शीशे की एक दीवार को तोड़ने के लिए कितने गुस्से की दरकार होती है? पश्चिमी लोकतंत्र में शीशे की दीवार महिला अधिकारों के संघर्ष के दौरान पक्षपात के प्रतीक में तब्दील हो गयी. महिलाएं 1970 तक एक बने बनाए ढर्रे से बाहर निकल मुख्यधारा में शामिल तो जरूर हुईं, लेकिन वहां से आगे बढ़ने का रास्ता नहीं खुलता था. यह अदृश्य दीवार उन्हें बोर्ड रूम में दाखिल होने से रोकती थी.
इसमें दाखिल होने के लिए नियमों की कोई पाबंदी आड़े नहीं आती थी. बावजूद इसके यह मुमकिन नहीं हो पाया. मुङो महसूस होता है कि इसी उपमा का दूसरा हिस्सा अपारदर्शिता नहीं है. इसके उलट आप शीशे की खिड़की के पार की दुनिया को अच्छी तरह देख सकते हैं. जाति और वर्ग हमेशा से अन्याय के वाहक रहे हैं. लेकिन सत्ता में काबिज संभ्रांत असमानता को दर्शाते हुए कुछ आडंबरों का सहारा लेते हैं. कभी आस्था और कभी अपने ही रचे कानून और आदेश के नाम पर.
लोकतंत्र ने एक कहीं बड़ी पारदर्शिता का आश्वासन दिया. शायद ऊपर के पायदान पर रहने वालों और नीचे के पायदान पर रहने वाले लोगों के बीच असमानता तब ज्यादा सहनीय थी जब दुनिया एक अभेद्य लोहे की दीवार से बंटी हुई थी. आपको कम पीड़ा होती है, जब आप इस चीज से अनभिज्ञ होते हैं, कि आपको किन चीजों से वंचित किया जा रहा है. जब लोकतांत्रिक भावना इस लोहे को गला कर शीशे में बदल देती है, जब आप यह महसूस करते हैं कि निर्णय लेने वाले बोर्डरूम में मूर्खो और अयोग्य लोगों की बहुतायत है और आपकी प्रतिभा अपने न्यायोचित प्राप्य से वंचित है, तब इस शीशे की छत पर पत्थर फेंकने की इच्छा बलवती हो जाती है. लेकिन यह शीशा इतनी आसानी से चकनाचूर नहीं हो जाता है. धन अपनी रक्षा, एक किस्म की अटलता से करता है जिसे उसने सदियों की मेहनत से निर्मित किया है.
आपकी प्रतिभा आपको आसानी से धनवान बना सकती है, लेकिन आप चाहे तो कितने ही ज्यादा प्रतिभावान क्यों न हों, निर्णय लेने वाले रसूखदारों के समूह में प्रवेश पाना अतिसाधारण प्रतिभा के बल पर भी मुमकिन नहीं हो पाता. इस समूह में शामिल होने के लिए प्रतिभा के साथ ही गुस्से की भी जरूरत होती है. गुस्से को मामूली न समङों. इसे नियंत्रण में रखना आसान नहीं है. यह कई बार द्वेष और नफ़रत से सने हुए रूप में हमारे सामने आता है.
इंसानी स्वभाव सामान्यत: इतना कमजोर साबित होता है कि वह अपनी ज्यादतियों को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करता है. खासकर तब, जब किसी ताकतवर को जो प्रतिभावान भी है, यह महसूस होता है कि उसे हर कदम पर अधिकार से वंचित किया जा रहा है. ऐसा ही वाकया सामने आया है अमेरिका में. राज राजारत्नम नाम के एक श्रीलंकाई तमिल अरबपति, जिन्हें हाल ही में अमेरिकी जेल में इनसाइडर ट्रेडिंग के लिए 11 साल की सजा सुनायी गयी है और जो अपने साथ अपने भारतीय दोस्त रजत गुप्ता को भी जेल तक ला सकते हैं, गुस्से और ज्यादती के बीच के अंतर को भूल गये लगते हैं. वेहर किसी और हर चीज पर दोष मढ़ रहे हैं.
उनका सिंहली बहुत श्रीलंका में एक तमिल के रूप में जन्म, ब्रिटिश स्कूलों में सामना किये गये नस्लवादी भेदभाव, उनके व्हार्टन में पढ़े भारतीय दोस्त, वॉल स्ट्रीट (जहां राज ने अकूत संपत्ति अर्जित की) के यहूदी माफ़िया, हर कोई जो वाल स्ट्रीट जर्नल पढ़ते हुए जवान हुए, एफ़बीआई, और निश्चित तौर पर गुमनाम ‘वे’ जो हमेशा दूसरों को नष्ट करने की साजिश में लगे रहते हैं. सब पर दोष मढ़ा जा रहा है. वे इस चीज में कोई गलती महसूस नहीं करते कि गुप्ता उन्हें बोर्ड मीटिंग खत्म होने के सेकेंड भर के भीतर जरूरी जानकारियां देने के लिए फ़ोन किया करते थे. वे गुप्ता को पसंद करते हैं तो बस इसलिए कि वे सवालों की बरसात के सामने चुप्पी साधे हुए हैं.
