जनसत्ता 20 दिसंबर, 2011: डरबन में जलवायु संकट पर अपने निश्चित समय से
छत्तीस घंटे देर तक चली अंतरराष्ट्रीय शिखर वार्ता की सबसे खास बात यह थी
कि किसी भी महत्त्वपूर्ण पहलू पर समझौता हुए बिना इसके परिणाम को एक बड़ी
कामयाबी की तरह पेश किया गया।
बकौल आयोजक और विकसित देश, समझौता अत्यधिक सफल रहा। मंत्री मशाबेन, जो कि
वार्ता की अध्यक्ष थीं, ने पिछली अध्यक्ष मैक्सिको की पैट्रीशिया एस्पिनोजा
को भी पछाड़ दिया।
वार्ता में क्योतो करार की दूसरी और बाध्यकारी अवधि
पर समझौता हुआ, हरित जलवायु कोष (ग्रीन क्लाइमेट फंड) की शुरुआत की घोषणा
की गई। और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एक नई कानूनी व्यवस्था की घोषणा थी, जिसके
तहत विकसित और विकासशील देश मिल कर जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझने में
बराबर की साझेदारी करेंगे। इससे अच्छा और क्या हो सकता था। लेकिन क्या यह
समझौता सही मायने में विश्व को पर्यावरणीय संताप से बचा पाएगा?
ऐसा
माना जा रहा है कि विश्व का तापमान बढ़ रहा है। इससे निपटने के लिए संयुक्त
राष्ट्र के ‘फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लामेट चेंज’ के तहत 1992 में 193
देशों ने वैश्विक तापमान कम करने के लिए प्रयास करने की इच्छा जाहिर की।
सिर्फ इच्छा काफी नहीं थी, इसलिए 1997 में जापान के क्योतो शहर में एक
वैश्विक करार किया गया। इसमें सैंतीस विकसित देशों पर ग्रीनहाउस गैसों का
उत्सर्जन कम करने की कानूनी बाध्यता डाली गई। अमेरिका ने इस संधि पर
हस्ताक्षर नहीं किए।
विकासशील देशों का कॉर्बन-उत्सर्जन विकसित देशों
की तुलना में काफी कम था, अत: उनको उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी से
फिलहाल मुक्त रखा गया। 2005 से लागू हुए क्योतो करार के अंतर्गत सैंतीस
विकसित देशों (अमेरिका को छोड़ कर) को 2012 तक अपना उत्सर्जन 1990 के
उत्सर्जन के मुकाबले सवा पांच फीसद तक कम करना था। वास्तविकता देखें तो
कुछेक देशों को छोड़ कर 1990 के दशक से विकसित देशों के उत्सर्जन कम होने के
बजाय बढेÞ ही हैं।
2005 के बाद हुई हरेक शिखर वार्ता में विकसित देशों
ने यह राग अलापा कि चूंकि अब विकासशील देशों (खासकर चीन, भारत, ब्राजील,
दक्षिण अफ्रीका) का उत्सर्जन भी काफी बढ़ चुका है अत: इन पर भी उत्सर्जन कम
करने की जिम्मेदारी होनी चाहिए। विकासशील देशों ने इसका प्रतिवाद किया, इस
आधार पर कि चूंकि विकसित देशों का ‘ऐतिहासिक उत्सर्जन’ (औद्योगिक क्रांति
के समय से 1980 के दशक तक) में काफी योगदान (अस्सी प्रतिशत) रहा है, और
विकासशील देशों का प्रतिव्यक्तिउत्सर्जन अब भी कम है, बाध्यता सिर्फ विकसित
देशों की होनी चाहिए।
यह ‘ऐतिहासिक ऋण’ चुकाने के लिए विकसित देश
विकासशील देशों को हरित तकनीक और संसाधन भी उपलब्ध कराएं ताकि वहां
उत्सर्जन कम करते हुए भी विकास अवरुद्ध न हो। लेकिन विकसित देश पिछले आठ
साल से क्योतो करार को धता बता रहे थे।
वर्ष 2012 में सबसे बड़ी चुनौती
यह होगी कि इस साल खत्म होने वाले क्योतोकरार को आगे के वर्षों में कैसे
जिंदा रखा जाए। चूंकि विकसित देशों ने इसके प्रावधान के अनुसार अपना
