सरकार के मंत्री-गण और अन्ना हजारे टीम के बीच एक-दूसरे के लोकपाल को लेकर
कई मुद्दों पर असहमति है. जन लोकपाल की सभी बातों से राजनीतिक दल का कोई
भी व्यक्ति सहमत नहीं है. लेकिन हाल में जन-अधिकार पर जो हमले हुए, उससे भी
राजनीतिक दल सहमत नहीं हैं.
संसद को कानून बनाना है. अभी लोकपाल बिल संसद की स्टैंडिंग कमिटी के पास
विचाराधीन है. हालांकि स्थायी समिति ने अपनी प्रथम बैठक में ही अन्ना से
संपर्क किया, लेकिन अन्ना और उनके लोगों ने समिति से आग्रह कियाकि सरकार के
बिल को खारिज कर दिया जाये.
सरकार ने दावा किया है कि सरकारी विधेयक में अन्ना की 40 में से 24 बातों
पर पूर्णत सहमति, 10 पर आंशिक रूप से सहमति है तथा छह बातें नहीं मानी गयी
है. इस स्थिति में अन्ना की इस मांग को कि पूरे विधेयक को खारिज किया जाये
या उसे वापस लिया जाये, उचित नहीं कह सकते हैं. उन्होंने जो कथित जनलोकपाल
बिल तैयार किया है, उसमें पांच-छह मुद्दों पर मतभेद है. मसलन, प्रधानमंत्री
को लोकपाल के दायरे में रखा जाना, न्यायपालिका, सीवीसी, सीबीआइ को शामिल
करना, संसद के अंदर सदस्यों के वर्ताव को लोकपाल के दायरे में लाना. लेकिन
यह कहना कि हमारी सारी बातें मान ली जाये, नहीं तो अनशन करके प्राण त्याग
देंगे, यह उचित नहीं है.
अनशन गांधीजी के सत्याग्रह का अंतिम हथियार था. जब देश में किसी भी
व्यक्ति या समूह के लिए कोई विकल्प नहीं बचे, तब अनशन के अमोघ अस्त्र का
प्रयोग किया जाता है. लेकिन जब देश भर में आंदोलन का वातावरण है, उस स्थिति
में अनशन करके प्राण त्याग देंगे, तो इस तरह के हठ की इजाजत गांधीजी भी
नहीं देते थे. यह गांधीवाद के सिद्धांत की अवहेलना है. गांधी जी यह भी कहते
थे कि वार्ता के लिए सत्याग्रहियों को हमेशा तैयार रहना चाहिए. वार्ता से
कभी भागना नहीं चाहिए. इसलिए अन्नाजी को या उनके साथियों को वार्ता से नहीं
हटना चाहिए. सरकार को भी इसे मूंछ की लड़ाई नहीं बनानी चाहिए.
मेरी राय है कि विवाद को हल करने के लिए स्टैंडिंग कमेटी को सक्रिय होना
चाहिए. सरकार और अन्ना टीम के बीच जिन-जिन बिंदुओं पर मतभेद है या सरकारी
लोकपाल में जिनका प्रावधान नहीं है, उस पर बातचीत कर इसका हल निकालना
चाहिए, क्योंकि देशहित सर्वोपरि है. स्टैंडिंग कमेटी को अन्ना ही नहीं देश
की अन्य सिविल सोसाइटी को भी बुला कर उनसे परामर्श करना चाहिए.
भ्रष्टाचार को समूल नष्ट किया जाये, यह हर कोई चाहता है. इसलिए उसमें सभी
मुद्दों पर विचार कर उसका हल किया जाना चाहिए. इसके साथ ही और भी जो
भ्रष्टाचार का क्षेत्र है, उसे समाप्त करने के लिए काम किया जाना चाहिए.
सूचना का अधिकार एक बहुत ब़ड़ा हथियार है. इसी तरह से अवेयरनेस,
जन-भागीदारी, कड़ी निगरानी, पारदर्शिता ओद जो चीजें है, उन चीजों का भी
इस्तेमाल करके इसे रोका जाना चाहिए.
भ्रष्टाचार रोकने के लिए सबसे पहले चुनाव में सुधार की जरूरत है, जिसमें
धन, बाहुबल, जाति, अपराध का ज्यादा बोलवाला है. लोकतंत्र का मतलब वोट का
राज.और वोट की प्रणाली जब तक शुद्ध नहीं होगी, तब तक भ्रष्टाचार से कैसे
लड़ा जा सकता है, क्योंकि जड़ ही जब भ्रष्ट होगा, तो आप भ्रष्टाचार से कैसे
लड़ पायेंगे? इस हालात में चुनाव सुधार पर सबसे ज्यादा ध्यान देना होगा.
लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को रखे जाने की बात पहले भी हुई है.
तकनीकी रूप से या कानून के मुताबिक देश का सभी नागरिक बराबर है, कोई कानून
से ऊपर नहीं है. इसलिए प्रधानमंत्री भी लोकपाल में रहे, इसमें कोई हर्ज
नहीं है, लेकिन व्यावहारिक रूप से देखा गया है कि केंद्र में अनिश्चितता या
कमजोर केंद्र होने से यह देशहित में नहीं होगा. कर्नाटक में हाल ही में
लोकायुक्त के द्वारा मुख्यमंत्री के खिलाफ़ जांच पर मुख्यमंत्री को हटना
पड़ा. यदि वैसी हालत केंद्र में भी हो तो यह देश के लिए अच्छा नहीं होगा.
क्योंकि देश के पड़ोस में मजबूत लोकतंत्र नहीं है. ऐसी स्थिति में
अस्थिरता, अनिश्चितता और केंद्र का कमजोर होना देश के भविष्य के लिए अच्छा
नहीं है. हालांकि, इन सभी चीजों पर विचार किया जाना चाहिए.
उसी तरह से न्यायपालिका है. अभी किसी तरह का कोई मामला होता है, तो कहा
जाता है कि कोर्ट में जाऊंगा. कोर्ट के प्रति आम जनमानस में न्याय मिलने के
उम्मीद रहती है. न्यायपालिका को भी इसमें शामिल करेंगे, तो यह जनलोकपाल
महान्यायपालिका हो जायेगा. संविधान में न्यायपालिका को बहुत सारे अधिकार
दिये गये हैं. कई तरह के न चाहनेवाले फ़ैसले भी देने पड़ते है. उस स्थिति
में इसे भी शामिल करना मेरी समझ से अच्छा नहीं होगा.
इसीलिए लोकपाल बनाने से पहले व्यावहारिक बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत
है. हो सकता है कि तकनीकी रूप से सारी बातें सही हों, लेकिन देश चलाने के
लिए व्यावहारिक बातों पर भी ध्यान दिया जाता है. यदि हम देश के सारे
कर्मचारी को रख देते हैं, तो इसका दायरा कितना बड़ा हो जायेगा. लोकपाल में
आप कितना स्ट्रेंथ रखेंगे. एक-एक फ़ाइल को पढ़ना मुश्किल हो जायेगा. इसका
भी वही हाल होगा, जिस तरह से आज देश के विभिन्न कोर्ट में लाखों मामले
पेंडिंग हैं. इसमें भी फ़िर समय से न्याय नहीं मिल पायेगा. इसीलिए
व्यावहारिकता से सभी पर विमर्श होना चाहिए.
एक बात और कहना चाहूंगा कि यह किसी के लिए उचित नहीं है कि ‘मैं जो कहता
हूं वही सही है और सारे लोग गलत हैं’, इसे कोई सही नहीं मानेगा. भगवान
महावीर का जो अनेकांतवाद है, ‘मैं जो कहता हूं वह सही है, लेकिन दूसरे लोग
भी सही कह सकते हैं’, इसे अपनाया जाना चाहिए. लोकतंत्र में मैं जो कहता हूं
वही सही है, इसकी जगह नहीं है. अन्ना हजारे या उनके टीम को तय सीमा को
लेकर हठ नहीं करना चाहिए. यह सही है कि इसमें काफ़ी विलंब हो चुका है,
लेकिन जब देश के लिए ऐसे महत्वपूर्ण विधेयक पर चर्चा जारी हो, तो वर्षो के
मुकाबले कुछ सप्ताह या कुछ महीना और इस पर विचार करने में कोई हर्ज नहीं
होना चाहिए.
पूरे घटनाक्रम में सरकार की कुव्यवस्था और कुप्रबंधन सामने आये हैं.
