मुश्किल है गरीबों की पहचान? : हर्ष मंदर

यदि आप
किसी गांव में जाएं और ग्रामीणों से पूछें कि यहां रहने वाले लोगों में से
कौन गरीब हैं, तो उनके लिए इस सवाल का जवाब देना कठिन नहीं होगा। शायद वे
किसी दृष्टिहीन विधवा का नाम बताएं, या किसी बुजुर्ग दंपती की ओर इशारा
करें, जो भीख मांगकर पेट भरते हैं, या कर्ज के बोझ तले दबे किन्हीं किसानों
का उल्लेख करें।




वे गरीबों की अपनी सूची में पिछड़ी जाति के भूमिहीन खेतिहरों को भी शामिल
कर सकते हैं, जो हर साल कई महीनों तक शहर के ईंट भट्टों में काम करते हैं,
या शायद उस छोटे किसान को, जिसका जीवन अच्छे मानसून पर निर्भर है, या उन
लोगों को, जिनके बच्चे स्कूल जाने के बजाय बीड़ियां बनाते हैं।




शहर के लोग गरीबों के बारे में पूछने पर झुग्गी-झोपड़ियों या निर्माण
स्थलों या फुटपाथों का पता बताएंगे, क्योंकि कचरा बीनने वाले, मजदूरी करने
वाले, रिक्शा चलाने वाले या भीख मांगने वाले लोग कमोबेश इन्हीं जगहों पर
पाए जाते हैं।




लेकिन जब यही सवाल सरकारी अधिकारियों से पूछा जाता है तो वे ठीक जवाब देने
में नाकाम रहते हैं। ग्रामीण निर्धन परिवारों को चिह्न्ति करने के लिए वर्ष
1992, 1997 और 2002 में तीन बार आधिकारिक राष्ट्रीय सर्वेक्षण हो चुके
हैं, लेकिन खुद सरकार ही यह स्वीकारती है कि आधे से अधिक गरीबों को
चिह्न्ति नहीं किया जा सका है।




यदि आप गरीब हैं तो बहुत संभावना है कि सरकार की सूची में आप खुद का नाम न
पाएं! इसकी वजह यह है कि जब सरकार गरीबों के बारे में पूछताछ करती है तो
उसके प्रश्न प्रासंगिक या स्पष्ट नहीं होते। इन प्रश्नों के उत्तर पर ही यह
निर्भर करता है कि किसी परिवार को सस्ता अनाज या नि:शुल्क दवाइयां या बैंक
ऋण मिलेगा या नहीं।




इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि ‘सरकारी गरीबों’ की इस ‘जादुई’ फेहरिस्त में
शामिल होने के लिए हर तरफ हो-हल्ला मचा रहता है। भीषण असमानता और
भ्रष्ट-गैरजिम्मेदार अफसरशाही से ग्रस्त एक समाज में गरीबों की सूचियों का
इतना त्रुटिपूर्ण होना अप्रत्याशित नहीं है।




समस्या यहां से शुरू होती है कि सरकार उपभोग और व्यय के त्रुटिपूर्ण आकलनों
के आधार पर गरीबों की कुल संख्या का निर्धारण करती है। लेकिन जब यह सवाल
सामने आता है कि आखिर ‘कौन’ लोग गरीबों की श्रेणी में आते हैं तो सरकार
रास्ता भटक जाती है।




1992 और 1997 में हुए पहले दो राष्ट्रीय सर्वेक्षण निर्धन ग्रामीण परिवारों
की आय और उपभोग के आकलनों पर आधारित थे। लेकिन स्वरोजगार की स्थिति में आय
का आकलन करना कठिन है। यह स्थिति तब और विकट हो गई, जब गरीबों की सूची में
शामिल होने के लिए लोगों नेअपनी आय को कम करके बताना शुरू कर दिया।




2002 में गरीबी के सामाजिक-आर्थिक संकेतकों के लिए इन मानदंडों को समझदारी
का परिचय देते हुए त्याग दिया गया, लेकिन योजना आयोग द्वारा तीसरे
राष्ट्रीय सर्वेक्षण के लिए अपनाए गए 13 वास्तविक संकेतकों में से अनेक
व्यक्तिपरक और यहां तक कि मनमानीपूर्ण थे।




