दुनिया
के लिए यह एक चुनौती भरा समय है। आम जनता महंगाई और बेरोजगारी की समस्या से
जूझ रही है और व्यवसाय जगत करों की ऊंची दरों और मांग में आई कमी से
संघर्ष कर रहा है, क्योंकि उपभोक्ता खर्च करने का साहस नहीं जुटा पा रहे
हैं। वैश्विक बाजार किसी रोलरकोस्टर पर सवार होकर एक संकट से दूसरे संकट तक
की यात्रा कर रहा है।
यूनान, इटली, यूरो संकट, बलरुस्कोनी का स्वांग, यूरोजोन की राजनीतिक-आर्थिक
समस्याओं से जूझ रहे यूरोकेट्र्स के बदहवास चेहरे और दुनिया के तथाकथित
जी20 नेताओं की यह समझने में नाकामी कि शिखर सम्मेलन का मतलब फोटो खिंचवाने
के अलावा भी कुछ होता है, इसके लिए जिम्मेदार है। बहुत कम राजनेता ऐसे
हैं, जो दूरगामी दृष्टि का परिचय दे पा रहे हैं।
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) द्वारा हाल ही में वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक
२क्११ का प्रकाशन किया गया है और इस रिपोर्ट में हर उस व्यक्ति की दिलचस्पी
होनी चाहिए, जिसे अपने बच्चों के भविष्य की फिक्र है। दोटूक शब्दों में
कहें तो पर्यावरण में हो रहे परिवर्तनों के कारण दुनिया एक विराट संकट की
ओर अग्रसर हो रही है।
२७ नवंबर से डरबन में पर्यावरण वार्ताओं का एक और दौर शुरू होने जा रहा है।
आईईए की रिपोर्ट डरबन वार्ता के लिए खतरे की घंटी होनी चाहिए, लेकिन लगता
नहीं कि दुनिया के नेतागण इस संबंध में पर्याप्त सचेत हैं। वास्तव में वे
अपने आज को बचाने में इतने मुब्तिला हैं कि इसके लिए अपने कल को भी दांव पर
लगाने को तैयार हैं।
आईईए की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2010 में दुनिया की प्राथमिक ऊर्जा की
मांग में अभूतपूर्व 5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और कार्बन डायऑक्साइड का
उत्सर्जन भी उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। एजेंसी ने अगले 25 वर्षो में
वैश्विक ऊर्जा बाजार की स्थिति की समीक्षा करने का प्रयास किया है। यह
आधुनिक आर्थिक जीवन के उन विवादित क्षेत्रों का पूर्वानुमान है, जहां
न्यस्त स्वार्थो का बोलबाला है, तकनीक दुनिया के स्वरूप को बदलती जा रही है
और निजी जीवनशैली का चयन भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। इसके अलावा
भू-राजनीतिक समस्याएं भी हैं, जैसे कि मध्यपूर्व की उथलपुथल।
आईईए शालीन और विचारपूर्ण है और अतिरंजित रिपोर्टो पर वह ज्यादा ध्यान नहीं
देती। कुछ अर्थशास्त्रियों का भले ही यह मत हो कि आईईए ने तेल की कीमतों
का थोड़ा कम अनुमान लगाया है, लेकिन उसकी रिपोर्ट का सबसे विशेष पहलू यह है
कि वह ग्लोबल वार्मिग के परिप्रेक्ष्य में ऊर्जा नीति की संभावनाओं पर
विचार करती है।
रिपोर्ट कहती है : ‘इस बात के ज्यादा संकेत नजर नहीं आ रहे कि ऊर्जा के
संबंध में वैश्विक प्रवृत्तियों में जिन बदलावों की सख्त दरकार है, उन्हें
कहीं अमल मेंलाया जा रहा हो। ईंधन के अनाप-शनाप उपभोग को बढ़ावा देने वाली
सब्सिडी 400 अरब डॉलर तक पहुंच गई हैं। एनर्जी इफिशियंसी बढ़ाने की अनेक
देशों की प्राथमिकता के बावजूद एनर्जी इंटेंसिटी लगातार दूसरे वर्ष निम्न