उत्सर्जन कम नहीं किया है, उन्हें क्योतो करार के अगले चरण के लिएमनाना
मुश्किल माना जा रहा था। विकसित देश अपना उत्सर्जन कितना कम करेंगे, इस पर
समझौता भी मुश्किल लग रहा था। सर्वाधिक आशा हरित जलवायु कोष को लेकर थी।
विकासशील और अल्पविकसित देशों को अभी तीस अरब डॉलर और 2020 से हर साल सौ
अरब डॉलर इस कोष के तहत उपलब्ध कराया जाएगा।
अब एक नजर डरबन में हुए
समझौते और इसके परिणाम पर डालें। क्योतो करार के संबंध में डरबन सम्मेलन ने
यह तय किया कि द्वितीय बाध्यकारी अवधि लागू की जाए। इसकी समय सीमा आने
वाले वर्षों में तय की जाएगी। यह अवधि 2013 से 2017 या 2020 तक हो सकती है।
इससे भी मजेदार बात यह है कि इसमें विकसित देश अपना उत्सर्जन कितना कम
करेंगे, यह भी आने वाले वर्षों में शिखर वार्ताओं में समझौतों के आधार पर
तय होगा। ऐसा माना जा रहा है कि विकसित देशों को मजबूर करना शायद ही संभव
होगा। इसके बजाय ‘प्लेज ऐंड रिव्यू’ यानी खुद वायदा करो और खुद ही प्रमाणित
करो का कानून होगा। विकसित देश खुद ही गवाह, मुद््दई और मजिस्ट्रेट होंगे।
‘प्लेज
ऐंड रिव्यू’ की बात विकसित देशों के हित में है और विकासशील देशों पर इसे
थोपने की प्रकिया कोपेनहेगन में ही शुरू हो गई थी, जहां भारत ने अमेरिका और
चीन को साथ लाने में अहम भूमिका अदा की थी। भारी विरोध के कारण कोपेनहेगन
में इस पर आम सहमति नहीं बन पाई थी। लेकिन कानकुन में पैट्रीशिया एस्पिनोजा
(मैक्सिको) के नेतृत्व में यह कानून विकासशील, अल्पविकसित और द्वीपीय
देशों के हलक में जबरर्दस्ती उतार दिया गया था।
डरबन में दूसरा समझौता
हरित जलवायु कोष (ग्रीन क्लाइमेट फंड) को लेकर हुआ। वार्ता में तय हुआ कि
यह कोष 2013 से उपलब्ध होगा। हालांकि इस कोष में कौन-से विकसित देश कब और कितना पैसा देंगे इसका निर्धारण नहीं हो पाया है। कोष के संदर्भ में
अमेरिका से शायद बहुत उम्मीद न रखें। यूरोपीय संघ भी खुद आर्थिक संकट का
सामना कर रहा है। कुछ नार्डिक देशों (नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क) और जर्मनी
के अलावा अन्य देशों से आशा रखना बेमानी होगा। खैर, विकसित देशों की
दरियादिली का खुलासा भी अगले साल हो जाएगा।
सबसे अहम बातचीत एक नए
कानूनी मसविदे पर रही। ‘डरबन प्लेटफॉर्म आॅन इन्हेंस्ड एंबिशन’ के नाम से
यह करार विकसित देशों के साथ बडेÞ विकासशील देशों जैसे चीन, भारत,
अफ्रीका और दक्षिण अफ्रीका आदि से भी उत्सर्जन कम करने के वायदे लेगा।
हालांकि यह क्योतो करार के एकदम विपरीत है, लेकिन दुनिया के सभी देशों ने
मान लिया कि यह करार क्योतो के नक्शेकदम पर है। शायद उनके पास और कोई चारा
नहीं था। डरबन करार के मसविदे में यह कहीं नहीं है कि उत्सर्जन कम करने की
प्राथमिक जिम्मेदारी विकसित देशों की है। इसमें यह भी नहीं है कि विकसित
देशों पर कोई ऐतिहासिक ऋण है। ये सब पुरानी बातें आई-गई हो गर्इं। अमेरिका
ने टका-सा जवाब दिया कि इस करार में अगर बराबरी की बात आई तो वह इससे बाहर
हो जाएगा। आज के सभ्य समाज में इसे दादागीरी नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय
समझौते की बारीकियों की समझ कहते हैं!
