सब्सिडी का अनोखा खेल-डॉ भरत झुनझुनवाला

वित्त मंत्री ने मन बनाया है कि लाभार्थी को सब्सिडी नगद रूप में दी
जाए. वित्त मंत्री के मंतव्य का स्वागत किया जाना चाहिए. गरीब के नाम पर
उच्चवर्ग और कंपनियों को पोषित करना उचित नहीं. हमारे धर्मग्रंथों में भी
गरीब को नगद देने की बात कही गयी है.

सरकार द्वारा डीजल, यूरिया, खाद्यान्न आदि पर सब्सिडी दी जा रही है. आम
आदमी समझता है कि इससे उसे राहत मिल रही है, पर ऐसा होता नहीं है. सब्सिडी
में दी रकम वसूल करने के लिए सरकार जनता पर टैक्स लगाती है. यह भार अंतत
जनता पर ही पड़ता है. अंतर इतना होता है कि यह भार टैक्स अदा करने वाले पर
पड़ता है, जबकि सब्सिडी पाने वाले को राहत मिलती है. अध्ययन बताते हैं कि
सब्सिडी का बड़ा हिस्सा संभ्रांत वर्ग को पहुंचता है. इस तरह सब्सिडी आम
जनता से रकम वसूल कर संभ्रांत वर्ग को पहुंचाने का माध्यम है.

इस प्रकिया में कई समस्यायें भी हैं. कंपनियों द्वारा उत्पादन लागत
बढ़ाकर दर्ज कराने के संकेत मिले हैं. मान लीजिए, यूरिया की वास्तविक
उत्पादन लागत 9 रुपये प्रति किलो है और कंपनी 2 रुपये की सब्सिडी पाने की
हकदार है. परंतु कंपनी खातों में हेराफ़ेरी करके उत्पादन लागत 10 रुपये
बताती है और सरकार से 3 रुपये की सब्सिडी हथिया लेती है. दूसरी समस्या यह
है कि सब्सिडी की अधिकाधिक रकम कृषि कंपनियों एवं बड़े किसानों द्वारा ली
जाती है.

इंडियन इंस्टीट्यूट अहमदाबाद के अध्ययन में पाया गया कि बड़े किसानों के
पास 18 प्रतिशत कृषि भूमि है, परंतु वे 48 प्रतिशत फ़र्टिलाइजर की खपत
करते हैं. यानी सब्सिडी का मुख्य लाभ बड़े किसान उठा रहे हैं. खाद्य
सब्सिडी का वितरण बीपीएल कार्ड के आधार पर होता है. इंडियन स्टेटिस्टिकल
इंस्टीट्यूट के अध्ययन में पाया गया कि करीब 52 प्रतिशत खेत मजदूर एवं
अनुसूचित जातियों के 60 प्रतिशत को बीपीएल कार्ड नहीं मिले थे. ऐसी
समस्याएं रसोई गैस, केरोसिन व डीजल पर सब्सिडी में भी पायी गयी हैं. अत
वित्त मंत्री ने मन बनाया है कि लाभार्थी को सब्सिडी नगद रूप में दी जाए.
वित्त मंत्री के मंतव्य का स्वागत किया जाना चाहिए. गरीब के नाम पर
उच्चवर्ग व कंपनियों को पोषित करना उचित नहीं. हमारे धर्मग्रंथों में भी
गरीब को नगद देने की बात कही गयी है. ’अर्थशास्त्र‘ में कौटिल्य कहते हैं
कि राज्य को अमीरों से टैक्स वसूल गरीबों की मदद करनी चाहिए.

सब्सिडी नगद देने के विरोध में कई तर्क दिये जा रहे हैं. पहला तर्क है
कि नगद सब्सिडी को लाभार्थी तक पहुंचाना उतना ही कठिन होगा जितना कि
फ़र्टिलाइजर या खाद्यान्न सब्सिडी को पहुंचाना. रोजगार गारंटी कार्यक्रम के
अंतर्गत लाभार्थी को पेमेंट कई राज्यों में उनके बैंक खातों में किया जा
रहा है. फ़िर भी झूठे नाम से खोले गये खातों से रकम का रिसाव हो रहा है. यह
समस्या सच्ची है. परंतु देखना चाहिए कि रिसाव कम कैसे किया जाये? बैंक
खाते की खोजबीन अपेक्षाकृत आसान है.

