जनमुहिम और जमीनी राजनीति : मृणाल पाण्डे

क्रांतिकारी
बदलाव का सूत्रपात कौन करता है, नेता या आंदोलन? यह सवाल कुछ वैसा ही है,
जैसे कि यह पूछना कि पहले मुर्गी आई या अंडा? फिर भी महाभारत से उपग्रह
संचारित मीडिया के जमाने तक यह यक्ष प्रश्न पूछा जाता रहा है। युधिष्ठिर ने
तो यक्ष को यह कहकर कि नेता ही अपने समय को गढ़ता है (राजा कालस्य कारणं)
छुट्टी पा ली थी, लेकिन एकछत्र राजाओं का जमाना अब नहीं रहा। अन्ना हजारे
के अनुसार अब वोट के लिए ईमान बेचने वाले दलीय राजनेता नहीं, उन पर दबाव
बनाने वाला गैरराजनीतिक जनांदोलन ही युग बदलेगा और भ्रष्टाचार मिटाएगा।

जनता को हक है कि वह पांच बरस खत्म होने का इंतजार किए बिना अस्वीकार्य
सरकार को हटाकर दोबारा चुनावों में जाकर अप्रत्यक्ष मतदान करे और नई सरकार
चुन ले। लेकिन इसके लिए पहले मौजूदा सरकार को अपने अंतर्विरोधों से या
विपक्ष के प्रयासों से गिरना होगा। यह हो कैसे? संप्रग ने फिलहाल अपने
झगड़े सुलटा लिए हैं और भीतरी झगड़ों में फंसे प्रतिपक्ष की रुचि बिना
तैयारी चुनाव लड़ने की नहीं है।

वह अन्ना की ओट से ही सरकार पर पत्थर फेंककर खुश है। इस स्थिति को असहनीय
मानने वाले अन्ना ने जनता को अब फिर न्योता है कि कुछ नहीं तो वह इस माह के
हिसार उपचुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस के उम्मीदवार को हराकर संप्रग की
जनलोकपाल विरोधी सरकार को किस्तों में हटाना शुरू करे।

अभी कुछ ही समय पहले जनलोकपाल मसले को संसदीय समिति को सौंपे जाने और बिल
के शीत सत्र में लाने पर सरकारी आश्वासन के बाद अन्ना ने संतोष जताते हुए
अपना अनशन तोड़ दिया था। पर वह संतुष्टि टिकाऊ नहीं निकली। हिसार उपचुनावों
की पूर्व संध्या पर उनका अल्टीमेटम आया है कि सरकार शीत सत्र में उनके
भेजे जनलोकपाल बिल को जस का तस पास कराए।

यदि यह नहीं हुआ तो वे पांच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में
कांग्रेस के खिलाफ खुला प्रचार करेंगे और अल्टीमेटम की अवधि पूरी होने से
पहले ही उन्होंने 13 अक्टूबर को हिसार में हो रहे उपचुनावों में कांग्रेस
के प्रत्याशी के खिलाफ प्रचार की सीडी जारी कर अपने दल को कांग्रेसी
उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार को भेज दिया है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस से
वे यूं खफा हैं कि उसने हिसार में भाजपा समर्थित हजकां या इनेलोद के
उम्मीदवारों की तरह उनके जनलोकपाल बिल को संसद में समर्थन देने का लिखित
आश्वासन उनको नहीं दिया है।

बहुत माथापच्ची करके भी यह लेखिका समझने में असमर्थ रही कि शीतसत्र के लिए
प्रस्तावित बिलों की सूची जारी होने से भी पहले और दल विशेष के खिलाफ
चाणक्य शिखा खोलने की इतनी उतावली क्यों? जिन उम्मीदवारों ने अन्ना को
भ्रष्टाचार निरोधक बिल को समर्थन देने का लिखित आश्वासन दिया भी है, विगत
में उनकी छवि भी भ्रष्टाचार व वंशवाद को लेकर बहुत उजली नहीं रही है।

पर यह बात अन्ना से कुलदीप बिश्नोई या अजय चौटाला को अभयदान दिलाने में
बाधक कैसे नहीं बनी? स्मरणीय यह भी है कि संसद के पिछले सत्र में भाजपा
समेत लगभग सभी दलों ने जनलोकपाल मसौदे को जस का तसपारित कराने के खिलाफ
राय दर्ज कराई थी और उनकी इस पहल को अपने विशेषाधिकार क्षेत्र में
हस्तक्षेप बताया था और अब तो अन्ना यह भी मांग कर रहे हैं कि न्यायपालिका
के सदस्य भी जनलोकपाल की जद में लाए जाएं, जबकि इस पर भाजपा के वजनी नेता
अरुण जेटली अपनी असहमति दर्ज करा चुके हैं, यह तमाम बातें टीम अन्ना के
समर्थकों के बीच भी परेशान करने वाले सवाल पैदा कर रही हैं।