प्रारंभ में अन्नाहजारेने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा. उसी समय से सरकार
को सजग हो जाना चाहिए था. सभी राजनीतिक दलों को विश्वास में लेना चाहिए,
लेकिन ऐसा नहीं किया गया. अप्रैल में अन्ना हजारे द्वारा अनशन पर बैठ जाने
से अफ़रातफ़री में सरकार ने संयुक्त कमेटी का गठन कर दिया. दोनों के बीच
संयुक्त कमेटी द्वारा अफ़रा-तफ़री में निर्णय हुआ. बाद में भी राजनीतिक
दलों को विश्वास में नहीं लिया गया. जब यह मामला सभी राजनीतिक दलों से
संबद्ध है, तो परामर्श किया जाना चाहिए था. बाद में जब दोनों के बीच बात
बिगड़ गयी, कुछ बिंदु पर सहमति न बनी, उसके बाद भी सरकार ने विपक्ष के
लोगों से बात नहीं की. एक मंत्री ने बयान दिया कि अन्ना हजारे के जन लोकपाल
और सरकार के लोकपाल दोनों को कैबिनेट में ले जाऊंगा. यह बयान भी सही नहीं
था. उसके बाद सरकार ने अपना विधेयक प्रस्तुत किया.
चूंकि अन्ना जी का पहले से ही एलान था कि उनकी सभी बातें नहीं मानी गयी,
तो वह 16 अगस्त से फ़िर से अनशन करेंगे. उनकी गिरफ्तारी का नोटिस हुआ. इस
बीच सरकार क्या कर रही थी? जब अन्ना हजारे अनशन का एलान कर चुके हैं, सरकार
उनके अनशन को रोकने पर आमादा है, गिरफ्तारी तय है, फ़िर इस बीच सरकार ने
क्या किया? न वार्ता करने का प्रयास किया और न ही अन्य राजनीतिक दलों से
संपर्क किया. एक बैठक भी हुई, तो वह काफ़ी देर से बुलायी गयी. लेकिन उसमें
कोई प्रभावी निर्णय भी नहीं लिया गया. उसी में फ़ैसला करना चाहिए कि उनसे
वार्ता किया जाये.
अब यह मामला सरकार के हाथ से भी निकल कर स्टैंडिंग कमेटी के पास चला गया
है. इसलिए स्टैंडिंग कमेटी को तुरंत इस पर पहल करना चाहिए. आज सबसे ज्यादा
जरूरत इस बात की है कि दोनों पक्षों के बीच के डेडलॉक को खत्म किया जाये.
यह पहल सरकार को करनी चाहिए.
अन्नाजी का यदि संकल्प है, तो वह खुद से तो पीछे नहीं न हट जायेंगे, इसलिए
सरकार का यह कर्तव्य बनता है कि इसमें हस्तक्षेप कर डेडलॉक को खत्म कराये
और फ़िर से वार्ता की जाये. क्योंकि अनशन से तमाम राजनीतिक दलों के खिलाफ़
एक माहौल बनाने का मौका मिल रहा है. यह सही है कि राजनीतिक दलों का अभी कोई
विकल्प नहीं है, तो विकल्पहीनता से गुलामी होती है या फ़िर अराजकता होती
है. इसलिए इसके प्रति तो सजग होना चाहिए. कंफ्रंटेशन नहीं, कनवरसेशन कर इस
मामले का हल निकाला जाना चाहिए.
मजबूत, कारगर लोकपाल के पक्ष में सभी हैं, क्योंकि सभी जगह वातावरण दूषित
हो रहा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जनआंदोलन से इसमें सहायता मिलेगी. जिला
प्रमुख, निकाय, एमएलसी, राज्यसभा के चुनाव में जिस तरह से प्रत्यक्ष रूप से
पैसा दिया और लिया जाता है, इसे खत्म करना सबसे पहले जरूरी है, क्योंकि
वोट के भ्रष्टाचार पर चोट करना सबसे पहले जरूरी है. इसके साथ ही कड़ी
निगरानी, जवाबदेही, पारदर्शिता, अवेयरनेस, जनभागीदारी, जानकारी सभी पर बात
करनी चाहिए. भ्रष्टाचार कैंसर की तरह बीमारी के रूप में पूरे लोकतंत्र में
फ़ैल चुका है. सरकार को भी मूंछ कील़ड़ाई न मान कर वार्ता करनी चाहिए और
अन्ना हजारे जी को भी हठ त्याग कर देश हित में मिल कर लोकपाल बनाने में
सहयोग करना चाहिए.
डॉ रघुवंश प्रसाद सिंह (पूर्व केंद्रीय मंत्री व सांसद)