विकास का सही सूचक-अनिल प्रकाश जोशी

विश्व भर में आज की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चर्चा का अहम हिस्सा विकसित एवं विकासशील देशों की बढ़ती सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर पर केंद्रित है। बेहतर जीडीपी का सीधा संबंध उद्योगों की अप्रत्याशित वृद्धि के साथ ही बढ़ती ऊर्जा की खपत से है, जिसका पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ा है। ऐसे विकास का सीधा प्रभाव आदमी की जीवनशैली पर पड़ता है। कार, एसी व अन्य वस्तुएं ऊर्जा की खपत पर दबाव बनाती जा रही हैं। मगर अच्छी जीडीपी एवं विलासिता का लाभ दुनिया में बहुत से लोगों के हिस्से में नहीं आता है, पर इसकी कीमत सबको चुकानी पड़ रही है।

भारत जैसे विकासशील देशों के लिए बढ़ती जीडीपी की दर 85 फीसदी लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखती, बल्कि इसकी उन्हें कीमत ही चुकानी पड़ रही है। सीधे अर्थों में वर्तमान जीडीपी अस्थिर विकास का सामूहिक सूचक है। इसमें केवल उद्योगों, ढांचागत बुनियादी संरचना एवं आंशिक रूप से खेती को विकास का सूचक माना जाता है। जबकि इसमें खेती को छोड़कर बाकी सभी सूचक समाज के एक खास हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।

विगत दो दशकों में दुनिया की बढ़ती जीडीपी की सबसे बड़ी मार पर्यावरण पर पड़ी है। हवा, पानी एवं जंगलों की स्थिति पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ा है, जिसके कारण आज जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, सूखती नदियां, उजड़ती उपजाऊ धरती, जैसी समस्याएं सामने आई हैं। व्यापारीकरण की सभ्यता ने इससे भी मुनाफा कमाना चाहा और इनका भी व्यापार शुरू हो गया। आखिर हममें से किसी ने कभी सोचा था कि बंद बोतलों में भी पानी बिकेगा? आज यह हजारों करोड़ रुपये का व्यापार बन गया है। प्रकृति प्रदत्त यह संसाधन बोतलों में बंद न होकर नदी, नालों, कुओं व झरनों में होता, तो प्राकृतिक चक्र पर इसका विपरीत प्रभाव न पड़ता। रासायनिक खादों के बढ़ते प्रचलन ने जहां उपजाऊ मिट्टी की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न लगाया है, वहीं प्राकृतिक रूप से उगने वाली वानस्पतिक संपदा पर भी विपरीत असर डाला है।

प्राकृतिक संसाधनों के अप्राकृतिक दोहन की गंभीरता को देखते हुए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी देशों ने क्योटो, कोपेनहेगन और कानकून में अंतरराष्ट्रीय चर्चाओं में इसे चिंता का विषय बताया। साथ ही इसके लिए बढ़ती जीडीपी को भी जिम्मेदार माना। विकसित देश विकासशील देशों की बढ़ती जीडीपी के प्रति चिंतित हैं, क्योंकि इसका सीधा अर्थ उद्योगों से जुड़े कार्बन उत्सर्जन से है। विकासशील देश विकसित देशों के खिलाफ लामबंदी कर अपने हिस्से का विकास तय करना चाहते हैं। पर्यावरण की आड़ में आर्थिक समृद्धि की लड़ाई लड़ी जा रही है।

दुनिया में अब भी गांवों की आर्थिकी का आधार वहां उपलब्ध संसाधनों की स्थिति के दम पर आंका जाता है। घास, जलावन की लकड़ी, वनोत्पादन, पानी, पशुपालन और कृषि सबका सीधा संबंध प्राकृतिक उत्पादों से है। देश की बढ़ती जीडीपी से इनका कोई लेना-देना नहीं है। गत दशकों में इन उत्पादों पर हमारे एकतरफा आर्थिक विकास का प्रतिकूल असर पड़ा है। जो गांव अपने प्राकृतिक उत्पादों की निर्भरता से जिंदा थे, वे आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। इसका प्रभाव पारिस्थितिकी पर भी पड़ा है। ऐसे में जरूरी है कि विकास कीपरिभाषा उद्योगों, ढांचागत बुनियादी विकास व सेवा क्षेत्र के अलावा जीवन से जुड़े अति आवश्यक संसाधनों की प्रगति से भी जुड़ी हो, जिसमें पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने के मापदंड भी तय किए जाने जरूरी हैं। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ-साथ सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) का भी देश के विकास में समानांतर उल्लेख होना आवश्यक है।

ऐसा करने से हमें अपनी आर्थिक व पर्यावरणीय स्थिति की दिशा का भान भी रहेगा। बढ़ते जीडीपी के साथ बढ़ती जीईपी हमें संतुलित विकास की दिशा में मजबूती देगी। यह पूरी दुनिया के लिए आवश्यक है कि वह जीडीपी के साथ जीईपी की भी पैरवी कर संतुलित विकास की चिंता करे, अन्यथा जीडीपी एवं जीईपी का बढ़ता अंतर असंतुलित विकास का सबसे बड़ा कारक होगा। जीईपी ही अंधाधुंध बढ़ती जीडीपी को विकास का सही आईना दिखा सकती है।

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