स्तर पर रही है।’
प्राकृतिक आपदाओं व राजनीतिक संकटों का भी इसमें एक अहम योगदान रहा है।
इनके कारण ऊर्जा प्रदाय प्रभावित हुआ है और सरकारों का ध्यान भी अपनी ऊर्जा
नीति से हटा है। आईईए के निष्कर्ष चिंता में डाल देने वाले हैं : ‘यदि
वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को नियंत्रित करना है तो अधिक विलंब करना
उचित नहीं होगा।’ चौकस हो जाने की डेडलाइन भी अब ज्यादा दूर नहीं है।
2017 तक कार्बन उत्सर्जन पर कठोर नियंत्रण लगाना अनिवार्य है, क्योंकि यदि
इस तरह के किसी अंतरराष्ट्रीय अनुबंध पर सहमति नहीं बनी तो संभावनाओं के
दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। विशेषज्ञों का मत है कि पूर्व औद्योगिक
काल में वैश्विक तापमान मौजूदा तापमान से दो डिग्री सेल्सियस कम था। पुन:
उस स्थिति के आसपास भी पहुंचने के लिए बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन पर
अंकुश लगाना होगा। यदि वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की और
बढ़ोतरी होती है तो हमारी धरती पर जीवन की स्थितियां हमेशा के लिए बदलकर रह
जाएंगी।
आईईए की रिपोर्ट का स्पष्ट संकेत है कि दुनिया संकट की स्थिति की ओर अग्रसर
हो रही है। यदि एक नया ‘नीतिगत परिदृश्य’ रचना है तो इसके लिए सरकारों को
सतर्कतापूर्वक अपनी प्रतिबद्धताएं निर्धारित करनी होंगी। बढ़ती आबादी और
बढ़ती विकास दरों को देखते हुए यह एक बहुत विकट चुनौती होगी। कच्चे तेल की
बढ़ती खपत के मद्देनजर प्राकृतिक गैस, जैविक ईंधन और ऊर्जा के अन्य
परंपरागत स्रोतों पर निर्भरता बढ़ाना जरूरी है। ऊर्जा बाजार की गतिशीलता
विकासशील देशों में स्थानांतरित होगी। अकेला चीन ही दुनिया के सबसे बड़े
ऊर्जा उपभोक्ता के रूप में अपनी स्थिति को लगातार मजबूत करता जा रहा है।
आज चीन अमेरिका की तुलना में 70 फीसदी अधिक ऊर्जा का उपभोग कर रहा है, जबकि
उसकी प्रति व्यक्ति आय अमेरिका की तुलना में आधी ही है। इसी दौरान दुनिया
की आबादी में होने वाली बढ़ोतरी में 90 फीसदी योगदान उन देशों का होगा, जो
समृद्ध औद्योगिक देशों की श्रेणी में नहीं आते हैं। जाहिर है, आगामी 25
वर्षो में इन देशों की ऊर्जा की मांग में भी भारी मात्रा में इजाफा होने जा
रहा है।
विडंबना यह है कि यदि नए ‘नीतिगत परिदृश्य’ का निर्माण कर भी लिया जाता है,
तो भी औसत वैश्विक तापमान 3.5 डिग्री तक बढ़ जाएगा। इसकी वजह यह है कि
मौजूदा स्थिति के तहत वैश्विक तापमान में 6 डिग्री तक की बढ़ोतरी संभावित
है। यदि यही स्थिति रही तो नर्क की हमारी परंपरागत परिकल्पनाएं पृथ्वी पर
साकार हो सकती हैं।
अलबत्ताआईईएने जरूर तापमान में वृद्धि को दो डिग्री तक सीमित करने के लिए
कुछ उपाय सुझाए हैं, लेकिन उन्हें अमल में लाने के लिए कठोर अनुशासन का
पालन करना होगा और ऊर्जा नीति में नए सिरे से निवेश करना होगा। एजेंसी का
अनुमान है कि वर्ष 2030 तक ऊर्जा क्षेत्र में 48 अरब डॉलर का निवेश करना
होगा, जबकि आज महज 9 अरब डॉलर का ही निवेश किया जा रहा है। – लेखक विश्वबैंक के पूर्व मैनेजिंग एडिटर व प्लेनवर्डस मीडिया के एडिटर इन चीफ हैं।
