकर गरमी पड़ती है; गरमी में तापमान
अड़तालीस से पचास डिग्री तक पहुंच जाता है। बारिश बहुत कम होती है। सूखे और
गरमी की वजह से यहां हरियाली नाममात्र की है। पर गांधी शोध संस्थान के
विशाल परिसर में, जो करीब एक हजार एकड़ में फैला है, जाने पर विश्वास ही
नहीं होता कि आप एक बीहड़ और सूखे इलाके में हैं।
जगह-जगह बारिश का पानी
इकट्ठा कर तालाब बनाए गए हैं और टपक-सिंचाई तकनीक की सहायता से नीम, आम के
बगीचे, अन्य पेड़ और घास लगा कर पूरे परिसर को हरा-भरा और समृद्ध बना दिया
गया है। इस परिसर में जैन साहब खुद तो रहते ही हैं, मेहमानों के रहने के
लिए भी स्वच्छ और सुंदर व्यवस्था की गई है। इसी परिसर में उनका दफ्तर, उनके
तीन कारखाने (सौर ऊर्जा, खाद्य पदार्थ, ड्रिप इरिगेशन), प्रशिक्षण केंद्र,
खाद्य पदार्थों के अवशेष को केंचुओं की मदद से प्राकृतिक खाद में
परिवर्तित करने का उद्यम, प्रयोगशाला, खेती, बाग-बगीचे, एक आवासीय स्कूल,
ध्यान केंद्र और अब गांधी शोध संस्थान विद्यमान हैं।
इन सभी इकाइयों को
इस प्रकार बनाया गया है और उनके बीच इतनी दूरी और हरियाली रखी गई है कि ये
भवन दमघोंटू या भयभीत करने वाले विशाल ढांचे नहीं लगते, बल्कि उनमें एक
सहज सौंदर्य का आभास होता और वे मित्रवत लगते हैं। कोई भी इमारत एक मंजिल
से ज्यादा ऊंची नहीं है। हवा, गरमी से बचने के लिए मोटी दीवारें हैं, जिनके
बीच में जगह छोड़ी गई है। रोशनी का विशेष ध्यान रखा गया है। खासकर यहां के
स्कूल को देख कर मन प्रफुल्लित हुए बिना नहीं रहता। बच्चों के रहने के भवन,
सभागार, खाने का कमरा और जहां कक्षाएं लगती हैं, इन सबको देख कर मन खुश हो
गया- काश, हम भी ऐसे ही किसी स्कूल में गए होते।
बडेÞ मनोयोग से बनाया
गया है यह स्कूल। स्कूल में अधिकतर बच्चे खानदेश के हैं, पर महाराष्ट्र के
अन्य इलाकों और मध्यप्रदेश से भी बच्चे आते हैं। इतना सुंदर स्कूल देख कर
लगा कि शायद बहुत पैसे वाले लोगों केबच्चे ही यहां आते होंगे। पर ऐसा नहीं
है। प्रधानाध्यापक पहले कई वर्षों तक कृष्णमूर्ति द्वारा स्थापित ऋषि वैली
में काम कर चुके हैं। प्रयास है कि आम स्कूलों से अलग, अधिक सार्थक शिक्षा
की इकाई के रूप में यह उभरे। यह देख कर खुशी हुई कि बच्चों के कार्यक्रम
अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी और मराठी में भी हुए। स्थानीय भाषा को इस स्कूल
में महत्त्व दिया जाता है, ऐसा आभास हुआ, जो आज के माहौल में, जहां नकल और
विकास की दौड़ सिर पर सवार है, एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रशंसनीय प्रयास
है। बच्चे भी खुले हुए और सहज लगे। आठवीं कक्षा के बच्चे किताब से हट कर,
खानदेश के इतिहास पर काम कर रहे थे, यह देख कर भी प्रसन्नता हुई।
पर मैं तो
मुख्यत: गांधी शोध संस्थान देखने-समझने गया था। इसके लिए भव्य इमारतों का
निर्माण, मुख्यत: जोधपुर से खास इस काम के लिए बुलाए गए पुश्तैनी कारीगरों
द्वारा किया जा रहा है। वहीं जोधपुर से पत्थर लाए गए हैं और काम दिन-रात चल
रहा है, क्योंकि इसका उद्घाटन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील द्वारा फरवरी के
अंत या मार्च के शुरू में होना निश्चित हो चुका है। संस्थान में एक भव्य
संग्रहालय, अभिलेखागार, पुस्तकालय आदि बनाने की योजना पर काम चल रहा है।
