नई दिल्ली, अंशुमान तिवारी; वित्तीय दुनिया चाहे जितनी पेंचदार हो, मगर
यह हमेशा से एक अलिखित और व्यावहारिक भरोसे पर ही चलती है। रुपये अदा करने
का वचन देने वाली कागजी मुद्रा (प्रॉमिसरी नोट) से लेकर अरबों डॉलर के
बाडों और शेयरों तक फैला यही भरोसा अब दरकने लगा है। बात लीमन ब्रदर्स या
बेरिंग्स नाम के बैंक अथवा एनरॉन या सत्यम जैसी कंपनी से भरोसा उठने की है
ही नहीं। अब उन पर बन आई है, जो दसियों लीमन और एनरानों को उबार सकते हैं।
अब कंपनिया नहीं देश डूब रहे हैं। यह वित्तीय संकट नहीं है। यह तो राजनीतिक
और गर्वनेंस का अंतरराष्ट्रीय संकट है। देशों की वह संप्रभु साख खतरे में
है। जिस साख के बूते खरबों डॉलर हर मिनट दुनिया में दौड़ते हैं।
क्रेडिट रेटिंग का जन्म वित्तीय तंत्र में फैले अमूर्त भरोसे या साख को
एक तथ्यसंगत आधार देने के लिए ही हुआ था। साख, किसी व्यवस्था की ही होती
है, जो संप्रभु सरकारें चलाती हैं। रेटिंग एजेंसियों की निगाह में किसी देश
की साख गिरना उसके राजनीतिक व आर्थिक नेतृत्व पर टिप्पणी होती है। अमेरिका
से ट्रिपल ए रेटिंग छिनना दरअसल वहां की राजनीतिक व आर्थिक नीतियों की
विफलता पर मुहर है। यूरोप का भी ऐसा ही हाल है। यानी वित्तीय बाजार मान रहे
हैं कि यूरोप व अमेरिका की राजनीतिक, नियामक, आर्थिक और प्रशासनिक खामियों
ने एक ऐसा संकट दे दिया है जिसकी कल्पना ही नहीं गई। इसलिए सिर्फ
अनिश्चितता है।
देशों की रेटिंग अक्सर बदलती है, कोई हंगामा नहीं होता। अमेरिका अनोखा
यूं है, क्योंकि वह अंतरराष्ट्रीय करेंसी यानी डॉलर का मालिक है। इसी कारण
उसकी साख सबसे ऊंची है। इसलिए निवेशक बचत को अमेरिकी बाडों की तिजोरी में
रखकर चैन से सो जाते हैं। शुक्रवार को जब अमेरिकी की साख गिरी तो सरकारों
का दिल भी बैठ गया। चीन के लोग यह जानकर काप गए कि उनकी गाढ़ी कमाई के
डॉलरों की जान जिस तोते में थी, वह कमजोर हो गया है। जापान सहित बहुतों ने
अपनी बचत जिस तिजोरी में जमा की थी, उसी में छेद हो गया। अमेरिकी साख पर
दुनिया की सरकारों, बैंकों, बीमा कंपनियों के करीब 11 ट्रिलियन डॉलर
(अमेरिकी ट्रेजरी बिलों में निवेश) लगे हैं। अब अमेरिका में इनके निवेश की
कीमत घट गई है। चीन, जापान, तेल निर्यातक देश, कैरेबियाई देश, ब्राजील, और
हागकाग अमेरिकी ट्रेजरी बिलों में सबसे बड़े निवेशक हैं। पेंशन फंड,
म्युचुअल फंड भी फंसे हैं। इनके पास अपनी भारी बचत को लगाने का दूसरा
सुरक्षित रास्ता नहीं है,क्योंकि अमेरिका जितना कर्ज किसी और को नहीं
चाहिए।
संकट का दूसरा पंजा अरबों के डॉलर जुटाकर बैठे देशों की गर्दन पर है।
सबसे बड़े विदेशी मुद्रा भंडार वाले दुनिया के दस देशों में हम भी हैं। हमसे
ऊपर ताइवान, सऊदी अरब, ब्राजील, रूस, जापान और चीन हैं। दुनिया के विदेशी
मुद्रा भंडारों का 60 फीसदी हिस्सा (आइएमएफ कोफर रिपोर्ट) डॉलरों के नाम
है। अमेरिका की साख गिरने से टूटते डॉलर को देख मुंबई, रियाद, बीजिंग,
मॉस्को में केंद्रीय बैंकों के दिल बैठ रहे हैं। अब वे किस मुद्रा को
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चुनेंगे। डूबते यूरो, ढहते येन में पैसा कौन लगाए। कोई दूसरी अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा बनी ही नहीं।
सरकारों के सामने सुरक्षित निवेश के विकल्प और विदेशी मुद्रा भंडारों के
सवाल इतने बड़े हैं कि अन्य दिक्कतें उनके सामने छोटी पड़ जाती हैं। अब
अमेरिका ही नहीं, अन्य सरकारों के निवेश और बचत संबंधी फैसलों की साख का भी
संकट है। कल अमेरिका की साख और गिरती है या डॉलर टूटता है तो दुनिया की
सरकारों के लिए अपने खजानों को संभालना मुश्किल हो जाएगा। यह एक राजनीतिक
संकट की शुरुआत लगती है।