देश
के ग्रामीण इलाकों के प्राथमिक स्कूलों में शिक्षण और बच्?चों की
बोधगम्यता संबंधी एक अध्?ययन से पता चला है कि प्राथमिक कक्षाओं के
ज्?यादातर बच्?चे गणित और भाषायी ज्ञान दोनों में ही कुशलता के जरूरी स्?तर
से दो ग्रेड नीचे हैं। इस अध्?ययन के अनुसार बच्?चों में सही वाक्?य-रचना
की क्षमता कम होती जा रही है। यूनेस्?को और यूनिसेफ द्धारा समर्थित इस
अध्?ययन में आंध्र प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और राजस्?थान के
करीब 30 हजार बच्?चों को शामिल किया गया है।
के ग्रामीण इलाकों के प्राथमिक स्कूलों में शिक्षण और बच्?चों की
बोधगम्यता संबंधी एक अध्?ययन से पता चला है कि प्राथमिक कक्षाओं के
ज्?यादातर बच्?चे गणित और भाषायी ज्ञान दोनों में ही कुशलता के जरूरी स्?तर
से दो ग्रेड नीचे हैं। इस अध्?ययन के अनुसार बच्?चों में सही वाक्?य-रचना
की क्षमता कम होती जा रही है। यूनेस्?को और यूनिसेफ द्धारा समर्थित इस
अध्?ययन में आंध्र प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और राजस्?थान के
करीब 30 हजार बच्?चों को शामिल किया गया है।
ऐसा नहीं है कि
अध्?ययन से छनकर आए इन परिणामों से पहले अभिभावक बच्?चे की इन दिक्?कतों से
नावाकिफ रहते हों। शायद उनके दैनिक जीवन के कई घंटे इस चिंता में ही बीतते
हैं कि उनका बच्?चा अपेक्षित प्रगति नहीं कर रहा है। इस मामले में अचरज की
बात यह है कि बच्?चों की बोधगम्यता की समस्?याओं के बारे में यह स्थिति तब
है जब स्कूलों में प्रोग्रेस रिपोर्ट नामक एक स्?थायी मानक बन चुका है।
अध्?यापक-अभिभावक संघों की मीटिंग का आयोजन भी नियमित रूप से किया जाता है।
लेकिन अगर इस सबके बावजूद अध्?यापकों और अभिभावकों को इस बात का पता नहीं
चल पाता कि बच्?चा अपेक्षित प्रगति क्?यों नहीं कर पा रहा है तो इसका अर्थ
यह हुआ कि शिक्षण की तकनीक और पद्धति में कहीं कोई गहरी फांक है, जो न
अध्?यापक को दिखाई देती है और न अभिभावकों को।
आमतौर पर लोग-बाग
इसे या तो अध्?यापक की काहिली और अयोग्?यता मान लेते हैं या फिर उन्?हें
लगता है कि स्कूल में शिक्षण की सही तकनीक नहीं अपनाई जा रही। लेकिन
समस्?या को गहराई से देखें तो पता चलता है कि मसला केवल तकनीक का नहीं है।
और सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि अध्?यापक बच्?चे की समस्?या क्?यों नहीं
देख पाता। वास्?तव में, यहां सवाल यह होना चाहिए कि एक समाज के रूप में हम
शिक्षा से जो उम्?मीद करते हैं, उसके चलते क्?या कोई भी अध्यापक वाकई
बच्?चे की बोध क्षमता में कोई सार्थक बदलाव ला सकता है।
बाल
शिक्षा के संदर्भ में हमारी एक स्?थायी और सामूहिक विडंबना यह है कि बाल
बोधगम्यता को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम नहीं तय किए जाते। एक औसत स्कूल में
शिक्षण में आम तौर पर बने-बनाए सिद्धांतों को लागू करने पर ज्?यादा जोर
दिया जाता है। जबकि सीखने की पूरी प्रक्रिया इस तथ्?य से संचालित होनी
चाहिए कि बच्?चा कितना और कैसे सीख सकता है।
आमतौर पर अभिभावक
बच्?चे की शिक्षा प्रारंभ होने के पहले ही लगभग तय कर लेते हैं कि उसे
भविष्?य में क्?या बनाना है। यह बात शायद ही कभी उनके जेहन में दस्?तक देती
हो कि इस प्रश्?न को बच्?चे के सहज विकास पर छोड़ दिया जाए, ताकि बच्?चा
अपनी अंतर्निहित क्षमता के अनुसार विकास कर सके। जाहिर है कि माता-पिता की
इच्?छा बच्?चे के ऊपर एक दबाव बना देती है, जिससे उसका सहज और मुक्?तबोध
मारा जाता है। एक तरह से भाषा के बर्ताव और उसमें अपेक्षित दक्षता हासिल
करने की दिक्?कतें यहीं से शुरू होती हैं। बाल मनोविज्ञान में यह तथ्?य
सिद्ध हो चुका है कि बच्?चे का बोध अपनी मातृभाषा में सबसे बेहतर ढंग से
