न्यूनतम समर्थन मूल्यों का संदेश- सुधीर पंवार

पिछले दिनों केंद्र्र सरकार ने कृषि लागत और मूल्य आयोग की अनुशंसाओं के
आधार पर 2011-12 के लिए रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा की।
इस घोषणा में थोड़ी देरी अवश्य हुई है, पर किसानों के पास अब भी पर्याप्त
समय है कि वे इन मूल्यों के आधार पर फसलों की बुवाई का निर्णय ले सकें।

वर्तमान
में कृषि उत्पादों की आवश्यकता एवं उत्पादन में गंभीर असंतुलन की वजह से
एक ओर तो अधिक उत्पादन के कारण कुछ फसलों के बाजार मूल्य लागत मूल्य से भी
नीचे हैं, दूसरी ओर कुछ फसलों के कम उत्पादन के कारण खाद्य महंगाई पिछले
दिनों 12.21 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई। इससे न केवल आम जनता त्रस्त है,
बल्कि देश का आर्थिक विकास भी प्रभावित हो रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के
जरिये सरकार ने स्पष्ट संदेश देने का प्रयास किया है कि देश की तात्कालिक
आवश्यकताएं क्या हैं और वह किन फसलों को प्रोत्साहन देना चाहती है।

लागत
मूल्य में सामान्य रूप से समान वृद्धि के बाद भी सरकार ने विभिन्न फसलों
के मूल्यों में नौ से 38 प्रतिशत की वृद्धि की है। सबसे कम वृद्धि गेहूं के
मूल्यों में की गई है। मूल्य निर्धारण के लिए आयोजित बैठक में गेहूं
उत्पादक राज्यों-पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र ने 30
प्रतिशत वृद्धि की मांग की थी। केंद्र सरकार ने इसमें मात्र 9.8 प्रतिशत की
वृद्धि कर यह साफ कर दिया है कि वह इस वर्ष गेहूं की खेती को प्रोत्साहित
नहीं करना चाहती। गत वर्ष के रिकॉर्ड उत्पादन एवं स्टॉक को देखते हुए शायद
यह बहुत गलत भी नहीं है।

मसूर एवं चने के मूल्यों में क्रमशः 25
एवं 33 प्रतिशत की वृद्धि के कई कारण हो सकते हैं। पहला तो यह कि सरकार
खाद्य महंगाई कम करने के दीर्घकालिक उपायों के तहत दालों के उत्पादन पर
विशेष ध्यान दे रही है। बजट में भी इसके लिए विशेष व्यवस्था की गई थी।
दूसरा कारण खरीफ दालों के क्षेत्रफल में होनेवाली कमी है, जिस कारण इस बार
दालों में गत वर्ष के मुकाबले सात लाख टन की कमी अनुमानित है। सरकार इसकी
भरपाई रबी सीजन की दालों का क्षेत्रफल बढ़ाकर करना चाहती है। जौ के दामों
में 25 प्रतिशत की वृद्धि से सरकार ने संकेत दिया है कि वह मोटे अनाज की
खेती को प्रोत्साहित करना चाहती है, ताकि वह मुख्य खाद्य पदार्थ बने तथा
लोगों को संतुलित पोषण प्राप्त हो। इस वर्ष सर्वाधिक वृद्धि सरसों एवं
कुसुम के मूल्यों में की गई है, जिसे क्रमशः 35 एवं 38 प्रतिशत बढ़ाया गया
है। यह वृद्धि विगत कई वर्षों में सर्वाधिक है। ये खाद्य तेलों के
महत्वपूर्ण स्रोत हैं, लिहाजा इनके अधिक उत्पादन से खाद्य महंगाई में
निश्चित ही कमी आएगी।

कुछ आर्थिक विशेषज्ञ दोहरे अंकों की खाद्य
महंगाई के समय न्यूनतम समर्थन मूल्यों में इस वृद्धि की आलोचना करते हुए यह
तर्क दे रहे हैं कि इससे महंगाई और बढ़ेगी। वे भूल रहे हैं कि सरकारी
आंकड़ों के हिसाब से ही पिछले तीन-चार वर्षों में खेती के लागत मूल्यों में
अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पोषण आधारित सबसिडी योजना लागू होनेके बाद
फॉस्फेट उर्वरक, विशेषकर डीएपी के दामों में लगभग शत प्रतिशत तथा यूरिया के
दामों में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेबर इंस्टीट्यूट, शिमला की
रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में मजदूरी में न्यूनतम 50 प्रतिशत की
वृद्धि हुई है। केरल, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो यह
वृद्धि 300 प्रतिशत तक है। इसके अलावा डीजल के दामों में भी 16 प्रतिशत की
वृद्धि हुई है। लागत मूल्य में अनुपातिक वृद्धि न होने से किसान क्षुब्ध
हैं, जिससे उत्पादन प्रभावित हो सकता है। आंध्र प्रदेश में धान किसानों
द्वारा ‘क्रॉप हॉलीडे’ के माध्यम से विरोध इसी का परिचायक है।

वर्तमान
मूल्य वृद्धि की सिफारिश इस तथ्य की स्वीकारोक्ति है कि खेती का लागत
मूल्य बढ़ा है तथा महंगाई नियंत्रित करने के लिए बाजार मूल्य से इसका
सामंजस्य आवश्यक है। आयोग ने उपभोक्ता एवं बाजार के साथ किसानों के हितों
का भी ध्यान रखा है। इससे किसानों तथा बाजार को एक दिशा-निर्देश जरूर
मिलेगा। सरकार को समर्थन मूल्य में वृद्धि के साथ-साथ कृषि उत्पादों को
खरीदने की उचित व्यवस्था भी करनी होगी। किसानों को भी समझना होगा कि सरकारी
खरीद की अपनी सीमाएं हैं तथा अंततः बाजार ही किसी चीज का मूल्य निर्धारित
करता है।

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