विवाद, परमाणु संयंत्र के खिलाफ माहौल या खाप पंचायत या गुर्जरों का क्षोभ
जैसे दूसरे आंदोलन केवल सत्ता में स्थित खास पार्टी के खिलाफ चुनौती भर
नहीं हैं, बल्कि वे हमारी सरकारों की शासन की क्षमता पर सवाल उठाने से भी
ज्यादा गहरे हैं। वस्तुतः वे हमारे राजनीतिक क्षेत्र की भावना को समय-समय
पर अस्थिर करनेवाली बुनियादी गड़बड़ियों के लक्षण प्रदर्शित करते हैं।
हालिया
आंदोलनों में शामिल लोगों और उनकी सामूहिक उम्मीदों या उनकी वास्तविक
मांगों को पल भर के लिए अलग रख दें, तो भी तथ्य यह है कि राजनीतिक
प्रक्रिया के तहत संवाद करने के बजाय सीधी कार्रवाई जैसी सख्ती दिखाकर
इन्होंने हमारी राजनीतिक प्रक्रिया के सामने व्यावहारिक चुनौती खड़ी कर दी।
इस तरह उन्होंने राजनीतिक कार्रवाई और तर्क की स्वीकृत परिभाषा को ही
चुनौती दे दी।
इस ताजा विवाद की कम से कम तीन स्पष्ट व्याख्याएं की
गई हैं। उदारवादी आलोचक इसे जनप्रतिनिधित्व राजनीतिक प्रणाली और संसदीय
व्यवस्था की रीढ़ को तोड़नेवाले आंदोलन के रूप में देखते हैं और सांविधानिक
नैतिकता के पालन पर जोर देते हैं। वे यह मानते हैं कि राजनीति ने एक ऐसी
स्थिति हासिल कर ली है, जिसे बदला नहीं जा सकता। जबकि वाम दल इस तरह के
आंदोलन में एक खतरनाक लोकप्रियतावादी प्रवृत्ति देखते हैं, जो संगठित जन
राजनीति को हड़प लेगी।
दूसरी ओर दक्षिणपंथी दलों, कार्यकर्ताओं और
इस आंदोलन से अप्रभावित लोगों के लिए यह प्रतिरोध पतित हो चुकी राजनीति को
चुनौती देने का प्रयास तो है ही, यह नैतिक शुद्धता की वापसी की गारंटी भी
है, जिसकी उम्मीद कम से कम पेशेवर राजनेताओं से तो नहीं ही की जा सकती। सभी
टिप्पणीकारों ने राजनीतिक क्षेत्र के पेशेवरों और सामाजिक क्षेत्र के
लोगों के बीच की विषमता का न सिर्फ वर्णन किया है, बल्कि उनका यह भी कहना
है कि बाहरी सामाजिक कार्यकर्ताओं का आचरण नैतिकतापूर्ण होने के बावजूद
गैरजिम्मेदारी भरा ही है। फिर भी इस परिदृश्य को इस तरह विभाजित करके देखना
गलत होगा। इसके बजाय यह पारंपरिक राजनीतिक संरक्षकों के दरवाजे पर तेज और
दुस्साहस भरी दस्तक है।
आधुनिक भारतीय इतिहास में राजनीति की
परिभाषा को लेकर यह झगड़ा नया नहीं है। यूरोप और अमेरिका की तुलना में,
जहां ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में राजनीतिक क्षेत्र के प्रारंभिक विस्तार
के बाद सामाजिक और लोकप्रिय आंदोलन भले ही शुरू और खत्म हुए, लेकिन दलगत
राजनीति पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, भारत में पेशेवर राजनीतिज्ञों
और उन्हें चुनौती देनेवालों के बीच नियमित रूप से संघर्ष चलता रहा है।
19वीं
सदी के उत्तरार्द्ध से भारतीय राजनीति के क्षेत्र और अंतर्वस्तु में
चक्रीय और प्रगतिशील विस्तार हुआ है। इस दिशा में पहला बड़ा सुधार यह हुआ
कि कांग्रेस की शुरुआती संकीर्ण पार्टी गांधी की व्यापक जनसमूह की राजनीति
में बदल गई। स्वतंत्रता के बाद गांधी के व्यापक लोक संगठन को 1950 में शुरू
हुए सांविधानिक सुधारवाद के एक व्यापक दायरे में सीमित कर दिया गया।
राजनीतिक क्षेत्र का यह सांविधानिक सीमांकन कमोबेश 1970 तक जारी रहा।
आपातकाल, जिसे लोकतंत्र की परिभाषा को संशोधित और विस्तृतकरने की जरूरत से
इनकार के रूप में चिह्नित किया गया, अपने-आप टूट गया और 1980 के दशक में
उसने आंदोलनों को प्रेरित किया। 1990 के दशक में व्यापक जनसमूह की भागीदारी
ने राजनीतिक क्षेत्र में नई ऊर्जा और दावों को एक साथ लाया। वह स्थिति
हालिया बाजारू पूंजीवाद की अनिवार्यता के दौर में सिकुड़ती चली गई।
अब
एक बार फिर राजनीतिक क्षेत्र को विस्तृत और परिभाषित किए जाने का तत्कालिक
दबाव पड़ा है। यह इसी का परिणाम है कि हम वर्तमान प्रतिवाद को राजनीतिक
लिहाज से व्यापक विस्तार वाले आंदोलनों के रूप में देख रहे हैं। पिछली
शताब्दी के नौंवें दशक के चुनावी भागीदारी की लहर के बाद संविधानेतर
राजनीति में नए तरह के संगठनों का जन्म हुआ-जिसमें भूमिहीन, जाति नेता,
असंतुष्ट शहरी संभ्रांत आदि राजनीति के क्षेत्र में दखल दिया।
इस
आंदोलन को ताकत के इस्तेमाल या दमन से नहीं रोका जा सकता और न ही
सांविधानिक औचित्य की याद दिलाकर इसे नियंत्रित किया सकता है। इसका रास्ता
इन संविधानेतर ऊर्जाओं को राजनीतिक क्षेत्र में शामिल करने से ही निकल सकता
है। इन्हें राजनीतिक क्षेत्र में लाने और कोई राजनीतिक स्वरूप तय करने के
लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, इन्हें बातचीत के लिए तैयार करना। लेकिन ऐसा
करना आसान कभी नहीं रहा है-नए लोग अपनी आकांक्षाओं को लेकर आवश्यक रूप से
मुठभेड़ करना चाहते हैं, ताकि उनके महत्व का पता चल सके। अन्यथा कौन उन्हें
गंभीरता से लेगा!
इसके लिए नैतिक सुनिश्चितता या सामाजिक पहचान के
विवाद को, जिसका आंदोलनकारी दावा कर रहे हैं, राजनीतिक बहस में तबदील करना
जरूरी है। आधुनिक भारतीय राजनीति के लिए हमेशा चुनौतियां रही हैं, या तो
विवाद बातचीत में बदल सकता है या असंतोष बहस में या भिन्नता विविधता में।
हमें अपने राजनीतिक विस्तार के पिछले अनुभवों से सबक लेने की जरूरत है-यहां
तक कि हमें इसके लिए नए रास्ते भी तलाशने होंगे।