मानवीय
अस्मिता के साथ जीवन बिताने के लिए किसी गरीब व्यक्ति को कितने पैसे की
जरूरत हो सकती है? हम जिस समय में जी रहे हैं, उसमें ऐसा कभी-कभार ही होता
है कि अखबारों के फ्रंट पेज और खबरिया चैनलों के प्राइम टाइम बुलेटिनों में
यह सवाल सुर्खियों में आया हो।
यह भी आम तौर पर नहीं होता कि इस पहेली ने मध्यवर्ग की चेतना को चुनौती दी
हो। लेकिन जब भारत के योजना आयोग ने कहा कि यदि कोई शहरी व्यक्ति एक दिन
में 32 रुपए और ग्रामीण व्यक्ति एक दिन में २६ रुपए व्यय करता है तो उसे
गरीब नहीं माना जा सकता, तब आम जनमानस में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई।
गरीबी की ऐसे न्यूनतावादी व्याख्याएं नई बात नहीं है।
वे अनेक दशकों से देश की योजनाओं और बजटिंग का एक हिस्सा रही हैं। सुविज्ञ
आधिकारिक समितियों ने उपभोग, आय और व्यय के सर्वेक्षणों के आधार पर गरीबी
का निर्धारण करते हुए मोटी-मोटी रिपोर्टे प्रकाशित की हैं। जब इन रिपोर्टो
के आधार पर योजना निर्माता यह घोषणा करते हैं कि आबादी का एक निश्चित
हिस्सा गरीब है तो लोग आम तौर पर उनके मूल्यांकन को सही ही मानते हैं।
इस स्थिति में हाल ही में तब बदलाव आया, जब गरीबी का मूल्यांकन सर्वोच्च
अदालत में बहस का विषय बन गया। दस साल पहले एक महत्वपूर्ण केस में पीयूसीएल
(पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) ने नागरिकों के लिए भोजन के कानूनी
अधिकार की मांग की थी। पिछले एक दशक में सर्वोच्च अदालत ने इस संबंध में
अनेक आदेश जारी किए हैं और भूख और कुपोषण को समाप्त करने के लिए सरकार के
वैधानिक दायित्वों में धीरे-धीरे बढ़ोतरी की है।
हाल ही में यह मामला तब सुर्खियों में आया था, जब याचिकाकर्ताओं ने अनाज
सड़ने के अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किए और सभी का ध्यान इस तरफ आकृष्ट कराया
कि भूख और गरीबी से जूझ रहे एक देश में इस तरह अनाज की बरबादी एक आपराधिक
कृत्य है। उन्होंने सुझाव दिया था कि अनाज को सड़ने देने से तो बेहतर है कि
देश के १५क् सबसे गरीब जिलों में इसे वितरित कर दिया जाए। सरकार ने कई
स्तरों पर इस सुझाव का जमकर विरोध किया। सरकार का एक तर्क यह भी था कि केवल
राज्य द्वारा सब्सिडी प्रदान किए गए खाद्य पदार्थ ही गरीब परिवारों को
वितरित किए जाने चाहिए।
तब अदालत ने सरकार से पूछा कि वह बताए कि देश में कितने गरीब परिवार हैं।
योजना आयोग ने एक शपथ पत्र प्रस्तुत करते हुए अदालत को बताया कि ग्रामीण
क्षेत्र में एक दिन में २६ रुपए और शहरी क्षेत्र में एक दिन में ३२ रुपए
खर्च करने वाले परिवार के संबंध में सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि ‘भोजन,
शिक्षा और स्वास्थ्य पर उसके द्वारा किया जाने वाला वास्तविक व्यय पर्याप्त
है।’ यह शपथ पत्र देशभर में चर्चा का विषय बन गया और न केवल न्यायाधीशों,
बल्कि देश की आम जनता को भी पहली बार सीधी-सरल भाषा में यह समझ आया कि भारत
की सरकार गरीबी का आकलन किस तरह करती है। इसी के बाद देशव्यापी आक्रोश फूट