इस बात में कोई शक नहीं कि राजारत्नम एक बेहद प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं. अगर आपको वाल स्ट्रीट में अरबपति होना है तो आपको इस तरह का प्रतिभाशाली होना ही होगा. किसी ने बताया कि अगर आप गिनती करने बैठे तो एक अरब की गिनती करने में ही 15 साल का वक्त लग जायेगा. सवाल है कि आखिर किस बिंदु पर कोई व्यक्ति अपने कमाए पैसे की गिनती करना बंद कर देता है. राज और गुप्ता के पास इतना पैसा था जिससे उनकी आने वाली कई पीढ़ियां आसानी से अपना जीवन चला सकती थीं.
आखिर क्यों राज को अपने जीवन के इस मुकाम पर इनसाइड ट्रेडिंग की जरूरत आन पड़ी? शक्तिशाली से शक्तिशाली भी छोटे से प्रलोभन पर फ़िसल सकता है. कोई पागल ही होगा जो गरीबी को अमीरी के ऊपर तवज्जो दे. या फ़िर वह संत होगा. संत पैसे के आकर्षण से बेपरवाह होते हैं. यह उनकी नैतिक ताकत तो होती ही है, लेकिन कहीं न कहीं यह भाव भी होता है कि पैसा कमाने का रास्ता अनैतिकता से होकर जाता है.
राज जैसे लोगों को पता है कि शीर्ष पर बैठे लोग अपनी नैतिकता के कारण वहां नहीं पहुंचे हैं. कहीं न कहीं उनके अंदर यह भावना होती है कि अगर अलग-अलग तिकड़मों के सहारे शीर्ष पर बैठे लोगों पर कोई आंच नहीं आयी है, तो वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते. अगर राजारत्नम को अपनी इस त्रासदी के बारे में लिखना हो तो शायद ही वे इसे अपनी बदकिस्मती से ज्यादा कुछ मानेंगे. लेकिन यह इतना सरल नहीं है. जो लोकतंत्र शीशे की दीवार को खोलती है, वही कानून के शिकंजे को कसने का भी काम करती है.
(इंडिया टुडे और हेडलाइंस टुडे के ऐडटोरियल डायरेक्टर हैं.)
इसमें दाखिल होने के लिए नियमों की कोई पाबंदी आड़े नहीं आती थी. बावजूद इसके यह मुमकिन नहीं हो पाया. मुङो महसूस होता है कि इसी उपमा का दूसरा हिस्सा अपारदर्शिता नहीं है. इसके उलट आप शीशे की खिड़की के पार की दुनिया को अच्छी तरह देख सकते हैं. जाति और वर्ग हमेशा से अन्याय के वाहक रहे हैं. लेकिन सत्ता में काबिज संभ्रांत असमानता को दर्शाते हुए कुछ आडंबरों का सहारा लेते हैं. कभी आस्था और कभी अपने ही रचे कानून और आदेश के नाम पर.
लोकतंत्र ने एक कहीं बड़ी पारदर्शिता का आश्वासन दिया. शायद ऊपर के पायदान पर रहने वालों और नीचे के पायदान पर रहने वाले लोगों के बीच असमानता तब ज्यादा सहनीय थी जब दुनिया एक अभेद्य लोहे की दीवार से बंटी हुई थी. आपको कम पीड़ा होती है, जब आप इस चीज से अनभिज्ञ होते हैं, कि आपको किन चीजों से वंचित किया जा रहा है. जब लोकतांत्रिक भावना इस लोहे को गला कर शीशे में बदल देती है, जब आप यह महसूस करते हैं कि निर्णय लेने वाले बोर्डरूम में मूर्खो और अयोग्य लोगों की बहुतायत है और आपकी प्रतिभा अपने न्यायोचित प्राप्य से वंचित है, तब इस शीशे की छत पर पत्थर फेंकने की इच्छा बलवती हो जाती है. लेकिन यह शीशा इतनी आसानी से चकनाचूर नहीं हो जाता है. धन अपनी रक्षा, एक किस्म की अटलता से करता है जिसे उसने सदियों की मेहनत से निर्मित किया है.
