पटना, जागरण ब्यूरो: ‘जैविक बिहार’ विषय पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय
सम्मेलन में बुधवार को नई हरित क्रान्ति की प्रासंगिकता खाद्य सुरक्षा और
समेकित विकास के व्यापक संदर्भो में रेखांकित की गयी। वैज्ञानिकों ने
मिट्टी की सेहत और संतुलन में कमी, जीवांश खत्म होते जाने, जमीन का कार्बन
हवा में चले जाने और अंधाधुंध रसायनों के प्रयोग से मानव जीवन पर बढ़ रहे
खतरे को लेकर गहरी चिन्ता जताई।
पर्यावरण एक्टिविस्ट वंदना शिवा ने कहा कि हमारा मकसद जीवन को
‘इन्टेसिफाई’ करना होना चाहिये न कि उसमें जहर घोलना। पंजाब में खेती
गंभीर खतरे का सामना कर रही है। पानी का स्तर नीचे जा चुका है। उत्पादकता
और उर्वरता का क्षरण हो रहा है। रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशकों के प्रयोग
से पर्यावरण और मानव जीवन पर खतरा इतना बढ़ गया है वहां की हालत देखकर
हमारे दिल से ‘हाय पंजाब’ निकलता है। जबकि जैविक खेती की इस पहल को देखकर
बिहार के सदर्भो में ‘जय बिहार’।
उन्होंने कहा कि एक घन मीटर मिट्टी में 50 हजार केचुंए और एक घन इंच
में जमीन में 8 मील लंबा फंगस पाया जाता है। रासायनिक खाद और कीटनाशकों के
प्रयोग से ये जीवांश मर जाते हैं- जो दरअसल मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और
उसकी प्रक्रिया के उपकरण हैं। जैविक और अजैविक खेती का सह अस्तित्व संभव
है। जैविक खेती भविष्य में आने वाली पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं का हल भी
है। पर्यावरण में जिस तरह परिवर्तन हो रहा है वैसे में जैव विविधता संरक्षण
का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। यदि जमीन में अधिक मात्रा में खाद होता है
तो पच्चीस से तीस प्रतिशत जल धारण क्षमता बढ़ जाती है। जैव विविधता की
तीव्रता को बढ़ाने की जरूरत है। जैविक खेती द्वारा उत्पादकता में कमी आना
एक भ्रम है।
बुधवार से जैविक कृषि पर आरंभ हुए दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में
कृषि विज्ञानियों ने कहा कि परेशानी इस वजह से बढ़ी है कि जमीन का कार्बन
हवा में चला गया है। प्रथम तकनीकी सत्र में इस बात को काफी प्रमुखता से रखा
गया। प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के उप
महानिदेशक डा. ए के सिंह ने की।
चर्चा का आरंभ डा. एम. एच. मेहता के व्याख्यान से हुआ। डा. मेहता ने कहा
कि गरीबी और भूखमरी हटाना इस शताब्दी का सबसे बड़ा लक्ष्य है। जैविक खेती
द्वारा कम लागत और टिकाऊ तरीके से कृषि का विकास संभव है। संकट यह है कि
कार्बन को जमीन में रहना चाहिए था पर वह हवा में चला गया है। डा. मेहता ने
यह जानकारी दी कि भारत में पांच लाख किसान 1.08 लाख हेक्टेयर जमीन पर जैविक
खेती कर रहे हैं। बहु माइक्रोबियल एवं सरल तकनीक की जैविक खेती से कृषि की
लागत में 20 प्रतिशत की कमी आ सकती है और उत्पादकता में 20 प्रतिशत की
बढ़ोतरी हासिल की जा सकती है।
डा. ए. के. यादव ने कहा कि जैविक खेती के लिए सर्टिफिकेशन बाजार की
आवश्यकता है। जैविक खेती मोनो क्राप में लाभदायक नहीं होता बल्कि इसके लिए
मल्टीक्राप खेती की आवश्यकता है। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र गुजरात मेंसबसे
अधिक जैविक खेती की जाती है। पूरी दुनिया के अस्सी प्रतिशत जैविक काटन का
उत्पादन भारत द्वारा किया जा रहा है।
भूटान से आये डा. ए थीमैया ने कहा कि जैविक खेती भूटान की प्राथमिक कृषि
विधि है। पारंपरिक और स्थानीय बीज का उपयोग कर विभिन्न प्रकार के टमाटर और
सब्जियों का उत्पादन किया जा सकता है। जैविक बिहार आज बहुत ही प्रासंगिक
है। जैविक खेती का मुख्य उद्देश्य निर्यात करना नहीं है। हमें छोटे- छोटे
किसानों को प्रशिक्षण देकर उन्हें स्वावलंबी बनाना होगा कि वे खाद, बीज सब
खेत में ही तैयार करें उन्हें बाहर से इनपुट न लेना पड़े।
डा. ए.के. सिंह ने जैविक कृषि के लिए जल की गुणवत्ता के विभिन्न आयामों
पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि उत्तम गुणवत्ता पूर्ण जल का जैव कृषि में
महत्वपूर्ण योगदान है। विशेष रूप से सब्जियों की खेती में। जल में
गुणवत्ता के लिए गाइडलाइन भी बनायी गयी है। प्रकृति में उपलब्ध जल पूर्ण
रूप से शुद्ध नहीं होता। इसको उपचारित कर इसका प्रयोग किया जाना चाहिये।
अन्यथा इसका कुप्रभाव मानव एवं पशु स्वास्थ्य पर पड़ता है। नाइट्रेट एवं
फास्फोरस का उचित प्रबंधन करना चाहिये वरना यह भूजल को प्रदूषित करता है।
कैलोफोर्निया के डा. कारोल शेनान ने जैव कृषि में मिट्टी के उर्वरता
प्रबंधन पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के
लिए बहुत से जैव उर्वरक उपलब्ध हैं जैसे-प्रोक्ली, सूडान घास, मुर्गी पालन
से उपलब्ध खाद, बोन मील आदि। तावागवीसा मुजीरी ने कहा कि कार्बनिक खेती से
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है। डा.ए.सुब्बाराव ने
कहा कि हरी खाद अधिक पोषक तत्व देती है। देश में अधिकतर किसान पारम्परिक
कम्पोस्ट खाद का ही उपयोग करते हैं। फसल अवशेष का उपयोग विभिन्न कम्पोस्ट
बनाने में किया जा सकता है। डा. बम्वावाले ने कहा कि हमारे पास ऐसी बहुत सी
तकनीक उपलब्ध हैं जिससे बिना रसायन के कीट- व्याधियों को नियंत्रित किया
जा सकता है। लेकिन व्यवसायिक कृषि उत्पादन में इसका इस्तेमाल बहुत कम होता
है।