/> इसकरार की रूपरेखा 2015 तक तय
हो जाएगी और यह करार 2020 से लागू हो जाएगा। यह अपेक्षा है कि आने वाले साल
में देश यह घोषणा करेंगे कि वे अपना उत्सर्जन कितने प्रतिशत कम करेंगे। कई
देशों खासकर अमेरिका के लिए अगले वर्ष नवंबर में आने वाले चुनावों से पहले
कुछ वायदा करना मुश्किल होगा। ओबामा की जलवायु परिवर्तन नीति के खिलाफ
अमेरिकी संसद में काफी हंगामा पहले ही हो चुका है। यही स्थिति कमोबेश चीन
और भारत की भी है। चीन में अक्षय ऊर्जा के साथ कोयले से ऊर्जा हासिल करने
पर भी बहुत खर्च होता है।
ऐसा माना जा रहा है कि 2020 तक चीन में
प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन यूरोपीय संघ के बराबर होगा। ऐसे में चीन को खुद को
लेकर विकासशील देश की तरह दलील देना मुश्किल होगा। भारत में 1996 में अस्सी
हजार मेगावाट की उत्पादन क्षमता के समय इक्यावन प्रतिशत जनता के पास बिजली
नहीं थी। 2009 में 1,72,000 मेगावाट उत्पादन क्षमता के समय भी इकतालीस
प्रतिशत आबादी को बिजली उपलब्ध नहीं थी। यह सोचना शायद एक भूल होगी कि 2020
तक भारत उत्सर्जन घटाने की स्थिति में होगा।
इस समझौते में एक मजेदार
बात यह रही कि जहां विकसित देश क्योतो करार के उत्सर्जन कम करने के
प्रावधान को नहीं मानते हैं वहीं वे इसके अंदर सीडीएम (क्लीन डेवलपमेंट
मेकेनिज्म) का फायदा उठाना चाहते हैं। सीडीएम विकसित देशों को यह छूट देता
है कि वे घरेलू उत्सर्जन कम किए बिना विकासशील देशों में अभिनव प्रयोग और
साफ-सुथरी तकनीक से कॉर्बन क्रेडिट खरीद कर अपने रिकार्ड को दुरुस्त कर
सकते हैं। उनकी इच्छा को ध्यान में रखते हुए सीडीएम को क्योतो करार की
दूसरी अवधि के लिए न सिर्फमान्यता दी गई बल्कि जो विकसित देश क्योतो करार
के इस चरण में शामिल नहीं होना चाहते हैं वे भी इसका लाभ ले सकते हैं।
बहुत
शोर-शराबे के बाद आखिर भारत भी इस करार को मान गया। हमारी पर्यावरण मंत्री
ने भारत की विशाल जनसंख्या और आने वाली पीढ़ी की दुहाई दी और इससे सिर्फ
इतना हुआ कि उन्हें यूरोपीय संघ से बातचीत और आपसी समझ बनाने का मौका
वार्ता की अध्यक्ष मशाबेन ने दे दिया। भारत और यूरोपीय संघ में बातचीत लंबी
चली, लेकिन हश्र वही हुआ जिसकी आशंका थी। यूरोपीय संघ से बातचीत के बाद