यदि किसी परिवार के घर की छत पक्की हो, घर में टॉयलेट सुविधा हो, बच्चे
स्कूल जाते हों और परिवार के कुछ सदस्य शिक्षित हों, यदि जरूरत के समय
परिवार को ऋण मिल जाता हो और परिवार के सदस्यों द्वारा यदा-कदा मांसाहारी
भोजन किया जाता हो तो इस बात का पूरा अंदेशा था कि उसे सब्सिडी पर मिलने
वाले अनाज या अन्य शासकीय सहायताओं के लिए पात्र न माना जाए। सर्वेक्षण ने
चरवाहों, वनाश्रित आदिवासियों और मछुआरों को अपात्र घोषित कर दिया।




अब केंद्र सरकार ग्रामीण निर्धन परिवारों को चिह्न्ति करने के लिए चौथा
राष्ट्रीय सर्वेक्षण कराने जा रही है। चूंकि यह सर्वेक्षण भी यह वचन देता
है कि वह एक ऐसा कानून पास कराएगा, जो प्रत्येक चिह्न्ति परिवार को क्रमश: 3
रुपए, 2 रुपए और 1 रुपए प्रतिकिलो की दर पर प्रतिमाह 35 किलो चावल, गेहूं
और ज्वार-बाजरा मुहैया कराएगा, इसलिए यह और भी जरूरी हो गया है कि इस बार
सर्वेक्षण में किसी तरह की कोई चूक न हो। इस सर्वेक्षण के निष्कर्षो पर ही
देश के निर्धनतम ग्रामीण परिवारों द्वारा अस्मिता के साथ अपना जीवन बिताने
की संभावनाएं निर्भर करती हैं।




मेरा मानना है कि सर्वेक्षण के दायरे में उन समृद्ध ग्रामीण परिवारों को
सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए, जिनके पास बड़ी सिंचित कृषि भूमि हो, तीन
या चार मोटरगाड़ियां हो, ट्रैक्टर, थ्रेशर, हार्वेस्टर जैसे कृषि उपकरण हों
या जिन्हें दस हजार रुपए प्रतिमाह से अधिक वेतन मिलता हो। साथ ही मैं यह
भी सुझाव देना चाहूंगा कि सर्वेक्षण में उन सभी परिवारों को स्वत: सम्मिलित
कर लिया जाए, जो स्पष्टत: सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचितों की श्रेणी में
आते हैं।




ये ऐसे परिवार हैं, जिन्हें ग्रामीण ही आसानी से चिह्न्ति कर सकते हैं। यह
निर्धारित करना कठिन है कि किस परिवार की आय कम है या कौन-सा परिवार बहुत
कम में गुजारा करता है, लेकिन यदि इसके स्थान पर यह पूछा जाए कि कौन विधवा
है, कौन अक्षम है, कौन बंधुआ मजदूर है तो सर्वेक्षण के निष्कर्षो में इतनी
अस्पष्टता नहीं होगी।




इन समूहों और वर्गो से संबद्ध अधिकांश व्यक्ति निर्धन और वंचित हैं। यदि इन
मानदंडों को लागू किया जाए तो यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सबसे
जरूरतमंद लोग इस सूची से बाहर नहीं छूटें। यही ‘सामाजिक समावेश’ नीति है।
उन व्यक्तियों और समूहों को शासकीय सहायता की प्राथमिकता के दायरे में लाना
सबसे जरूरी हैं, जिन्हें उस सहायता की सख्त दरकार है।
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विकास मामलों के वरिष्ठ विशेषज्ञ रॉबर्ट चैम्बर्स अक्सर कहते हैं कि
अधिकारी गलत फैसले इसलिए लेते हैं, क्योंकि वे निर्धनता के सबसे बड़े
विशेषज्ञों की सलाह नहीं लेते और वे हैं स्वयं निर्धनजन! यदि उनकी बात सुनी
जाए तो वे सरकार को बड़ी आसानी से बता सकते हैं कि निर्धनों की पहचान कैसे
की जाए।


(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)

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