जनलोकपाल के पक्ष में अन्ना की मुहिम दलगत-चुनावी राजनीति से परे एक
जनांदोलन है, यह बात टीम अन्ना की गांधीवादी ब्रैंडिंग के अलावा उसे मिले
अभूतपूर्व जनसमर्थन की भी बड़ी वजहों में से एक है। पर अब टीवी पर जाकर
अन्ना कह रहे हैं कि वे अच्छे युवाओं को अपनी तरफ से आगामी चुनावों में
उतारेंगे और केजरीवाल कह रहे हैं कि अन्ना संसद से ऊपर हैं।

अब इस मुहिम को कितनी दूर तक जनसंचालित और गैर राजनीतिक माना जाए? उधर संघ
प्रमुख मोहन भागवत ने टीम अन्ना के एजेंडे को संघ द्वारा पूरी तरह से
समर्थित बताने में तनिक भी विलंब नहीं किया। इस सबसे कइयों को इस कथित
सेकुलर आंदोलन की मूल मंशा, भीड़ संचालन, मंचीय नारों की भाषा, बिंबों और
खर्चेपानी के मूल में अदृश्य संघी छाप नजर आने लगी है तो अचरज क्या? अन्ना
और उनकी टीम पर ईमान का तकाजा बनता है कि वे अपने स्टैंड तथा संघ परिवार से
संबंधों की एक अंतिम व साफ व्याख्या जनता के सामने पेश करें।

अपने बिल को जस का तस पास करवाने के लिए खुद अन्ना अगर अपनी टीम के साथ
दूसरे राजनीतिक दलों की तरह चुनावी मैदान में आकर प्रत्याशी उतारते और संसद
में सहयोगी दल खोजते हैं तो यह कोई गलत बात नहीं, बल्कि टीम अन्ना का
लोकतंत्र की डगर पर उठाया गया एक ईमानदार कदम ही माना जाएगा।

इससे बार-बार बाहर से अनशन, धरनों और नारेबाजी से संसद को ठप्प कराने और
देशव्यापी तनाव गहराने का सिलसिला खत्म होगा और टीम अन्ना को संसद के भीतर
जाकर समान विचारवालों के साथ विमर्श करने और सार्थक गठजोड़ बनाने की क्षमता
भी मिलेगी। यह कोई भी बड़ा विधायी बदलाव लाने के लिए जरूरी है। पर हां,
जहां अन्ना दूसरे दलों के हाईकमान की तरह जमीनी राजनीति में सक्रिय नजर आए,
उनका राजनीति से छह अंगुल ऊपर उड़ता आ रहा करिश्माती गांधीवादी रथ धम्म से
कठोर तर्क की चुनावी जमीन पर आ टिकेगा।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव पास हैं और सभी दलों तथा मीडिया की तमाम
शाखाओं में बरायेदस्तूर जनता का मूड भांपने और लोकप्रिय लोगों की मदद से
जनमत अपनी तरफ खींचने की होड़ मची है। पार्टियों के कई गुप्तचर भीड़ की
असली पसंद भांपने में लगे हैं, ताकि चुनावों में जहां कहीं अन्ना उनके दल
के शत्रु के शत्रु साबित हो सकते हों, उनसे प्रतिपक्षी का जमकर विरोध
करवाया जा सके।

पर जैसे-जैसे शंका और कानाफूसियों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है, युयुत्सु
दलों और टीम अन्ना के बीच विचारधारा की साफ प्रस्तुति घट रही है और मीडिया
में नाटकीय व्यक्तिपरक छीछालेदर करना ही तर्क का विकल्प बनने लगा है।
रामलीला मैदानसेउठी ऊर्जा अगर 2014 तक अहंवादिता, अर्धसत्यों और शंकाओं
से इसी तरह प्रदूषित होती रही तो जनता के बीच मोहभंग का विकट प्रवाह उमड़कर
देश में आगे किसी भी गैरराजनीतिक जनमुहिम की सफलता असंभव बना देगा।
अधिनायकवाद को ऐसे ही क्षणों की प्रतीक्षा रहती है।

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