उन्होंने अपना प्रतिरोध वापस ले लिया। शायद भारत को यूरोपीय संघ से जलवायु
परिवर्तन की राजनीति और समझौते के गुर सीखने की आवश्यकता है। इस शिखर
वार्ता का परिणाम वही रहा जो कि यूरोपीय संघ का प्रस्ताव था।
भारत ने
चीन के साथ दूरियां कम कीं, लेकिन वह बेसिक समूह (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका,
भारत और चीन) की एकजुटता का लाभ उठा कर वार्ता-अध्यक्ष (दक्षिण अफ्रीका)
पर करार में बराबरी वाली बात लाने के लिए दबाव डालने में नाकाम रहा।
बौद्धिक संपदा अधिकार और एकपक्षीय व्यापारिक प्रतिबंधों पर चर्चा के भारत
के प्रस्तावों को भी बहुत समर्थन नहीं मिला। आने वाले वर्षों में भारत को
अपनी दलीलों के लिए सहानुभूति के साथ संख्या सुनिश्चित करने की भी तैयारी
रखनी पडेÞगी।
डरबन शिखर वार्ता ने सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा कई
/> वर्षों के लिए टाल दी है। सारे परिणाम भविष्य, संभावनाओं और अंतरराष्ट्रीय
राजनीतिक संबंधों पर निर्भर हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के
अनुसार अक्षय ऊर्जा में निवेश न किए जाने से जलवायु संकट से निपटने की कीमत
साढ़े चार गुनी बढ़ जाती है। विश्व के नेता जब तक इस संकट से निपटने के लिए
दृढ़ इच्छाशक्ति और अनुकूल राजनीतिक वातावरण नहीं बना पाते हैं तब तक यह
निष्क्रियता संसार को महंगी पडेÞगी।
छत्तीस घंटे देर तक चली अंतरराष्ट्रीय शिखर वार्ता की सबसे खास बात यह थी
कि किसी भी महत्त्वपूर्ण पहलू पर समझौता हुए बिना इसके परिणाम को एक बड़ी
कामयाबी की तरह पेश किया गया।
बकौल आयोजक और विकसित देश, समझौता अत्यधिक सफल रहा। मंत्री मशाबेन, जो कि
वार्ता की अध्यक्ष थीं, ने पिछली अध्यक्ष मैक्सिको की पैट्रीशिया एस्पिनोजा
को भी पछाड़ दिया।
वार्ता में क्योतो करार की दूसरी और बाध्यकारी अवधि
पर समझौता हुआ, हरित जलवायु कोष (ग्रीन क्लाइमेट फंड) की शुरुआत की घोषणा
की गई। और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एक नई कानूनी व्यवस्था की घोषणा थी, जिसके
तहत विकसित और विकासशील देश मिल कर जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझने में
बराबर की साझेदारी करेंगे। इससे अच्छा और क्या हो सकता था। लेकिन क्या यह
समझौता सही मायने में विश्व को पर्यावरणीय संताप से बचा पाएगा?