के लिए यह एक चुनौती भरा समय है। आम जनता महंगाई और बेरोजगारी की समस्या से
जूझ रही है और व्यवसाय जगत करों की ऊंची दरों और मांग में आई कमी से
संघर्ष कर रहा है, क्योंकि उपभोक्ता खर्च करने का साहस नहीं जुटा पा रहे
हैं। वैश्विक बाजार किसी रोलरकोस्टर पर सवार होकर एक संकट से दूसरे संकट तक
की यात्रा कर रहा है।
यूनान, इटली, यूरो संकट, बलरुस्कोनी का स्वांग, यूरोजोन की राजनीतिक-आर्थिक
समस्याओं से जूझ रहे यूरोकेट्र्स के बदहवास चेहरे और दुनिया के तथाकथित
जी20 नेताओं की यह समझने में नाकामी कि शिखर सम्मेलन का मतलब फोटो खिंचवाने
के अलावा भी कुछ होता है, इसके लिए जिम्मेदार है। बहुत कम राजनेता ऐसे
हैं, जो दूरगामी दृष्टि का परिचय दे पा रहे हैं।
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) द्वारा हाल ही में वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक
२क्११ का प्रकाशन किया गया है और इस रिपोर्ट में हर उस व्यक्ति की दिलचस्पी
होनी चाहिए, जिसे अपने बच्चों के भविष्य की फिक्र है। दोटूक शब्दों में
कहें तो पर्यावरण में हो रहे परिवर्तनों के कारण दुनिया एक विराट संकट की
ओर अग्रसर हो रही है।
२७ नवंबर से डरबन में पर्यावरण वार्ताओं का एक और दौर शुरू होने जा रहा है।
आईईए की रिपोर्ट डरबन वार्ता के लिए खतरे की घंटी होनी चाहिए, लेकिन लगता
नहीं कि दुनिया के नेतागण इस संबंध में पर्याप्त सचेत हैं। वास्तव में वे
अपने आज को बचाने में इतने मुब्तिला हैं कि इसके लिए अपने कल को भी दांव पर
लगाने को तैयार हैं।
आईईए की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2010 में दुनिया की प्राथमिक ऊर्जा की
मांग में अभूतपूर्व 5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और कार्बन डायऑक्साइड का
उत्सर्जन भी उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। एजेंसी ने अगले 25 वर्षो में
वैश्विक ऊर्जा बाजार की स्थिति की समीक्षा करने का प्रयास किया है। यह
आधुनिक आर्थिक जीवन के उन विवादित क्षेत्रों का पूर्वानुमान है, जहां
न्यस्त स्वार्थो का बोलबाला है, तकनीक दुनिया के स्वरूप को बदलती जा रही है
और निजी जीवनशैली का चयन भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। इसके अलावा
भू-राजनीतिक समस्याएं भी हैं, जैसे कि मध्यपूर्व की उथलपुथल।
आईईए शालीन और विचारपूर्ण है और अतिरंजित रिपोर्टो पर वह ज्यादा ध्यान नहीं
देती। कुछ अर्थशास्त्रियों का भले ही यह मत हो कि आईईए ने तेल की कीमतों
का थोड़ा कम अनुमान लगाया है, लेकिन उसकी रिपोर्ट का सबसे विशेष पहलू यह है
कि वह ग्लोबल वार्मिग के परिप्रेक्ष्य में ऊर्जा नीति की संभावनाओं पर
विचार करती है।
रिपोर्ट कहती है : ‘इस बात के ज्यादा संकेत नजर नहीं आ रहे कि ऊर्जा के
संबंध में वैश्विक प्रवृत्तियों में जिन बदलावों की सख्त दरकार है, उन्हें
कहीं अमल मेंलाया जा रहा हो। ईंधन के अनाप-शनाप उपभोग को बढ़ावा देने वाली
सब्सिडी 400 अरब डॉलर तक पहुंच गई हैं। एनर्जी इफिशियंसी बढ़ाने की अनेक
देशों की प्राथमिकता के बावजूद एनर्जी इंटेंसिटी लगातार दूसरे वर्ष निम्न