निखरता है, क्?योंकि वह स्?कूल के अलावा अपने घर और आसपास के परिवेश से भी
सीखता है, इसलिए शुरुआती स्?तर पर उसकी शिक्षा का माध्?यम मातृभाषा ही होनी
चाहिए, लेकिन इसकी परवाह किए बगैर उसे अंग्रजी की घुट्टी पिलाई जाती है।
पराई भाषा के प्रति यह अनिवार्यता बच्?चे की बोधगम्यता को लगातार कुंद
करती जाती है। कहना न होगा कि उक्त अध्ययन से जो बात सामने आई हैं, वह दो
चार साल में घटित और विकसित होने वाली प्रवृत्ति नहीं है। असल में यह हमारे
समाज के आत्महीन मानस का परिणाम है।
अध्?ययन से छनकर आए इन परिणामों से पहले अभिभावक बच्?चे की इन दिक्?कतों से
नावाकिफ रहते हों। शायद उनके दैनिक जीवन के कई घंटे इस चिंता में ही बीतते
हैं कि उनका बच्?चा अपेक्षित प्रगति नहीं कर रहा है। इस मामले में अचरज की
बात यह है कि बच्?चों की बोधगम्यता की समस्?याओं के बारे में यह स्थिति तब
है जब स्कूलों में प्रोग्रेस रिपोर्ट नामक एक स्?थायी मानक बन चुका है।
अध्?यापक-अभिभावक संघों की मीटिंग का आयोजन भी नियमित रूप से किया जाता है।
लेकिन अगर इस सबके बावजूद अध्?यापकों और अभिभावकों को इस बात का पता नहीं
चल पाता कि बच्?चा अपेक्षित प्रगति क्?यों नहीं कर पा रहा है तो इसका अर्थ
यह हुआ कि शिक्षण की तकनीक और पद्धति में कहीं कोई गहरी फांक है, जो न
अध्?यापक को दिखाई देती है और न अभिभावकों को।
आमतौर पर लोग-बाग
इसे या तो अध्?यापक की काहिली और अयोग्?यता मान लेते हैं या फिर उन्?हें
लगता है कि स्कूल में शिक्षण की सही तकनीक नहीं अपनाई जा रही। लेकिन
समस्?या को गहराई से देखें तो पता चलता है कि मसला केवल तकनीक का नहीं है।
और सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि अध्?यापक बच्?चे की समस्?या क्?यों नहीं
देख पाता। वास्?तव में, यहां सवाल यह होना चाहिए कि एक समाज के रूप में हम
शिक्षा से जो उम्?मीद करते हैं, उसके चलते क्?या कोई भी अध्यापक वाकई
बच्?चे की बोध क्षमता में कोई सार्थक बदलाव ला सकता है।
बाल
शिक्षा के संदर्भ में हमारी एक स्?थायी और सामूहिक विडंबना यह है कि बाल
बोधगम्यता को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम नहीं तय किए जाते। एक औसत स्कूल में
शिक्षण में आम तौर पर बने-बनाए सिद्धांतों को लागू करने पर ज्?यादा जोर
दिया जाता है। जबकि सीखने की पूरी प्रक्रिया इस तथ्?य से संचालित होनी
चाहिए कि बच्?चा कितना और कैसे सीख सकता है।
आमतौर पर अभिभावक
बच्?चे की शिक्षा प्रारंभ होने के पहले ही लगभग तय कर लेते हैं कि उसे
भविष्?य में क्?या बनाना है। यह बात शायद ही कभी उनके जेहन में दस्?तक देती
हो कि इस प्रश्?न को बच्?चे के सहज विकास पर छोड़ दिया जाए, ताकि बच्?चा
अपनी अंतर्निहित क्षमता के अनुसार विकास कर सके। जाहिर है कि माता-पिता की
इच्?छा बच्?चे के ऊपर एक दबाव बना देती है, जिससे उसका सहज और मुक्?तबोध
मारा जाता है। एक तरह से भाषा के बर्ताव और उसमें अपेक्षित दक्षता हासिल
करने की दिक्?कतें यहीं से शुरू होती हैं। बाल मनोविज्ञान में यह तथ्?य
सिद्ध हो चुका है कि बच्?चे का बोध अपनी मातृभाषा में सबसे बेहतर ढंग से
निखरता है, क्?योंकि वह स्?कूल के अलावा अपने घर और आसपास के परिवेश से भी
सीखता है, इसलिए शुरुआती स्?तर पर उसकी शिक्षा का माध्?यम मातृभाषा ही होनी
चाहिए, लेकिन इसकी परवाह किए बगैर उसे अंग्रजी की घुट्टी पिलाई जाती है।
पराई भाषा के प्रति यह अनिवार्यता बच्?चे की बोधगम्यता को लगातार कुंद
करती जाती है। कहना न होगा कि उक्त अध्ययन से जो बात सामने आई हैं, वह दो
चार साल में घटित और विकसित होने वाली प्रवृत्ति नहीं है। असल में यह हमारे
समाज के आत्महीन मानस का परिणाम है।