ऐसा
माना जा रहा है कि विश्व का तापमान बढ़ रहा है। इससे निपटने के लिए संयुक्त
राष्ट्र के ‘फ्रेमवर्क कन्वेंशन आॅन क्लामेट चेंज’ के तहत 1992 में 193
देशों ने वैश्विक तापमान कम करने के लिए प्रयास करने की इच्छा जाहिर की।
सिर्फ इच्छा काफी नहीं थी, इसलिए 1997 में जापान के क्योतो शहर में एक
वैश्विक करार किया गया। इसमें सैंतीस विकसित देशों पर ग्रीनहाउस गैसों का
उत्सर्जन कम करने की कानूनी बाध्यता डाली गई। अमेरिका ने इस संधि पर
हस्ताक्षर नहीं किए।
विकासशील देशों का कॉर्बन-उत्सर्जन विकसित देशों
की तुलना में काफी कम था, अत: उनको उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी से
फिलहाल मुक्त रखा गया। 2005 से लागू हुए क्योतो करार के अंतर्गत सैंतीस
विकसित देशों (अमेरिका को छोड़ कर) को 2012 तक अपना उत्सर्जन 1990 के
उत्सर्जन के मुकाबले सवा पांच फीसद तक कम करना था। वास्तविकता देखें तो
कुछेक देशों को छोड़ कर 1990 के दशक से विकसित देशों के उत्सर्जन कम होने के
बजाय बढेÞ ही हैं।
2005 के बाद हुई हरेक शिखर वार्ता में विकसित देशों
ने यह राग अलापा कि चूंकि अब विकासशील देशों (खासकर चीन, भारत, ब्राजील,
दक्षिण अफ्रीका) का उत्सर्जन भी काफी बढ़ चुका है अत: इन पर भी उत्सर्जन कम
करने की जिम्मेदारी होनी चाहिए। विकासशील देशों ने इसका प्रतिवाद किया, इस
आधार पर कि चूंकि विकसित देशों का ‘ऐतिहासिक उत्सर्जन’ (औद्योगिक क्रांति
के समय से 1980 के दशक तक) में काफी योगदान (अस्सी प्रतिशत) रहा है, और
विकासशील देशों का प्रतिव्यक्तिउत्सर्जन अब भी कम है, बाध्यता सिर्फ विकसित
देशों की होनी चाहिए।
यह ‘ऐतिहासिक ऋण’ चुकाने के लिए विकसित देश
विकासशील देशों को हरित तकनीक और संसाधन भी उपलब्ध कराएं ताकि वहां
उत्सर्जन कम करते हुए भी विकास अवरुद्ध न हो। लेकिन विकसित देश पिछले आठ
साल से क्योतो करार को धता बता रहे थे।
वर्ष 2012 में सबसे बड़ी चुनौती
यह होगी कि इस साल खत्म होने वाले क्योतोकरार को आगे के वर्षों में कैसे
जिंदा रखा जाए। चूंकि विकसित देशों ने इसके प्रावधान के अनुसार अपना
उत्सर्जन कम नहीं किया है, उन्हें क्योतो करार के अगले चरण के लिएमनाना
मुश्किल माना जा रहा था। विकसित देश अपना उत्सर्जन कितना कम करेंगे, इस पर
समझौता भी मुश्किल लग रहा था। सर्वाधिक आशा हरित जलवायु कोष को लेकर थी।
विकासशील और अल्पविकसित देशों को अभी तीस अरब डॉलर और 2020 से हर साल सौ
अरब डॉलर इस कोष के तहत उपलब्ध कराया जाएगा।
अब एक नजर डरबन में हुए
समझौते और इसके परिणाम पर डालें। क्योतो करार के संबंध में डरबन सम्मेलन ने