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पड़ा।
अगर व्यावहारिक स्तर पर बात करें तो न्यूनतावादी गरीबी रेखाओं का निर्धारण
सामाजिक सुरक्षा व्ययों में राहत के लिए किया जाता रहा है, जैसे बुजुर्गो
के लिए पेंशन, स्वास्थ्य बीमा, खाद्य पदार्थो पर सब्सिडी, सोशल हाउसिंग,
नि:शुल्क स्कूल यूनिफॉर्म और कुछ राज्यों में नि:शुल्क चिकित्सा सुविधाएं।
इन सभी व्ययों को केवल उन परिवारों तक सीमित कर, जिन्हें सरकार गरीब मानती
है, सरकारी खजाने पर पड़ रहे दबाव को कम किया जाता है। ३ अक्टूबर २क्११ को
हुई एक प्रेस वार्ता में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया
और ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि ये सुविधाएं प्राप्त करने
के लिए अब गरीबी रेखा को ही आधार नहीं माना जाएगा। इस घोषणा का बड़े
पैमाने पर स्वागत किया गया था। बहरहाल, गरीबी रेखा अब भी मौजूद है और उसके
साथ जुड़ी सभी भ्रांतियां भी यथावत हैं।
गरीबी को लेकर की जाने वाली तमाम गणनाओं में सामाजिक और पर्यावरणगत आयामों
की अनदेखी कर दी जाती है। मिसाल के तौर पर लाहौल स्पीति की कल्पना करें,
जहां साल में आठ माह बर्फ रहती है। मात्र २६ रुपया रोज पर गुजारा करने की
स्थिति में वहां के लोग अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएंगे।
एक बेघर व्यक्ति को भी नित्यकर्मो से निवृत्त होने के लिए सात रुपए और रात
को किराए पर रजाई-गादी लेने के लिए तीस रुपए चुकाने पड़ते हैं। शारीरिक रूप
से अक्षम लोगों को तो और संसाधनों की दरकार होती है। योजना आयोग के आकलनों
का आधार है तेंडुलकर कमेटी।
इस कमेटी ने गणना करके यह निर्धारित किया था कि एक गरीब परिवार द्वारा
जीवन-यापन के लिए कितने रुपयों का व्यय ‘उपयुक्त’ माना जा सकता है।
अर्थशास्त्री ज्यां द्रेजे परिकलनों को न्यायोचित ठहराने वाले तर्को की
प्रकृति पर बहस करते रहे हैं।
तेंडुलकर कमेटी ने भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य पर मध्यवर्ती व्ययों की गणना
की है, लेकिन ध्यान देने का विषय यह है कि इन मध्यवर्ती व्ययों को
‘उपयुक्त’ कैसे ठहराया जा सकता है। इन परिकलनों के आधार पर तो एक दिन में
स्वास्थ्य संबंधी व्यय के लिए एक रुपया से भी कम राशि उपयुक्त है, जबकि
इतने में तो एक एस्प्रिन भी नहीं आती।
जरूरत इस बात की है कि गरीबी रेखा के संबंध में होने वाली बहसों को
अर्थशास्त्र के आंकड़ों तक ही सीमित न किया जाए, बल्कि सामाजिक न्याय व
अधिकारों की नैतिकी के आधार पर भी इनका निर्धारण किया जाए। हमारा देश
दुनिया के उन देशों में से है, जहां सामाजिक और आर्थिक विषमता बहुत अधिक
है। ऐसे में यह हमारा नैतिक दायित्व है कि हम प्रत्येक मनुष्य के वास्तविक
और समतापूर्ण महत्व का आकलन करें। सरकार और मध्य वर्ग दोनों को ही यह
स्वीकारना चाहिए कि अच्छा जीवन स्तर, पोषक आहार, साफ पेयजल, अच्छी शिक्षा
और स्वास्थ्य देश के सभी रहवासियों का समान अधिकार है।