देश-विदेश से महात्मा गांधी से संबंधित जो भी सामग्री इन्हें मिलती है उसे
लाने या उसकी प्रतिलिपि हासिल करने के प्रयास किए जाते हैं।
पर इस
प्रकार की संस्था भली प्रकार चले, उसमें ऊर्जा हो, वह सक्रिय हो, उसमें
मौलिक शोध हो, उसमें से नए विचारों और कार्यक्रमों का सृजन हो, वह एक
प्रेरक का काम कर सके और अग्रणी भूमिका निभा सके, इन सबके लिए सुविधाएं ही
काफी नहीं हैं, विलक्षण लोग भी साथ जोड़ने होते हैं। संस्थाएं काबिल
व्यक्तियों से बनती हैं, सुविधाओं और इमारतों से नहीं। जैन साहब को इसका
अहसास है। उन्हें महात्मा गांधी के बारे में भी समझ है और लोगों की भी।
जीवन का अनुभव भी कम नहीं है। उनमें महात्मा गांधी और देश के प्रति
प्रतिबद्धता नहीं होती तो इतना बड़ा काम, जिसमें तीस-चालीस करोड़ रुपए वे लगा
रहे हैं, हाथ में नहीं लेते। वे अब अन्य कामों को अपने बेटों और सहयोगियों
के जिम्मे छोड़ अपनी पूरी ऊर्जा इसी में लगा रहे हैं। पर उनके सामने सबसे
बड़ी चुनौती यही है- अच्छे लोगों को जोड़ने की।
महात्मा गांधी के नाम से
चल रही अर्ध-सरकारी संस्थाएं मृतप्राय हो गई हैं। वहां कोई खास मौलिक काम
होता नजर नहीं आता। हमारे विश्वविद्यालय महात्मा गांधी को लेकर बहुत
गंभीर हों, ऐसा भी नहीं लगता। कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि महात्मा गांधी
इस देश के और सरकार के गले की हड््डी बन गए हैं, जिन्हें मजबूरी में ढोया
जा रहा है। पर इन संस्थाओं से जुडेÞ लोगों- लोहिया की भाषा में कहें तो
‘सरकारी’ और ‘मठी’ गांधीवादियों- ने महात्मा गांधी को अपनी बपौती बनाया हुआ
है। इस माहौल में एक निजी संस्थान- जो एक बडेÞ उद्योगपति के नाम से जुड़ा
हो- से इस देश के सच्चे और गंभीर लोगों का जुड़ना आसान नहीं है। खासकर फिर
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सेलोहिया की भाषा में कहें तो, ‘कुजात’ गांधीवादियों को जोड़ना एक चुनौती
भरा काम होगा। और महात्मा पर मौलिक काम अगर करना है तो इन कुजात
गांधीवादियों को जोड़ कर ही संभव हो पाएगा।
हमारे यहां पूर्वग्रहों की
भरमार है, खासकर अगर आरंभकर्ता की मुख्यत: एक उद्योगपति के रूप में पहचान
हो। जैन साहब की लगन सच्ची है। पर वे इस चुनौती को कैसे संभालेंगे, यही तय
करेगा कि यह संस्थान आने वाले समय में निष्क्रिय और सुस्त नहीं होगा और
पिटे-पिटाए रास्ते पर नहीं चलने लगेगा या फिर विदेशियों के हाथों की
कठपुतली नहीं बन जाएगा। महात्मा गांधी को लेकर विदेशियों में दिलचस्पी
देखने को मिलती रहती है और वे अपने अतीत की वजह से गांधी को घिसे-पिटे ढंग
से भी नहीं देखेंगे। संस्थान को उनसे ऊर्जा भी मिल सकती है। पर एक अंदेशा
भी पैदा होता है।
पिछले कुछ वर्षों से एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश चल
रही है, जिसमें यह लगने लगे कि महात्मा गांधी के सभी विचार उन्हें विदेशी
बौद्धिकों से ही मिले। अगर हमारे सोचने-समझने वाले इस संस्थान से नहीं
जुड़े, या जैन जी उन्हें जोड़ने में कामयाब नहीं हुए, तो ऐसा होना मुमकिन है।
इसलिए उन्हें जोड़ने का अथक प्रयास जैन साहब को करना होगा। देश में एक
अच्छी संभावना पैदा हुई है, भविष्य बताएगा हम उसका लाभ उठा पाते हैं या
नहीं।