आशा और गरिमा से विस्थापन : हर्ष मंदर

भारत के
अनेक मनोचिकित्सालय लंबे समय से विस्मृत दीन-दुखियों के लिए अंधकारपूर्ण
बंदीगृह बने हुए हैं। मानवाधिकारों की सुरक्षा करने और सभी के लिए
स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के हमारे मिले-जुले रिकॉर्ड में मानसिक
रूप से विकलांग लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा और उनका पुनर्वास संभवत:
सबसे चिंतनीय प्रसंगों में से एक है।




कुछ साल पहले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट सहित कई अन्य
स्वतंत्र रिपोर्टो द्वारा प्रस्तुत एक सर्वेक्षण में इस तथ्य पर प्रकाश
डाला गया था कि भारत में विभिन्न मनोचिकित्सालयों में रह रहे मानसिक रूप से
विकलांग व्यक्तियों के साथ कई स्तरों पर अमानवीय व्यवहार हो रहा है, जो कि
उत्कृष्ट चिकित्सा सुविधाओं के मौजूदा दौर में निहायत अविवेकपूर्ण है।




कई अस्पतालों में मरीजों को अकुशल स्टाफ की उपेक्षा और संवेदनहीनता का
शिकार होना पड़ता है। यहां अपारदर्शिता और भय की स्थिति भी हमेशा बनी रहती
है। कुछ साल पहले तक इन संस्थानों के कैम्पस में मरीजों को जंजीर से जकड़कर
रखने जैसी घटनाएं आम थीं और वे आज भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई हैं।




कुछ अस्पतालों में मरीजों की बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं की जातीं।
कमोबेश सभी अस्पतालों में खाद्य सामग्री के क्रय और प्रबंधन में भ्रष्टाचार
होता है और मरीजों को कुपोषित व खराब गुणवत्ता का भोजन परोसा जाता है।
निम्न जीवन स्तर और अपर्याप्त चिकित्सकीय सुविधाओं के कारण मरीज अस्वस्थ
रहते हैं और कई बार तो कुछ मरीजों की मृत्यु भी हो जाती है, जबकि इसका उनकी
मानसिक व्याधि से कोई नाता नहीं होता।




आज भी खबरें आती हैं कि कई अस्पतालों में मरीजों को बिना एनेस्थेसिया दिए
उन पर इलेक्ट्रिक शॉक जैसी बर्बर और अविवेकपूर्ण प्रणाली का प्रयोग किया जा
रहा है। कई अस्पतालों में मरीजों को कभी-कभार ही उनके परिजनों से मिलने का
मौका मिलता है, जबकि कई परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने मानसिक रूप से
विक्षिप्त अपने संबंधियों को अस्पताल के हवाले कर लगभग भुला दिया है।
अस्पतालों में फार्माकॉलॉजिकल दवाइयों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया जाता
है, जबकि साइकोथैरेपी, काउंसिलिंग व अन्य वैकल्पिक प्रणालियों को ज्यादा
तवज्जो नहीं दी जाती।




इतना ही नहीं, डिस्चार्ज होने के बाद नया जीवन शुरू करने में मरीज की मदद
करने के लिए लगभग कुछ नहीं किया जाता। नतीजा यह रहता है कि डिस्चार्ज होने
के बाद मरीज कुछ समय बाद पुन: अस्पताल लौट आते हैं, अधिक लंबी अवधि के लिए
और पहले से कम उम्मीद के साथ।




अलबत्ता कुछ अस्पतालों में सुधार के कुछ सुखद संकेत नजर आ रहे हैं, जिसका
श्रेय प्रतिबद्ध पेशेवरों, मरीजों और उनके परिजनों की संस्थाओं, सिविल
सोसायटी समूहों, समाजसेवियों और मानवाधिकार आयोग द्वारा की गई पहल को जाता
है। लेकिन कई मनोचिकित्सालयों की चहारदीवारी के भीतर अब भी ज्यादा कुछ नहीं
बदला है। पिछड़ीजातियों और आर्थिक रूप से विपन्न मनोरोगियों के लिए तो
हालात और बदतर हैं।




