दिल्ली को पिताजी एक सराय मानते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा ‘ट्रांजिट’ कैंप, जहां लोग लगातार आते और जाते रहते हैं। अस्पताल में उन्होंने बताया कि डॉ लोहिया दिल्ली को भारतीय इतिहास की शाश्वत नगरवधू कहा करते थे। डॉ लोहिया और पिताजी का जन्म अकबरपुर के शहजादपुर कस्बे में ही हुआ था। शायद इसलिए दोनों मानते हैं कि दिल्ली न किसी की रही है न होगी। इसका अपना एक बेवफा चरित्र है। मुकाबले में बनारस की आत्मीयता और अड्डेबाजी का जवाब नहीं, जहां जुलाहे में भी ब्रह्मज्ञान जागा था। शायद इसीलिए तुलसी ने भी यहीं तन त्यागा था।
दिल्ली से उनके इस बैर भाव के बावजूद उन्हें इलाज के लिए दिल्ली लाना मुश्किल काम था। मोक्ष भले बनारस में मिले पर जीवन पर आए संकट से बचने के उपकरण दिल्ली में थे। क्या करें? संकट बड़ा था। उनकी सेहत गिर रही थी। बनारस के डॉक्टर फौरन आॅपरेशन चाहते थे। मैं कुछ कहता कि वे बोल पड़ते- ‘इस उम्र में कोई काशी छोड़ता है भला’! मेरे मन में एक अपराधबोध पहले ही था। माता को भी दिल्ली लाया था। इलाज के लिए। वे यहीं चली गर्इं। दिल पर बना यह बोझ फैसला लेने में बाधक था। तब माता के दिल के ‘वॉल्व’ बदलवाने थे। दिल्ली में बड़े अस्पतालों में पव्वा न हो तो कोई पूछता नहीं है। अपना पव्वा साबित करने
के लिए माताजी को मैं दिल्ली लाया था। वे दिल्ली चल कर आई थीं और मैं वापस बनारस लौटा, उनकी देह लेकर। मौत के आगे किसका पव्वा चलता है?
मैं बनारस के एकनिजी अस्पताल के आईसीयू में गुमसुम था। पिताश्री ने कहा कि परेशान क्यों हो। फिर ग़ालिब का एक शेर सुनाया- ‘मौत का एक दिन मुअय्यन है; नींद क्यों रातभर नहीं आती।’ इस शेर ने मुझमें ताकत भर दी। फैसला हो गया कि अब दिल्ली ही चलना है। फिर भी पिताजी को दिल्ली लाना दिल-जिगरे का काम था। ऐसा नहीं था कि वे दिल्ली के हमारे घर आते नहीं थे। बनारस से पिताजी का आना हमारे दिल्ली वाले घर में उत्सव की तरह होता है और टिक जाएं तो महोत्सव। अब उत्सव होगा या महोत्सव, यह निर्णय हर बार अपने मिजाज के अनुसार पिताजी ही लेते। गोया हजरते ज़ौक़ की एक पंक्ति, कुछ यों बदल कर उन्होंने अपने सीने से लगा रखी थी- ‘कौन जाए ऐ ज़ौक़ अब काशी की गलियां छोड़ कर।’ काशी में पिताजी के प्राण बसते हैं।
लेकिन इस बार व्यथा अलग थी। हमेशा जिंदादिली से जीने वाले पिता उम्र के चौरासीवें पड़ाव पर दिल के हाथों मात खा रहे थे। उनके सीने में फौरन ‘पेसमेकर’ लगाया जाना जरूरी हो गया था। यह एक प्रकार का ‘इनर्वटर’ होता है। जब दिल को धड़काने वाली बिजली की तरंगें फेल होने लगती हैं तो यह अपने आप चालू होकर दिल को धड़काने लगता है। ‘पेसमेकर’ तो बनारस में भी लग सकता था, पर इसके लिए जरूरी सुविधाएं वहां नहीं थीं।
मितव्ययिता जीवनभर उनके स्वभाव का हिस्सा रही। अचानक यह कुंजी मेरे दिमाग पर लगा ताला खोल गई। सो, इसी के सहारे एक नया दांव लगाया। सुबह आईसीयू में उनके सामने था। ऊपर वाले का सुमिरन किया और पत्ता फेंका- ‘देखिए, दिल्ली से एअर एंबुलेंस मंगवाई है। आज दोपहर तक आ जाएगी। अभी एक मित्र के कहने पर कोई पैसा नहीं लग रहा है। मगर कल कोई ऊंच-नीच हो गई तो आनन-फानन में यही एअर एंबुलेंस दोगुना पैसा लेकर जाएगी।’ तीर सीधा निशाने पर लगा। पिताजी का स्वर फूटा- ‘अच्छा, ठीक है। चलता हूं। तुम मुझे दिल्ली ले जा रहे हो तो कुछ बड़ी गड़बड़ जरूर है।’
इनका राजी हो जाना मेरे लिए उनके आधे स्वस्थ हो जाने की आश्वस्ति थी। यों भी जीवन की आपाधापी में एक बेटे का पिता से कितना सरोकार रहता है? जरूरत के वक्त उनसे रास्ता पूछना और राह भटकने पर उन्हीं से दंड पाना। मित्र आलोक का शेर है- ‘कभी बड़ा-सा हाथखर्च है/ कभी हथेली की सूजन/ मेरे मन का आधा साहस आधा डर हैं बाबूजी।’
पिताश्री दिल्ली आए। इलाज कराया। और ठीक होकर बनारस लौट गए। दिल्ली के चाक-चिक्य को छोड़ उसी काशी में जिसके बारे में कहा गया है- ‘चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार/ काशी कबहुं न छोड़िए विश्वनाथ दरबार।’ उन्हें दिल्ली दरबार से बेहतर विश्वनाथ दरबार लगता है।