यह तय किया कि द्वितीय बाध्यकारी अवधि लागू की जाए। इसकी समय सीमा आने
वाले वर्षों में तय की जाएगी। यह अवधि 2013 से 2017 या 2020 तक हो सकती है।
इससे भी मजेदार बात यह है कि इसमें विकसित देश अपना उत्सर्जन कितना कम
करेंगे, यह भी आने वाले वर्षों में शिखर वार्ताओं में समझौतों के आधार पर
तय होगा। ऐसा माना जा रहा है कि विकसित देशों को मजबूर करना शायद ही संभव
होगा। इसके बजाय ‘प्लेज ऐंड रिव्यू’ यानी खुद वायदा करो और खुद ही प्रमाणित
करो का कानून होगा। विकसित देश खुद ही गवाह, मुद््दई और मजिस्ट्रेट होंगे।
‘प्लेज
ऐंड रिव्यू’ की बात विकसित देशों के हित में है और विकासशील देशों पर इसे
थोपने की प्रकिया कोपेनहेगन में ही शुरू हो गई थी, जहां भारत ने अमेरिका और
चीन को साथ लाने में अहम भूमिका अदा की थी। भारी विरोध के कारण कोपेनहेगन
में इस पर आम सहमति नहीं बन पाई थी। लेकिन कानकुन में पैट्रीशिया एस्पिनोजा
(मैक्सिको) के नेतृत्व में यह कानून विकासशील, अल्पविकसित और द्वीपीय
देशों के हलक में जबरर्दस्ती उतार दिया गया था।
डरबन में दूसरा समझौता
हरित जलवायु कोष (ग्रीन क्लाइमेट फंड) को लेकर हुआ। वार्ता में तय हुआ कि
यह कोष 2013 से उपलब्ध होगा। हालांकि इस कोष में कौन-से विकसित देश कब और कितना पैसा देंगे इसका निर्धारण नहीं हो पाया है। कोष के संदर्भ में
अमेरिका से शायद बहुत उम्मीद न रखें। यूरोपीय संघ भी खुद आर्थिक संकट का
सामना कर रहा है। कुछ नार्डिक देशों (नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क) और जर्मनी
के अलावा अन्य देशों से आशा रखना बेमानी होगा। खैर, विकसित देशों की
दरियादिली का खुलासा भी अगले साल हो जाएगा।
सबसे अहम बातचीत एक नए
कानूनी मसविदे पर रही। ‘डरबन प्लेटफॉर्म आॅन इन्हेंस्ड एंबिशन’ के नाम से
यह करार विकसित देशों के साथ बडेÞ विकासशील देशों जैसे चीन, भारत,
अफ्रीका और दक्षिण अफ्रीका आदि से भी उत्सर्जन कम करने के वायदे लेगा।
हालांकि यह क्योतो करार के एकदम विपरीत है, लेकिन दुनिया के सभी देशों ने
मान लिया कि यह करार क्योतो के नक्शेकदम पर है। शायद उनके पास और कोई चारा
नहीं था। डरबन करार के मसविदे में यह कहीं नहीं है कि उत्सर्जन कम करने की
प्राथमिक जिम्मेदारी विकसित देशों की है। इसमें यह भी नहीं है कि विकसित
देशों पर कोई ऐतिहासिक ऋण है। ये सब पुरानी बातें आई-गई हो गर्इं। अमेरिका
ने टका-सा जवाब दिया कि इस करार में अगर बराबरी की बात आई तो वह इससे बाहर
हो जाएगा। आज के सभ्य समाज में इसे दादागीरी नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय
समझौते की बारीकियों की समझ कहते हैं!