सरकार द्वारा हर व्‍यक्‍ति को विशेष पहचान नंबर दिया जा रहा है, जिसमें
फ़िंगर प्रिंट एवं आंख के चित्र शामिल होंगे.इनमें गड़बड़ी करना कठिन
होगा. दूसरा तर्क है कि देश की खाद्य सुरक्षा पर संकट आ सकता है. अभी
प्रमुख फ़सलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य उपलब्ध है. इससे किसान गेहूं और
चावल जैसी फ़सलों का अधिक उत्पादन कर रहे हैं. लाभार्थी को नगद सब्सिडी
देने पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा किसानों से खरीद नहीं की जायेगी
तथा समर्थन मूल्य पॉलिसी समाप्त हो जायेगी. किसान को उचित मूल्य की गारंटी
नहीं मिलेगी और खाद्यान्न उत्पादन गिर सकता है. समस्या सच्ची है. परंतु
इसके दूसरे विकल्प उपलब्ध हैं. सुझाव है कि समर्थन मूल्य पॉलिसी को जारी
रखा जाये. फ़ूड कारपोरेशन को ’फ़ूड ट्रेडिंग कारपोरेशन‘ में बदला जाये.
समर्थन मूल्य के अंतर्गत खाद्यान्न को खुले बाजार में बेचा जाये. खाद्यान्न
का उत्पादन अधिक होने पर फ़ूड कारपोरेशन खरीदकर भंडारण करे. जब उत्पादन कम
हो तो बिक्री कर माल उपलब्ध करा दे. इस तरह सार्वजनिक वितरण प्रणाली
समाप्त कर भी समर्थन मूल्य जारी रखा जा सकता है.

नगद सब्सिडी के विरुद्ध तीसरा तर्क जनता को सुदिशा देने का है. सोच है
कि जनता स्वयं सही निर्णय नहीं ले पाती. जैसे साठ के दशक में किसान
रासायनिक फ़र्टिलाइजर का उपयोग कम कर रहे थे, यद्यपि इनका उपयोग लाभप्रद
था. इसलिए लाभप्रद वस्तुओं को सस्ता बनाकर जनता को उसके उपयोग के लिए
प्रेरित करना चाहिए. इस आधार पर फ़र्टिलाइजर सब्सिडी देना शुरू हुआ था.
सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा देने का भी यही आधार है. मेरे आकलन में यह
तर्क सही नहीं है. जनता को मूर्ख माना जाये तो लोकतंत्र का आधार ही खिसक
जाता है. अनेक अध्ययन बताते हैं कि किसान मूल्यों के आधार पर फ़सलों का चयन
बखूबी करते हैं. यदि फ़र्टिलाइजर वास्तव में लाभप्रद है तो जनता उसे बिना
सब्सिडी के भी अपना लेगी. नगद सब्सिडी को सरकारी शिक्षा, स्वास्थ एवं जन
कल्याण तंत्र में भी विस्तार देने की जरूरत है. नगद वितरण को बीपीएल के
झंझट से मुक्त करना चाहिए. बीपीएल मात्र को सब्सिडी देने से गरीब बने रहने
की मनोवृत्ति बनती है. गरीब को चि:न्‍हित करने के विवाद भी होते हैं.

सुझाव है कि जन कल्याण खर्च एवं सब्सिडी की रकम को सभी जनता में वितरित
कर देना चाहिए. वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2009-2010 में सामाजिक
योजनाओं पर केंद्र एवं राज्य सरकारों ने 406 हजार करोड़ रुपये खर्च किये.
इसमें स्वास्थ एवं शिक्षा सेवाएं शामिल हैं. इनमें रिसर्च आदि को छोड़कर
शेष कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करें तो 300 हजार करोड़ की रकम बचती है.
150 हजार करोड़ विभिन्न सब्सिडी व 50 हजार करोड़ रोजगार गारंटी में खर्च
किये जा रहे हैं. इन तमाम योजनाओं को समाप्त करें तो 500 हजार करोड़
प्रतिवर्ष उपलब्ध हो सकते हैं. इसे देश के सभी 20 करोड़ परिवारों में 24
हजार रुपये प्रतिवर्ष की दर से बांटा जा सकता है. साथ ही अमीरों पर 2,400
रुपये प्रति वर्ष का अतिरिक्त टैक्स लगाया जा सकता है, क्योंकि उन्हें इतनी
रकम नगद सब्सिडी में मिलेगी. ऐसा करने से देश के हर परिवार को जीवन यापन
की न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध होंगी और जन कल्याण को माफ़िया से निजाद
मिलेगी.

(लेखक अर्थशास्त्रीहैं)

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