आपकी प्रतिभा आपको आसानी से धनवान बना सकती है, लेकिन आप चाहे तो कितने ही ज्यादा प्रतिभावान क्यों न हों, निर्णय लेने वाले रसूखदारों के समूह में प्रवेश पाना अतिसाधारण प्रतिभा के बल पर भी मुमकिन नहीं हो पाता. इस समूह में शामिल होने के लिए प्रतिभा के साथ ही गुस्से की भी जरूरत होती है. गुस्से को मामूली न समङों. इसे नियंत्रण में रखना आसान नहीं है. यह कई बार द्वेष और नफ़रत से सने हुए रूप में हमारे सामने आता है.
इंसानी स्वभाव सामान्यत: इतना कमजोर साबित होता है कि वह अपनी ज्यादतियों को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करता है. खासकर तब, जब किसी ताकतवर को जो प्रतिभावान भी है, यह महसूस होता है कि उसे हर कदम पर अधिकार से वंचित किया जा रहा है. ऐसा ही वाकया सामने आया है अमेरिका में. राज राजारत्नम नाम के एक श्रीलंकाई तमिल अरबपति, जिन्हें हाल ही में अमेरिकी जेल में इनसाइडर ट्रेडिंग के लिए 11 साल की सजा सुनायी गयी है और जो अपने साथ अपने भारतीय दोस्त रजत गुप्ता को भी जेल तक ला सकते हैं, गुस्से और ज्यादती के बीच के अंतर को भूल गये लगते हैं. वेहर किसी और हर चीज पर दोष मढ़ रहे हैं.
उनका सिंहली बहुत श्रीलंका में एक तमिल के रूप में जन्म, ब्रिटिश स्कूलों में सामना किये गये नस्लवादी भेदभाव, उनके व्हार्टन में पढ़े भारतीय दोस्त, वॉल स्ट्रीट (जहां राज ने अकूत संपत्ति अर्जित की) के यहूदी माफ़िया, हर कोई जो वाल स्ट्रीट जर्नल पढ़ते हुए जवान हुए, एफ़बीआई, और निश्चित तौर पर गुमनाम ‘वे’ जो हमेशा दूसरों को नष्ट करने की साजिश में लगे रहते हैं. सब पर दोष मढ़ा जा रहा है. वे इस चीज में कोई गलती महसूस नहीं करते कि गुप्ता उन्हें बोर्ड मीटिंग खत्म होने के सेकेंड भर के भीतर जरूरी जानकारियां देने के लिए फ़ोन किया करते थे. वे गुप्ता को पसंद करते हैं तो बस इसलिए कि वे सवालों की बरसात के सामने चुप्पी साधे हुए हैं.
इस बात में कोई शक नहीं कि राजारत्नम एक बेहद प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं. अगर आपको वाल स्ट्रीट में अरबपति होना है तो आपको इस तरह का प्रतिभाशाली होना ही होगा. किसी ने बताया कि अगर आप गिनती करने बैठे तो एक अरब की गिनती करने में ही 15 साल का वक्त लग जायेगा. सवाल है कि आखिर किस बिंदु पर कोई व्यक्ति अपने कमाए पैसे की गिनती करना बंद कर देता है. राज और गुप्ता के पास इतना पैसा था जिससे उनकी आने वाली कई पीढ़ियां आसानी से अपना जीवन चला सकती थीं.
आखिर क्यों राज को अपने जीवन के इस मुकाम पर इनसाइड ट्रेडिंग की जरूरत आन पड़ी? शक्तिशाली से शक्तिशाली भी छोटे से प्रलोभन पर फ़िसल सकता है. कोई पागल ही होगा जो गरीबी को अमीरी के ऊपर तवज्जो दे. या फ़िर वह संत होगा. संत पैसे के आकर्षण से बेपरवाह होते हैं. यह उनकी नैतिक ताकत तो होती ही है, लेकिन कहीं न कहीं यह भाव भी होता है कि पैसा कमाने का रास्ता अनैतिकता से होकर जाता है.
राज जैसे लोगों को पता है कि शीर्ष पर बैठे लोग अपनी नैतिकता के कारण वहां नहीं पहुंचे हैं. कहीं न कहीं उनके अंदर यह भावना होती है कि अगर अलग-अलग तिकड़मों के सहारे शीर्ष पर बैठे लोगों पर कोई आंच नहीं आयी है, तो वे ऐसा क्यों नहीं कर सकते. अगर राजारत्नम को अपनी इस त्रासदी के बारे में लिखना हो तो शायद ही वे इसे अपनी बदकिस्मती से ज्यादा कुछ मानेंगे. लेकिन यह इतना सरल नहीं है. जो लोकतंत्र शीशे की दीवार को खोलती है, वही कानून के शिकंजे को कसने का भी काम करती है.
(इंडिया टुडे और हेडलाइंस टुडे के ऐडटोरियल डायरेक्टर हैं.)