/> इसकरार की रूपरेखा 2015 तक तय
हो जाएगी और यह करार 2020 से लागू हो जाएगा। यह अपेक्षा है कि आने वाले साल
में देश यह घोषणा करेंगे कि वे अपना उत्सर्जन कितने प्रतिशत कम करेंगे। कई
देशों खासकर अमेरिका के लिए अगले वर्ष नवंबर में आने वाले चुनावों से पहले
कुछ वायदा करना मुश्किल होगा। ओबामा की जलवायु परिवर्तन नीति के खिलाफ
अमेरिकी संसद में काफी हंगामा पहले ही हो चुका है। यही स्थिति कमोबेश चीन
और भारत की भी है। चीन में अक्षय ऊर्जा के साथ कोयले से ऊर्जा हासिल करने
पर भी बहुत खर्च होता है।
ऐसा माना जा रहा है कि 2020 तक चीन में
प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन यूरोपीय संघ के बराबर होगा। ऐसे में चीन को खुद को
लेकर विकासशील देश की तरह दलील देना मुश्किल होगा। भारत में 1996 में अस्सी
हजार मेगावाट की उत्पादन क्षमता के समय इक्यावन प्रतिशत जनता के पास बिजली
नहीं थी। 2009 में 1,72,000 मेगावाट उत्पादन क्षमता के समय भी इकतालीस
प्रतिशत आबादी को बिजली उपलब्ध नहीं थी। यह सोचना शायद एक भूल होगी कि 2020
तक भारत उत्सर्जन घटाने की स्थिति में होगा।
इस समझौते में एक मजेदार
बात यह रही कि जहां विकसित देश क्योतो करार के उत्सर्जन कम करने के
प्रावधान को नहीं मानते हैं वहीं वे इसके अंदर सीडीएम (क्लीन डेवलपमेंट
मेकेनिज्म) का फायदा उठाना चाहते हैं। सीडीएम विकसित देशों को यह छूट देता
है कि वे घरेलू उत्सर्जन कम किए बिना विकासशील देशों में अभिनव प्रयोग और
साफ-सुथरी तकनीक से कॉर्बन क्रेडिट खरीद कर अपने रिकार्ड को दुरुस्त कर
सकते हैं। उनकी इच्छा को ध्यान में रखते हुए सीडीएम को क्योतो करार की
दूसरी अवधि के लिए न सिर्फमान्यता दी गई बल्कि जो विकसित देश क्योतो करार
के इस चरण में शामिल नहीं होना चाहते हैं वे भी इसका लाभ ले सकते हैं।
बहुत
शोर-शराबे के बाद आखिर भारत भी इस करार को मान गया। हमारी पर्यावरण मंत्री
ने भारत की विशाल जनसंख्या और आने वाली पीढ़ी की दुहाई दी और इससे सिर्फ
इतना हुआ कि उन्हें यूरोपीय संघ से बातचीत और आपसी समझ बनाने का मौका
वार्ता की अध्यक्ष मशाबेन ने दे दिया। भारत और यूरोपीय संघ में बातचीत लंबी
चली, लेकिन हश्र वही हुआ जिसकी आशंका थी। यूरोपीय संघ से बातचीत के बाद
उन्होंने अपना प्रतिरोध वापस ले लिया। शायद भारत को यूरोपीय संघ से जलवायु
परिवर्तन की राजनीति और समझौते के गुर सीखने की आवश्यकता है। इस शिखर
वार्ता का परिणाम वही रहा जो कि यूरोपीय संघ का प्रस्ताव था।
भारत ने
चीन के साथ दूरियां कम कीं, लेकिन वह बेसिक समूह (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका,
भारत और चीन) की एकजुटता का लाभ उठा कर वार्ता-अध्यक्ष (दक्षिण अफ्रीका)
पर करार में बराबरी वाली बात लाने के लिए दबाव डालने में नाकाम रहा।
बौद्धिक संपदा अधिकार और एकपक्षीय व्यापारिक प्रतिबंधों पर चर्चा के भारत
के प्रस्तावों को भी बहुत समर्थन नहीं मिला। आने वाले वर्षों में भारत को
अपनी दलीलों के लिए सहानुभूति के साथ संख्या सुनिश्चित करने की भी तैयारी
रखनी पडेÞगी।
डरबन शिखर वार्ता ने सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा कई
/> वर्षों के लिए टाल दी है। सारे परिणाम भविष्य, संभावनाओं और अंतरराष्ट्रीय
राजनीतिक संबंधों पर निर्भर हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के
अनुसार अक्षय ऊर्जा में निवेश न किए जाने से जलवायु संकट से निपटने की कीमत
साढ़े चार गुनी बढ़ जाती है। विश्व के नेता जब तक इस संकट से निपटने के लिए
दृढ़ इच्छाशक्ति और अनुकूल राजनीतिक वातावरण नहीं बना पाते हैं तब तक यह
निष्क्रियता संसार को महंगी पडेÞगी।