बांटने का जो प्रस्ताव पारित किया है, वह एक अच्छा और स्वागतयोग्य कदम है।
अमेरिका जैसा देश, जिसकी आबादी 30 करोड़ है, वहां 50 राज्य हैं। दूसरी ओर
हमारे देश की आबादी अब 121 करोड़ के पार हो गई है, लेकिन हमारे यहां केवल
28 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश हैं। गौर करने वाली बात है कि अमेरिका
की जनसंख्या से हमारे देश की जनसंख्या तो चार गुना है, लेकिन राज्यों की
संख्या अमेरिका की तुलना में करीब आधी है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा
में पारित राज्य विभाजन के प्रस्ताव को इसी रोशनी में देखना चाहिए। छोटे
राज्यों की मांग या गठन सही सोच को प्रतिबिंबित करता है। पिछली शताब्दी के
पचास के दशक में भाषा के आधार पर व्यापक रूप से राज्यों का पुनर्गठन किया
गया था, लेकिन उत्तर-पूर्व के राज्यों का गठन लोक संस्कृति के आधार पर किया
गया। अब परिस्थितियां बदल गई हैं।
आज आर्थिक और प्रशासनिक मुद्दे
महत्वपूर्ण हो गए हैं। वर्ष 2000 में देश में तीन नए राज्यों का गठन किया
गया था-उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, बिहार से झारखंड और मध्य प्रदेश से
छत्तीसगढ़। इन तीनों राज्यों के गठन के पीछे भाषा का कोई आधार नहीं था,
क्योंकि उत्तर प्रदेश में हिंदी बोली जाती है और उत्तराखंड में भी हिंदी
बोली जाती है। यही बात छत्तीसगढ़ और झारखंड पर भी लागू होती है। इन तीनों
नए राज्यों के गठन के पीछे मुख्य मुद्दा प्रशासनिक और आर्थिक था।
इसलिए
अब राज्यों के गठन में भाषा का कोई आधार नहीं है, बल्कि इसके पीछे असली
कारण भौगोलिक आकार और असमान विकास है। इसी आधार पर उत्तर प्रदेश को चार
राज्यों में बांटना उचित होगा। इससे इन हिस्सों का आर्थिक विकास हो सकेगा।
उदाहरण के तौर पर, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के निर्माण के बाद
क्रमशः रांची, रायपुर और देहरादून का विकास हुआ है। ये शहर राजनीतिक और
प्रशासनिक रूप से महत्वपूर्ण हो गए हैं।
जाहिर है, अगर उत्तर प्रदेश
को चार राज्यों में विभाजित किया जाता है, तो चार शहरों को राजधानी का भी
दरजा मिलेगा, जिससे वहां राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियां तेज होंगी।
छोटे
राज्यों में वहां के लोगों का अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मामलों के
ऊपर नियंत्रण बढ़ जाता है। उनकी आवाज सुनी जाती है। बड़े राज्यों में
दूरस्थ क्षेत्रों की आवाजें प्रायः अनसुनी रह जाती हैं।
उत्तर
प्रदेश विधानसभा में इस प्रस्ताव को पारित करने के तरीके और उसके पीछे की
राजनीति से इतर छोटे राज्यों में विकास की संभावनाओं पर गौर करने की जरूरत
है। इससे शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच संतुलन बनाया जा सकता है। छोटे
राज्यों के बन जाने से इन इलाके के लोगों का प्रबंधन होगा, जिससे
अर्थव्यवस्था की उन्नति की संभावना बढ़ जाएगी।
बहरहाल, छोटे राज्यों
के गठन के खिलाफ यह दलील दी जा सकती है कि झारखंड या कुछ अन्य छोटे
राज्यों का विकास नहीं हो पाया। झारखंड का एक पूर्व मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार
के गंभीर आरोप में जेल में है और राज्य में भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसी
तरह छोटे राज्यों के विरोधी छत्तीसगढ़ के बारे में कहते हैं कि राज्य बनने
के बाद वहां माओवादी समस्या बढ़ी है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है।
इससे
इनकार नहीं किया जा सकता कि झारखंड जिस वक्त बिहार का हिस्सा था, तब भी
वहां भ्रष्टाचार था। इसी तरह छत्तीसगढ़ जब मध्य प्रदेश का हिस्सा था, तब भी
वहां माओवाद था। इसलिए इसमें कुछ नया नहीं है। ऐसा नहीं है कि अगर ये
राज्य नहीं बनते, तो ये समस्याएं खत्म हो जातीं। हमें यह स्वीकार करना
चाहिए और तैयार भी रहना चाहिए कि, आने वाले दिनों में छोटे राज्यों की
मांगें और तेजी से बढ़ेंगी और इन मांगों पर गौर कर नए राज्य भी बनेंगे।
मसलन,
आंध्र प्रदेश से तेलंगाना, पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड, असम से बोडो लैंड,
महाराष्ट्र से विदर्भ जैसे राज्य बन सकते हैं। छोटे राज्यों में आर्थिक
विकास की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, गोवा और केरल इसके उदाहरण हैं।
छोटे
राज्यों में प्रशासन अच्छा होता है। इस समय उत्तर प्रदेश विशाल आकार के
कारण आर्थिक विकास के मामले में तो पिछड़ता ही जा रहा है, बल्कि
कानून-व्यवस्था को नियंत्रित करने की चुनौतियां भी बनी रहती हैं। अगर राज्य
का बंटवारा हो जाता है, तो निश्चय ही प्रशासनिक क्षमता में सुधार आएगा।
उत्तर प्रदेश का केवल एक ही हिस्सा ऐसा है, जिसका आर्थिक विकास हुआ है और
वह है पश्चिमी उत्तर प्रदेश। दूसरी ओर बुंदेलखंड का वह इलाका है, जहां से
निरंतर अकाल और बदहाली की खबरें आती हैं।
उत्तर प्रदेश की आबादी
तकरीबन 20 करोड़ है। यदि इसे एक पृथक राष्ट्र के रूप में देखा जाए, तो आज
वह दुनिया का छठे नंबर का देश होगा। यह आंकड़ा इस विशालकाय राज्य के
प्रशासन की चुनौतियों को समझने के लिए पर्याप्त है। इस राज्य को चार पृथक
राज्यों में बांटने की सोच एक व्यावहारिक सोच है।