फैलाने के उद्देश्य से वर्ष 2010-11 को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष
घोषित करने के बावजूद भारत की जैव संपदा को पश्चिमी देश लूट रहे हैं। हमारी
सरकारों की उदासीनता पश्चिमी देशों का हौसला बढ़ा रही है।
भारत
समेत अन्य विकासशील देशों ने इसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंच पर आवाज उठाई और
जैविक संपदा के संरक्षण और उपयोग के संबंध में अंतरराष्ट्रीय फ्रेमवर्क
में कानूनी करार करने के लिए प्रस्ताव भी रखे। लेकिन विकसित देश किसी भी
प्रकार के कानूनी करार या प्रोटोकॉल का विरोध करते रहे। अभी भी दोनों
पक्षों के बीच वार्ताओं का दौर जारी है, जिनके निष्कर्षों को जापान के
नागोया नगर में होनेवाली बैठक में प्रोटोकाल के रूप में अपनाए जाने की
संभावना है।
1992 में रिओ डी जेनिरियो के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में
जैविक संपदा विवादों के सभी पहलुओं के संबंध में एक व्यापक वैश्विक समझौता
होना था। समझौते में संप्रभुता संपन्न देशों के जैविक संपदा अधिकार की
पुष्टि थी, जिसके तीन मुख्य उद्देश्य थे-जैविक विविधता का संरक्षण, जैविक
संपदा का अनवरत उपयोग और अनुवांशिक संसाधनों के लाभ का उचित और समानतापूर्ण
वितरण।
लेकिन वार्ताओं के कई दौर के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
किसी प्रकार की रूपरेखा उभरकर नहीं आई, और कोई परिणाम नहीं निकल पाया। अतः
भारत ने 2002 में जैविक विविधता अधिनियम के माध्यम से डिजिटल लाइब्रेरी
में पारंपरिक ज्ञान के डेटाबेस (सांख्यिकी आधार) की स्थापना के लिए कदम
उठाए। उल्लेखनीय है कि सेंटर फॉर इंडियन साइंटिफिक रिसर्च द्वारा इस
लाइब्रेरी में पिछले 10 वर्षों में आयुर्वेदिक, सिद्ध और युनानी पद्धतियों
की दो लाख से अधिक यौगिक विधियां सूचीबद्ध की गई है।
सबसे खतरनाक
हमला किसान, खेत, जंगल, जड़ी-बुटियां और इनसे जुड़े हमारे हजारों वर्ष
पुराने ज्ञान पर हुआ है। देहरादून स्थित विज्ञान टेक्नोलॉजी और पर्यावरण
अनुसंधान संस्थान द्वारा किए अध्ययन के अनुसार, ऐसी सौ वनस्पतियों का पता
चला है जिनके पेटेंट अमरीकी और यूरोपीय कंपनियां प्राप्त कर चुकी हैं। सबसे
ज्यादा पेटेंट अमरीकी कंपनियों ने हासिल किए।
इस लूट में जापान, कनाडा,
फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन भी पीछे नहीं रहे। जिन वनस्पतियों के पेटेंट इन
विदेशी कंपनियों ने हासिल किए हैं, उनका हमारे देश में व्यापक रूप में
प्रयोग किया जाता है। जिस गति से हमारे देशज ज्ञान-विज्ञान की लूट हो रही
है और जिस तरह से विश्व व्यापार संगठन बौद्धिक संपदा अधिकार दे रहे हैं, वह
हमारे देश की आयुर्वेदिक परंपरा के लिए खतरनाक है। हम अपने पड़ोसी
श्रीलंका से भी नहीं सीख सके, जिसने आयुर्वेद को राष्ट्रीय चिकित्सा का
दरजा दिया है।
महर्षि चरक ने आयुर्वेद में सतत शोध की महत्ता बताई
थी, लेकिन हमारे देश में न तो नए शोध पर ध्यान दिया गया और न ही वनस्पतियों
के संरक्षण की ठोस नीति बनाई गई। अब तक चैदह हजार वनस्पतियों का पेटेंट
किसी ने नहीं करवाया है। यदि सरकार और चिकित्सा जगत से जुड़ी अनुसंधान
संस्थाएं इस चुनौती से बेखबर रहीं, तो यह भी विदेशियों के हाथ में चली
जाएगी।
सरकार और वनस्पति प्रेमियों की सामूहिक कोशिश ही भारतीय
वनस्पतियों को बचा सकती है। इसके लिए एक ऐसासंस्थान बनाए जाने की जरूरत
है, जो वनस्पतियों को विदेश जाने से न केवल रोके, बल्कि उस पर नए शोध भी
करवाए और उसके पेटेंट में दिलचस्पी ले। ग्रामीण किसानों को भी वनस्पतियों
के औषधीय गुणों की जानकारी देने की जरूरत है। इसके अलावा औषधि निर्माण
संस्थानों को भी जिम्मेदार होना पड़ेगा, ताकि मिलावट को रोका जा सके। यदि
समय रहते वनस्पति संपदा और आयुर्वेद पद्धति को संरक्षण नहीं दिया गया, तो
हम विरासत में मिले पारंपरिक ज्ञान से भी वंचित हो जाएंगे।
(जाने-माने
अर्थशास्त्री और अमर उजाला के लेखक डॉ. विष्णु दत्त नागर का आठ अक्तूबर की
शाम दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। एक दिन पहले ही उन्होंने यह लेख
भेजा था।)