स्तर पर रही है।’
प्राकृतिक आपदाओं व राजनीतिक संकटों का भी इसमें एक अहम योगदान रहा है।
इनके कारण ऊर्जा प्रदाय प्रभावित हुआ है और सरकारों का ध्यान भी अपनी ऊर्जा
नीति से हटा है। आईईए के निष्कर्ष चिंता में डाल देने वाले हैं : ‘यदि
वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को नियंत्रित करना है तो अधिक विलंब करना
उचित नहीं होगा।’ चौकस हो जाने की डेडलाइन भी अब ज्यादा दूर नहीं है।
2017 तक कार्बन उत्सर्जन पर कठोर नियंत्रण लगाना अनिवार्य है, क्योंकि यदि
इस तरह के किसी अंतरराष्ट्रीय अनुबंध पर सहमति नहीं बनी तो संभावनाओं के
दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। विशेषज्ञों का मत है कि पूर्व औद्योगिक
काल में वैश्विक तापमान मौजूदा तापमान से दो डिग्री सेल्सियस कम था। पुन:
उस स्थिति के आसपास भी पहुंचने के लिए बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन पर
अंकुश लगाना होगा। यदि वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की और
बढ़ोतरी होती है तो हमारी धरती पर जीवन की स्थितियां हमेशा के लिए बदलकर रह
जाएंगी।
आईईए की रिपोर्ट का स्पष्ट संकेत है कि दुनिया संकट की स्थिति की ओर अग्रसर
हो रही है। यदि एक नया ‘नीतिगत परिदृश्य’ रचना है तो इसके लिए सरकारों को
सतर्कतापूर्वक अपनी प्रतिबद्धताएं निर्धारित करनी होंगी। बढ़ती आबादी और
बढ़ती विकास दरों को देखते हुए यह एक बहुत विकट चुनौती होगी। कच्चे तेल की
बढ़ती खपत के मद्देनजर प्राकृतिक गैस, जैविक ईंधन और ऊर्जा के अन्य
परंपरागत स्रोतों पर निर्भरता बढ़ाना जरूरी है। ऊर्जा बाजार की गतिशीलता
विकासशील देशों में स्थानांतरित होगी। अकेला चीन ही दुनिया के सबसे बड़े
ऊर्जा उपभोक्ता के रूप में अपनी स्थिति को लगातार मजबूत करता जा रहा है।
आज चीन अमेरिका की तुलना में 70 फीसदी अधिक ऊर्जा का उपभोग कर रहा है, जबकि
उसकी प्रति व्यक्ति आय अमेरिका की तुलना में आधी ही है। इसी दौरान दुनिया
की आबादी में होने वाली बढ़ोतरी में 90 फीसदी योगदान उन देशों का होगा, जो
समृद्ध औद्योगिक देशों की श्रेणी में नहीं आते हैं। जाहिर है, आगामी 25
वर्षो में इन देशों की ऊर्जा की मांग में भी भारी मात्रा में इजाफा होने जा
रहा है।
विडंबना यह है कि यदि नए ‘नीतिगत परिदृश्य’ का निर्माण कर भी लिया जाता है,
तो भी औसत वैश्विक तापमान 3.5 डिग्री तक बढ़ जाएगा। इसकी वजह यह है कि
मौजूदा स्थिति के तहत वैश्विक तापमान में 6 डिग्री तक की बढ़ोतरी संभावित
है। यदि यही स्थिति रही तो नर्क की हमारी परंपरागत परिकल्पनाएं पृथ्वी पर
साकार हो सकती हैं।
अलबत्ताआईईएने जरूर तापमान में वृद्धि को दो डिग्री तक सीमित करने के लिए
कुछ उपाय सुझाए हैं, लेकिन उन्हें अमल में लाने के लिए कठोर अनुशासन का
पालन करना होगा और ऊर्जा नीति में नए सिरे से निवेश करना होगा। एजेंसी का
अनुमान है कि वर्ष 2030 तक ऊर्जा क्षेत्र में 48 अरब डॉलर का निवेश करना
होगा, जबकि आज महज 9 अरब डॉलर का ही निवेश किया जा रहा है। – लेखक विश्वबैंक के पूर्व मैनेजिंग एडिटर व प्लेनवर्डस मीडिया के एडिटर इन चीफ हैं।