सबसे बुरी दशा उन मरीजों की होती है, जिन्हें लावारिस छोड़ दिया जाता है।
जब अस्पताल के अधिकारी मरीज के परिजनों को सूचित करते हैं कि मरीज के
डिस्चार्ज होने का समय आ गया है और वे आकर उन्हें ले जा सकते हैं तो
परिजनों और स्टाफकर्मियों की मिलीभगत से या तो उन्हें गलत पते दे दिए जाते
हैं या अस्पताल की सूचना पर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता। नतीजा यह रहता है
कि अनेक अस्पतालों में कई मरीज ऐसे पाए जा सकते हैं, जिनसे उनके परिजनों
ने पल्ला झाड़ लिया है।




कई अस्पतालों में सीनियर स्टाफ द्वारा मरीजों पर यह लेबल लगा दिया जाता है
कि वे लाइलाज हैं और उन्हें ताउम्र अस्पताल में रखा जाना जरूरी है। जबकि
आधुनिक मेडिकल साइंस में किसी मरीज का भविष्य बताने को उचित नहीं समझा जाता
है।




आर श्रीनिवास मूर्ति जैसे प्रतिबद्ध पेशेवर जोर देकर कहते हैं कि इन सभी
समस्याओं का स्थायी निदान है संस्थागत दीवारों को ढहा देना और मनोरोगियों
की उपेक्षा या उनके साथ किए जाने वाले क्रूर व्यवहार को उचित ठहराने वाली
चिकित्सकीय और सामाजिक प्रणाली को समाप्त कर देना। मूर्ति मानते हैं कि
मनोरोग से ग्रस्त नए रोगियों की चिकित्सा और मनोरोग के नए आयामों को
प्राथमिक चिकित्सा सेवा का एक अभिन्न हिस्सा बना देना चाहिए।




साथ ही चिकित्सा के कई स्तर भी होने चाहिए। ऐसी स्थिति में चिकित्सा
प्रक्रिया में मनोरोगियों के परिजनों की भागीदारी भी बढ़ेगी। बंदीगृह की
परिपाटी को समाप्त करने के लिए अभिरक्षण प्रक्रिया पर आधारित नई चिकित्सा
संस्थाओं को अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। मनोरोगियों और उनके परिजनों के लिए
मुख्यधारा के अस्पतालों और क्लिनिकों में विशेष बाह्य वार्ड उपलब्ध होने
चाहिए, जिनमें उनका दाखिला ऐच्छिक आधार पर होना चाहिए।




मौजूदा मनोचिकित्सालयों में पहला काम तो यह किया जाना चाहिए कि
सुप्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक टीम गठित की जाए, जो मरीजों की
देखरेख और उनके पुनर्वास के लिए कटिबद्ध होकर कार्य करे। टीम में
साइकोलॉजिस्ट और साइकायट्रिक भी होने चाहिए। इस टीम में मनोचिकित्सालय के
स्टाफ सदस्यों का सहयोग भी लिया जा सकता है।




कोलकाता की ‘अंजलि’ नामक एक संस्था ने कुछ ऐसे ही प्रयास किए हैं और परिणाम
बहुत प्रोत्साहनजनक रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता के कारण एक
पारदर्शितापूर्ण स्थिति निर्मित हुई है। संस्था के सदस्य मरीजों के साथ ही
उनके परिजनों के भी संपर्क में रहते हैं और उनके साथ काउंसिलिंग करते हैं।




चेन्नई की एक अन्य संस्था ‘बेन्यन’ ने भी कुछ महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं।
मनोचिकित्सालयों की कार्यप्रणाली को अधिक से अधिक मानवीय, संवेदनशील,
पारदर्शितापूर्ण और समावेशी बनाकर ही मनोरोगियों के जीवन में सकारात्मक
बदलावलायाजा सकता है। जरूरत इस बात की है कि कोई भी मनोरोगी अपनी मानवीय
गरिमा और बेहतर भविष्य की उम्मीद से विस्थापित न हो।

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