मई की एक
तपती हुई दोपहर को मैं नई दिल्ली में योजना आयोग भवन के सामने एक विचित्र
विरोध प्रदर्शन में सम्मिलित हुआ था। प्रदर्शनकारी तख्तियां लहरा रहे थे,
जोशोखरोश से नारे लगा रहे थे, लेकिन साथ ही वे देश की शीर्ष योजना
निर्मात्री संस्था के सदस्यों के लिए कुछ ‘भेंट’ भी लेकर आए थे।
उनकी भेंट ठुकरा दी गईं और प्रदर्शनकारियों की भीड़ को पुलिस ने मामूली
झड़प के बाद तितर-बितर कर दिया। भारत में गरीबी के स्तर का अनुमान लगाने के
लिए योजना आयोग द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों के एक समूह की रिपोर्ट के
मुताबिक किसी व्यक्ति को तब गरीब माना जाएगा, जब वह वर्ष 2004-05 की मूल्य
दरों के अनुसार शहरी क्षेत्र में एक दिन में 20 रुपए से कम और ग्रामीण
क्षेत्र में 16 रुपए से कम व्यय करता है। वर्तमान मूल्य दरों के अनुसार
इसका अर्थ यह होगा कि यदि कोई व्यक्ति गांव में 23 और शहर में 29 रुपए से
अधिक व्यय करने की स्थिति में है तो उसे गरीब नहीं माना जाएगा!
‘भोजन का अधिकार’ आंदोलन के वे प्रदर्शनकारी आयोग सदस्यों के लिए जो ‘भेंट’
लेकर आए थे, वे वास्तव में गत्ते के कुछ डिब्बे थे, जिनमें वे वस्तुएं
थीं, जिन्हें दिल्ली में एक दिन में 29 रुपयों में खरीदा जा सकता था। एक
डिब्बे में 15 रुपए मूल्य के महज दो बस टिकट थे, जो कि कार्यस्थल से आयोग
भवन तक पहुंचने और वहां से पुन: लौटने की कीमत थी। इसके बाद वे भोजन और
अन्य जरूरत की चीजों के लिए कुछ भी खर्च करने की स्थिति में नहीं थे।
एक अन्य डिब्बे में एक आधी पेंसिल, 25 ग्राम राजमा के दाने, चार भिंडियां,
25 ग्राम आटा और कमीज की एक आस्तीन थी। दूसरे डिब्बों में भी कुछ इसी तरह
की चीजें थीं। तख्तियों पर लिखे नारे तो और रोचक थे। एक पर लिखा था:
‘गरीबों को एक दिन में केवल आधी कटोरी दाल खाने की इजाजत है।’ दूसरी पर
लिखा था: ‘गरीब एक माह में फलों के नाम पर केवल दो केले खा सकते हैं।’
तीसरी पर लिखा था: ‘गरीब साल में दो कमीज और दो पतलून खरीद सकते हैं, लेकिन
सर्दियों में वे क्या पहनेंगे?’
यह रचनात्मक और शालीन हास्य से भरा विरोध प्रदर्शन एक असंगत स्थिति की ओर
संकेत करता है। और वह है वे बेतुके मानदंड, जिनके आधार पर गरीबी रेखा का
निर्धारण किया जाता है। योजना आयोग द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों के समूह के
अध्यक्ष प्रोफेसर सुरेश तेंडुलकर थे। उनकी रिपोर्ट दावा करती है कि गरीबी
रेखा का निर्धारण आधिकारिक परिवार व्यय सर्वेक्षण के आधार पर किया गया है,
लेकिन मैं यह समझ नहीं पाता कि इतने कम साधनों में जीवन-यापन कर रहे गरीबों
की स्थिति का निर्धारण आखिर किस तरह के सत्यापन के मार्फत किया गया होगा।
दिल्ली में कई बच्चे सड़क पर काम करते हैं। प्लास्टिक और अन्य अवशिष्ट
पदार्थो की रिसाइकिलिंग करने वाला एक लड़का एक दिन में औसतन सोता है। उसे
अक्सर पुलिस की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है। उसे अक्सर अपना पेट
भरने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। उसे सार्वजनिक सुविधाघरों में नहाने
के लिए पैसा चुकाना पड़ता है। सरकारी अस्पताल उसका इलाज नहीं करते। किसी भी
स्कूल के दरवाजे उसके लिए खुले नहीं हैं। गरीबी के कई आयाम होते हैं।
इसके आर्थिक आयामों में निम्न आय, भोजन सहित अन्य वस्तुओं का निम्न उपभोग
स्तर, संसाधनों की किल्लत और आजीविका की अनिश्चितता शामिल हैं। लेकिन
स्वच्छ पेयजल, साफ-सफाई, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी मूलभूत सार्वजनिक
सुविधाएं पाने में समाज के एक बड़े वर्ग की अक्षमता भी गरीबी को ही
प्रदर्शित करती है। जाति, लिंग और धार्मिक पहचान के आधार पर सामाजिक
अवमूल्यन और राजनीतिक अशक्तता भी गरीबी के आयाम हैं। लेकिन गरीबी का
मूल्यांकन करने वाले योजना निर्माता केवल उन तत्वों को सम्मिलित करते हैं,
जिनकी गणना की जा सके। उनका रवैया कुछ ऐसा है, जैसे गरीब और अमीर दो
अलग-अलग दुनियाओं में रहते हों।
सबसे चिंतनीय बात यह है कि गरीबी के इन संकेतकों, जिन्हें गरीबी रेखा के
स्थान पर भुखमरी रेखा कहा जाना ज्यादा ठीक होगा, के आधार पर भी विशेषज्ञों
का समूह यही अनुमान लगा पाता है कि हमारी एक तिहाई से अधिक आबादी गरीब है।
यदि सरकार गरीबी रेखा का निर्धारण करते समय अधिक व्यापक मानदंडों को लागू
करे, जैसे अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकृत दो डॉलर प्रतिदिन आय, जिसे
पर्चेसिंग पॉवर पैरिटी के आधार पर समायोजित किया जा सकता है, तो संभव है कि
यह आंकड़ा 74 फीसदी के करीब होगा, जैसा कि विश्व बैंक ने भी अनुमान लगाया
है।
यदि गरीबी के आधिकारिक आंकड़े केवल विद्वानों के लिए रुचिकर होते तब भी देश
के गरीबों की जीवन स्थिति के संबंध में उनकी दृष्टि पर्याप्त चिंताजनक
होती। लेकिन सरकार ने पिछले दशकों में गरीबी के इन निराशाजनक आंकड़ों का
इस्तेमाल अनुदानप्राप्त भोजन, नि:शुल्क स्वास्थ्य सुविधाएं, सामाजिक
सुरक्षा पेंशन और सस्ते आवासों जैसी सामाजिक सेवाओं तक गरीबों की पहुंच कम
करने के लिए भी किया है। समस्या तब और विकट हो जाती है, जब सरकार न केवल यह
पता कर पाने में विफल रहती है कि देश में कितने गरीब हैं, बल्कि वह यह भी
नहीं जान पाती कि वास्तव में गरीब कौन हैं। अध्ययन बताते हैं कि वंचित
समूहों के लगभग 60 फीसदी लोग सरकारी गरीबों की फेहरिस्त से बाहर छूट जाते
हैं।
योजना निर्माताओं, अर्थशास्त्रियों, मध्यवर्ग और देश के वास्तविक गरीबों की
जीवन स्थिति के बीच एक गहरी खाई है। जब तक इस खाई को पाटा नहीं जाएगा, तब
तक यही माना जाता रहेगा कि देश के गरीब महज ‘दो बस टिकटों’ के बूते अस्मिता
के साथ अपना जीवन बिता सकते हैं।
तपती हुई दोपहर को मैं नई दिल्ली में योजना आयोग भवन के सामने एक विचित्र
विरोध प्रदर्शन में सम्मिलित हुआ था। प्रदर्शनकारी तख्तियां लहरा रहे थे,
जोशोखरोश से नारे लगा रहे थे, लेकिन साथ ही वे देश की शीर्ष योजना
निर्मात्री संस्था के सदस्यों के लिए कुछ ‘भेंट’ भी लेकर आए थे।
उनकी भेंट ठुकरा दी गईं और प्रदर्शनकारियों की भीड़ को पुलिस ने मामूली
झड़प के बाद तितर-बितर कर दिया। भारत में गरीबी के स्तर का अनुमान लगाने के
लिए योजना आयोग द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों के एक समूह की रिपोर्ट के
मुताबिक किसी व्यक्ति को तब गरीब माना जाएगा, जब वह वर्ष 2004-05 की मूल्य
दरों के अनुसार शहरी क्षेत्र में एक दिन में 20 रुपए से कम और ग्रामीण
क्षेत्र में 16 रुपए से कम व्यय करता है। वर्तमान मूल्य दरों के अनुसार
इसका अर्थ यह होगा कि यदि कोई व्यक्ति गांव में 23 और शहर में 29 रुपए से
अधिक व्यय करने की स्थिति में है तो उसे गरीब नहीं माना जाएगा!
‘भोजन का अधिकार’ आंदोलन के वे प्रदर्शनकारी आयोग सदस्यों के लिए जो ‘भेंट’
लेकर आए थे, वे वास्तव में गत्ते के कुछ डिब्बे थे, जिनमें वे वस्तुएं
थीं, जिन्हें दिल्ली में एक दिन में 29 रुपयों में खरीदा जा सकता था। एक
डिब्बे में 15 रुपए मूल्य के महज दो बस टिकट थे, जो कि कार्यस्थल से आयोग
भवन तक पहुंचने और वहां से पुन: लौटने की कीमत थी। इसके बाद वे भोजन और
अन्य जरूरत की चीजों के लिए कुछ भी खर्च करने की स्थिति में नहीं थे।
एक अन्य डिब्बे में एक आधी पेंसिल, 25 ग्राम राजमा के दाने, चार भिंडियां,
25 ग्राम आटा और कमीज की एक आस्तीन थी। दूसरे डिब्बों में भी कुछ इसी तरह
की चीजें थीं। तख्तियों पर लिखे नारे तो और रोचक थे। एक पर लिखा था:
‘गरीबों को एक दिन में केवल आधी कटोरी दाल खाने की इजाजत है।’ दूसरी पर
लिखा था: ‘गरीब एक माह में फलों के नाम पर केवल दो केले खा सकते हैं।’
तीसरी पर लिखा था: ‘गरीब साल में दो कमीज और दो पतलून खरीद सकते हैं, लेकिन
सर्दियों में वे क्या पहनेंगे?’
यह रचनात्मक और शालीन हास्य से भरा विरोध प्रदर्शन एक असंगत स्थिति की ओर
संकेत करता है। और वह है वे बेतुके मानदंड, जिनके आधार पर गरीबी रेखा का
निर्धारण किया जाता है। योजना आयोग द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों के समूह के
अध्यक्ष प्रोफेसर सुरेश तेंडुलकर थे। उनकी रिपोर्ट दावा करती है कि गरीबी
रेखा का निर्धारण आधिकारिक परिवार व्यय सर्वेक्षण के आधार पर किया गया है,
लेकिन मैं यह समझ नहीं पाता कि इतने कम साधनों में जीवन-यापन कर रहे गरीबों
की स्थिति का निर्धारण आखिर किस तरह के सत्यापन के मार्फत किया गया होगा।
दिल्ली में कई बच्चे सड़क पर काम करते हैं। प्लास्टिक और अन्य अवशिष्ट
पदार्थो की रिसाइकिलिंग करने वाला एक लड़का एक दिन में औसतन सोता है। उसे
अक्सर पुलिस की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है। उसे अक्सर अपना पेट
भरने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। उसे सार्वजनिक सुविधाघरों में नहाने
के लिए पैसा चुकाना पड़ता है। सरकारी अस्पताल उसका इलाज नहीं करते। किसी भी
स्कूल के दरवाजे उसके लिए खुले नहीं हैं। गरीबी के कई आयाम होते हैं।
इसके आर्थिक आयामों में निम्न आय, भोजन सहित अन्य वस्तुओं का निम्न उपभोग
स्तर, संसाधनों की किल्लत और आजीविका की अनिश्चितता शामिल हैं। लेकिन
स्वच्छ पेयजल, साफ-सफाई, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी मूलभूत सार्वजनिक
सुविधाएं पाने में समाज के एक बड़े वर्ग की अक्षमता भी गरीबी को ही
प्रदर्शित करती है। जाति, लिंग और धार्मिक पहचान के आधार पर सामाजिक
अवमूल्यन और राजनीतिक अशक्तता भी गरीबी के आयाम हैं। लेकिन गरीबी का
मूल्यांकन करने वाले योजना निर्माता केवल उन तत्वों को सम्मिलित करते हैं,
जिनकी गणना की जा सके। उनका रवैया कुछ ऐसा है, जैसे गरीब और अमीर दो
अलग-अलग दुनियाओं में रहते हों।
सबसे चिंतनीय बात यह है कि गरीबी के इन संकेतकों, जिन्हें गरीबी रेखा के
स्थान पर भुखमरी रेखा कहा जाना ज्यादा ठीक होगा, के आधार पर भी विशेषज्ञों
का समूह यही अनुमान लगा पाता है कि हमारी एक तिहाई से अधिक आबादी गरीब है।
यदि सरकार गरीबी रेखा का निर्धारण करते समय अधिक व्यापक मानदंडों को लागू
करे, जैसे अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकृत दो डॉलर प्रतिदिन आय, जिसे
पर्चेसिंग पॉवर पैरिटी के आधार पर समायोजित किया जा सकता है, तो संभव है कि
यह आंकड़ा 74 फीसदी के करीब होगा, जैसा कि विश्व बैंक ने भी अनुमान लगाया
है।
यदि गरीबी के आधिकारिक आंकड़े केवल विद्वानों के लिए रुचिकर होते तब भी देश
के गरीबों की जीवन स्थिति के संबंध में उनकी दृष्टि पर्याप्त चिंताजनक
होती। लेकिन सरकार ने पिछले दशकों में गरीबी के इन निराशाजनक आंकड़ों का
इस्तेमाल अनुदानप्राप्त भोजन, नि:शुल्क स्वास्थ्य सुविधाएं, सामाजिक
सुरक्षा पेंशन और सस्ते आवासों जैसी सामाजिक सेवाओं तक गरीबों की पहुंच कम
करने के लिए भी किया है। समस्या तब और विकट हो जाती है, जब सरकार न केवल यह
पता कर पाने में विफल रहती है कि देश में कितने गरीब हैं, बल्कि वह यह भी
नहीं जान पाती कि वास्तव में गरीब कौन हैं। अध्ययन बताते हैं कि वंचित
समूहों के लगभग 60 फीसदी लोग सरकारी गरीबों की फेहरिस्त से बाहर छूट जाते
हैं।
योजना निर्माताओं, अर्थशास्त्रियों, मध्यवर्ग और देश के वास्तविक गरीबों की
जीवन स्थिति के बीच एक गहरी खाई है। जब तक इस खाई को पाटा नहीं जाएगा, तब
तक यही माना जाता रहेगा कि देश के गरीब महज ‘दो बस टिकटों’ के बूते अस्मिता
के साथ अपना जीवन बिता सकते हैं।