डरबन से आगे की डगर- सुनील यादव

दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन
सम्मेलन से लौटने के बाद अब विभिन्न देशों ने ‘क्या खोया- क्या पाया’ का
आकलन शुरू कर दिया है। ऐसे में हम पाते हैं कि पर्यावरणीय चिंता के वैश्विक
सवाल पर यूरोपीय संघ जहां विजेता की मुद्रा में है, वहीं हमारा देश
‘अड़ियल’ का खिताब लेकर लौटा है।

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन
समझौते के अंतर्गत 1992 में ब्राजील के रियो डे जनेरियो में आयोजित पृथ्वी
सम्मेलन के बाद से अब तक की अधिकांश समझौता वार्ताओं में पर्यावरणीय
समस्याओं के समाधान की जद्दोजहद देखी जा सकती है। डरबन में ‘कोप-17’ के नाम
से आयोजित इस सत्तरहवीं समझौता वार्ता में दुनिया भर के 192 देश कार्बन
उत्सर्जन पर चर्चा के लिए जुटे थे।

गौरतलब है कि विकास के मौजूदा
मॉडल के तहत एक तरफ तो कार्बन उत्सर्जन विकास की प्रक्रिया का अनिवार्य
हिस्सा है, दूसरी तरफ इसकी वजह से दुनिया भर में मौसम में खतरनाक बदलाव आ
रहे हैं। निश्चय ही ‘कोप-17’ एक ऐसा मंच था, जहां पर तमाम देशों ने न सिर्फ
अपनी-अपनी पर्यावरणीय चिंताएं साझा कीं, बल्कि कार्बन उत्सर्जन पर कानूनी
रूप से बाध्यकारी कटौती को अमल में लाने के लिए आम सहमति से फैसला भी लिया।
कार्बन कटौती का यह फैसला 2020 से लागू होना है और इस फैसले से जुड़ी तमाम
प्रक्रियाएं 2015 से शुरू होंगी।

डरबन सम्मेलन के संदर्भ में याद
रखना चाहिए कि यह वैश्विक कूटनीति का भी मंच था, जहां तमाम तरह की वैश्विक
और क्षेत्रीय खेमेबंदियां बनती-बिगड़ती देखी गईं। वैश्विक राजनीति के
मौजूदा अंतर्विरोधों के मद्देनजर भारत के पास इसका पर्याप्त मौका था कि वह
अन्य विकासशील और अल्पविकसित देशों की उन पर्यावरणीय चिंताओं को साझा सुर
दे सकता था, जिनकी अमेरिका और विकसित यूरोपीय देशों द्वारा लंबे समय से
अनसुनी की जा रही है। इस साझा सुर में उन तटीय एवं द्वीपीय देशों के भी
शामिल होने की संभावना थी, जिनके ऊपर आने वाले कुछ ही वर्षों में ‘ग्लोबल
वार्मिंग’ के चलते डूबने और तबाह होने का खतरा मंडरा रहा है।

लेकिन
हमारी सरकार के ढुलमुल और अस्पष्ट रुख के चलते यूरोपीय संघ ने अल्पविकसित
और आसन्न संकट वाले तटीय एवं द्वीपीय देशों का नेतृत्व हथिया लिया। इतना ही
नहीं, पर्यावरणीय चिंता के प्रश्न पर यूरोपीय संघ के रणनीतिकारों ने
‘बेसिक’ देशों-ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन की आंतरिक दरारों को
और चौड़ा कर दिया। कानूनी रूप से बाध्यकारी कार्बन कटौती के प्रश्न पर भारत
को केवल चीन का समर्थन मिला, जबकि अन्य ‘बेसिक’ देश आम तौर पर यूरोपीय संघ
के ही पाले में खड़े नजर आए। हालांकि तमाम देशों से अलग-थलग पड़ने और
‘अड़ियल’ देश का खिताब पाने के बाद भारत ने भी कानूनी रूप से बाध्यकारी
कार्बन कटौती के प्रश्न पर अपनी सहमति दे दी, पर इस प्रक्रिया में यूरोपीय
संघ से वह कोई मोल-तोल नहीं कर पाया।

यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है
कि विकसित देश, जो वायुमंडल में जमा तीन-चौथाई ग्रीन हाउस गैसों के लिए
जिम्मेदार हैं, डरबन सम्मेलन के बाद विजेता की मुद्रा में हैं, जबकि इन
देशों ने तो ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ का अपनावायदा तक पूरा नहीं किया। इस फंड
के जरिये पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील और आसन्न संकट वाले मुल्कों को
उत्सर्जन में कमी के बदले भुगतान किया जाना था। इतना ही नहीं, विकसित देशों
द्वारा प्रदूषण कम करने की तकनीक विकासशील देशों को मुहैया कराई जानी थी,
किंतु विकसित देशों की इस वायदा खिलाफी के प्रश्न पर सम्मेलन में कोई
उल्लेखनीय पहल नहीं हो सकी।
विकसित देशों ने ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ के तहत
अपने दायित्वों को पूरी तरह नहीं निभाया और अमेरिका ने तो उसका कभी अनुमोदन
ही नहीं किया। जाहिर है कि जब तक अमेरिका और अन्य विकसित देशों के इस
गैरजिम्मेदाराना रवैये में बदलाव नहीं आता, वैश्विक पर्यावरण पर कार्बन
उत्सर्जन का संकट मंडराता रहेगा। मौजूदा परिदृश्य में कार्बन कटौती के पक्ष
में डरबन-सहमति निश्चय ही एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, लेकिन डरबन से आगे की
डगर तमाम चुनौतियों और जोखिम से भरी हुई है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *