कुछ लोग कानून से परे क्यों? : गुरचरन दास

सितंबर की उस तपती हुई दोपहर को जब मुख्य और जिला सत्र न्यायाधीश एस कुमारगुरु ने निर्णय सुनाना शुरू किया, तब धर्मपुरी (तमिलनाडु) के उस खचाखचभरे कोर्टरूम में खामोशी पसरी हुई थी। न्यायाधीश ने 3.30 बजे निर्णय सुनाना प्रारंभ किया था, लेकिन यह प्रक्रिया लगभग एक घंटे तक जारी रही, क्योंकि उन्हें उन 215 सरकारी अधिकारियों के नाम पढ़कर सुनाने थे, जिन्हें दोषी ठहराया गया था। उन 12 अधिकारियों को 17 वर्ष के कारावास की अधिकतम सजा सुनाई गई थी, जिन पर यौन दुराचार का आरोप था।

शेष 5 दुराचारियों को सात-सात साल की सजा सुनाई गई। अन्य व्यक्तियों को विभिन्न आरोपों में एक से तीन वर्ष तक की सजा मिली। दोषियों में 126 वन अधिकारी, 84 पुलिसकर्मी और 5 राजस्व अधिकारी थे। यदि 54 अन्य आरोपियों की मुकदमे के दौरान मृत्यु न हो गई होती, तो न्यायाधीश को दोषियों के नाम पढ़कर सुनाने में और समय लगता।

लगभग दो दशक पूर्व 20 जून 1992 की सुबह सरकारी अधिकारियों के चार दल वचाथी नामक एक आदिवासी गांव पहुंचे, जो सिथेरी पहाड़ों की तराई में बसा था। गांव से ही सटा हुआ है सत्यमंगलम का जंगल, जो कि वीरप्पन का गढ़ हुआ करता था। अधिकारियों ने ग्रामीणों को चौक में एक नीम के पेड़ के नीचे इकट्ठा होने को कहा और फिर तस्करी की चंदन की लकड़ियों की खोजबीन के नाम पर उन्हें प्रताड़ित करने लगे।

गांव की 18 लड़कियों, जिनमें से अधिकतर नाबालिग थीं, को वे जंगल ले गए और उनके साथ यौन दुराचार किया। रात 9 बजे तक वे गांव लौटे और यह कहते हुए 133 ग्रामीणों को बंदी बना लिया कि उनके दल ने बड़ी मात्रा में अवैध रूप से काटी गई चंदन की लकड़ियां गांव के समीप स्थित सूखी नदी के तल से जब्त की हैं।

इस तरह की घटनाओं पर क्या प्रतिक्रिया दी जाए? जब मैंने पहली बार यह खबर सुनी थी तो मैं वर्दीधारियों की इस हरकत से कांप गया था। मुझे इस बात से राहत मिली कि दोषियों को उनके कृत्य के लिए दंडित किया गया है, लेकिन मन में यह सवाल भी हमेशा बना रहा कि आखिर यह मुकदमा 19 सालों तक क्यों खिंचा।

क्या यह वारदात किसी बड़े घोटाले जितनी ही घृणित नहीं है? देश इतने समय तक चुप्पी क्यों साधे रहा? मुझे याद है, जब मैंने अश्वत्थामा द्वारा रात्रि में पांडवों की विजयी सेना के संहार की कथा सुनी थी, तब भी मैंने इसी तरह की भावना का अनुभव किया था। इस घटना के कारण महाभारत की भावदशा उदात्त नायकत्व से हटकर एक भावहीन निरपेक्षता पर केंद्रित हो गई थी।

अश्वत्थामा एक नेक युवक था, लेकिन अपने पिता द्रोण की नृशंस हत्या के बाद वह पूरी तरह परिवर्तित हो गया। जिन अधिकारियों ने 1992 में वचाथी पर धावा बोला था, उनमें भी कई नेक युवा रहे होंगे, लेकिन कुख्यात दस्यु वीरप्पन के हाथों करारी मात झेलने के बाद उनके स्वभाव में भी आमूलचूल बदलाव आ गया होगा और वे महाभारत की ही तरह प्रतिशोध के दुश्चक्र में फंस गए होंगे। आखिर वचाथी की घटना की और किस तरह व्याख्या की जाए?

६५ वर्ष की अंगम्मल, जिनकी बेटीके साथ दुराचार किया गया था, भी प्रतिशोध की भाषा बोलती हैं। वे कहती हैं : ‘यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि हमारी बेटियों के साथ ज्यादती करने वालों को जेल भेज दिया गया है।’ आधुनिक सभ्यता में प्रतिशोध की भाषा जरा अजीब जरूर लग सकती है, क्योंकि प्रतिशोध लेने का हक केवल राज्यसत्ता को ही है और उसे हम दंड कहते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि प्रतिशोध की चाह गलत है, लेकिन इसके प्रति कुछ अन्य दृष्टिकोण भी हैं।

आम जनमानस में यह धारणा पैठी हुई है कि यदि भले लोग कष्ट सहते हैं तो बुरे लोगों को इससे भी ज्यादा कष्ट सहना चाहिए। साहित्य और फिल्मों में भी खलचरित्रों को दंडित करने की चाह आम है, क्योंकि आम जनमानस इसमें एक नैतिक समतुल्यता की तलाश करता है।

इस मामले में दोषी ठहराए गए वरिष्ठ अधिकारी एम हरिकृष्णन का बयान चौंकाने वाला था। सेवानिवृत्त वन संरक्षक ने कहा कि अधिकारियों को सजा सुनाई जाना गलत है, क्योंकि वे केवल अपनी Rड्यूटीञ्ज कर रहे थे। निश्चित ही विद्वान न्यायाधीश उनके इस तर्क से सहमत नहीं हुए और उन्हें साक्ष्य मिटाने के लिए तीन वर्ष और अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(2)(1) के तहत भी तीन वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।

यहूदियों का कत्ल करने वाले नाजियों ने भी न्यूरेमबर्ग ट्रायल्स में अदालत के समक्ष यही कहा था कि वे केवल अपनी ड्यूटी कर रहे थे। लेकिन रिकृष्णन की ड्यूटी यह थी कि वे वीरप्पन को पकड़ते और चंदन की तस्करी पर रोक लगाते। उनकी ड्यूटी ग्रामीण लड़कियों के साथ यौन दुराचार करने और ग्रामीणों को प्रताड़ित करने की नहीं थी। वास्तव में हरिकृष्णन साधन और साध्य का भेद नहीं समझ पाए। अगर साधन पवित्र नहीं है तो साध्य भी पवित्र नहीं हो सकता।

वचाथी गाथा के नायकों में से एक पी षणमुगम ने कहा कि वचाथी की वारदात स्वतंत्र भारत में सत्ता के दुरुपयोग के सबसे घृणित उदाहरणों में से है। तमिल ट्राइबल पीपुल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में वे १९ सालों तक वचाथीवासियों को न्याय दिलाने के लिए अथक परिश्रम करते रहे। षणमुगम और सीपीएम के राज्य सचिव ए नल्लाशिवन के प्रयासों से ही यह मामला सर्वोच्च अदालत तक पहुंचा, जिसने सीबीआई को मामले की जांच के आदेश दिए, जबकि मद्रास हाइर्कोर्ट में उनकी अपील खारिज हो चुकी थी।

वचाथी पर धावा बोलने वाले लोग प्रभावशाली और रसूखदार थे। पीड़ित ग्रामीण गरीब व अशक्त थे। अहम सवाल यह है कि भविष्य में सत्ता के दुरुपयोग की एेसी घटनाओं को कैसे टाला जाए? यह तभी हो सकता है, जब कानून लागू कराने वाले लोग खुद को नियम-कायदों से परे न समझें।

देश के सभी लोग समान रूप से खुद को कानून के अधीन समझें, इसके लिए एक सांस्कृतिक परिवर्तन की दरकार है, खासतौर पर पुलिस व्यवस्था में। सभी बड़े सांस्कृतिक बदलाव शीर्ष से ही प्रारंभ होते हैं। शायद इसीलिए हमें अन्ना हजारे जैसे लोगों की जरूरत है। – लेखक जाने-माने स्तंभकार और साहित्यकार हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *