सिविल सोसायटी
और यूपीए सरकार के बीच लोकपाल बिल पर चला आ रहा गतिरोध एक तरह से समाप्त
हो गया है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी असहमतियों पर सहमत हैं। दोनों ही जल्द से
जल्द लोकपाल चाहते हैं, लेकिन नई व्यवस्था बनाने की प्रक्रियाओं के बारे
में वे एकमत नहीं हो सकते।
हकीकत यह है कि दोनों ही पक्ष मानते हैं कि वे लड़ाई जीत चुके हैं। बाबा
रामदेव ने अपने आंदोलन के दौरान जिस तरह की अतिभाषिता का परिचय दिया और जिस
तरह से संघ परिवार परिदृश्य में दाखिल हुआ, उसने एक व्यापक आंदोलन को
कमजोर किया।
संवाद प्रक्रिया के प्रति कोई जागरूकता नहीं दिखाई गई। सिविल सोसायटी की
अधिकतम सीमा यह थी कि प्रधानमंत्री और उच्चतर न्यायपालिका को लोकपाल के
दायरे में लाया जाए, लेकिन यही उनकी न्यूनतम सीमा भी थी। कोई भी निर्वाचित
सरकार अपना अवमूल्यन किए बिना ऐसी मांगों के सामने नहीं झुक सकती।
जहां तक यूपीए का सवाल है तो उसका वास्तविक संकट अन्ना हजारे और उनके साथी
नहीं हैं। उसका वास्तविक संकट भाजपा भी नहीं है, जो अब यह बता पाने में
विवश है कि बेंगलुरू में कर्नाटक के मुख्यमंत्री लोकायुक्त के दायरे में
क्यों नहीं आ सकते। सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रति वास्तविक चुनौती उसके अपने
रिकॉर्ड की है।
२जी घोटाला अब भी डीएमके के दिग्गजों की नाक में दम किए हुए है। कैग की
रिपोर्ट निजी क्षेत्र के एक मुख्य प्लेयर के लिए गैस के मूल्य निर्धारण के
संबंध में अहम सवाल खड़े करती है। कॉमनवेल्थ खेलों की पूरी कहानी अब भी
सामने आना बाकी है।
दो साल पहले कांग्रेस के लिए प्रधानमंत्री की बेदाग छवि एक बहुत बड़ी
चुनावी संपत्ति थी। वे आज भी निजी आरोपों से अछूते हैं, लेकिन लगता है कि
चीजें अब उनके नियंत्रण से बाहर होती जा रही हैं। पार्टी प्रमुख के समक्ष
सरकार के मुखिया की कमजोर स्थिति वाली यह अजीबोगरीब व्यवस्था वर्ष 1948 में
नेहरू और आचार्य कृपलानी के बीच हुए सुप्रसिद्ध शक्ति परीक्षण की याद
दिलाती है।
एक ऐसे प्रधानमंत्री के लिए अहम संरचनागत परिवर्तनों को प्रभावित करना कठिन
ही होगा, जिसका अपना कोई राजनीतिक आधार न हो। परिवार और पार्टी की 37 साल
लंबी परंपरा को तोड़ते हुए सोनिया और राहुल ने सरकार से दूरी बनाए रखना तय
किया है। जब नेहरू, इंदिरा या राजीव क्रमश: 17, 15 और 5 वर्षो तक
प्रधानमंत्री थे, तब कभी किसी को इस बात में कोई संदेह नहीं रहा था कि
परिस्थितियां पूरी तरह किसके नियंत्रण में हैं।
राहुल गांधी के राज्यारोहण की प्रतीक्षा की जा रही है। वे विभिन्न नीतिगत
मसलों पर धावा बोल देते हैं, लेकिन वे कभी किसी एक विषय पर पर्याप्त समय तक
केंद्रितनहीं रहते। इस बात पर भी बहस होना अभी बाकी है कि बिहार, केरल और
तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों में युवा उम्मीदवारों को हार का सामना क्यों
करना पड़ा।
विद्यार्थियों और मीडिया से चर्चा करते हुए राहुल गांधी ने किसी भी सांसद
की तुलना में अधिक रेडिकल बातें कही हैं, जैसे: चुनावी राजनीति महंगा सौदा
है, इसके दरवाजे राजनीतिक घरानों के सदस्यों या रईसों और रसूखदारों के सिवा
सभी के लिए बंद होते हैं। ये बातें बहुत अच्छी हैं, लेकिन सवाल यह है कि
उन्होंने इन समस्याओं का सामना करने के लिए यूथ विंग या कांग्रेस में
वास्तव में कितनी ऊर्जा का संचार किया है?
किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी के लिए सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों और चुने गए
विकल्पों की दिशा स्पष्ट होनी चाहिए। लेकिन मौजूदा हालात देखकर लगता है
२क्क्९ के आम चुनाव के बाद सरकार की गति अवरुद्ध हो गई है। जिन लोगों ने
सोचा था कि वाम दलों की रुखसती के बाद तेजी से आर्थिक सुधार होंगे, वे
निराश हुए हैं।
जो गरीबों के कल्याण के लिए सशक्त नीतियों के पक्षधर थे, वे भी खाद्य
सुरक्षा बिल पास होने का इंतजार कर रहे हैं। किसानों को ध्यान में रखकर भू
अधिग्रहण नीति बनाने के मामले में सरकार हरियाणा और उत्तरप्रदेश से भी पीछे
है। वन अधिकार और सूचना का अधिकार अधिनियम पिछले सदन में पास किए गए थे।
दोनों ही मामलों में सरकार के समक्ष कई विचार और सुझाव थे और परिणाम
समृद्धकारी रहे।
इसके बावजूद हालात बदल गए। लोकतंत्र का बीज भले ही 1950 में लागू हुए
संविधान और 1952 के बाद से लगातार हो रहे आम चुनावों ने बोया हो, लेकिन
लोकतांत्रिक प्रतिरोध हाल के सालों में ही जमीनी स्तर पर नई ऊर्जा से भर
पाए हैं।
पहले उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ और फिर नोएडा में किसानों द्वारा किए गए दो
विरोध प्रदर्शनों के बाद मायावती सरकार को अपनी नीतियों में संशोधन करना
पड़ा। फरीदाबाद-मानेसर ऑटो प्लांट्स में 50 हजार कामगारों की हड़ताल को
पुलिस ने कुचलने की कोशिश नहीं की, उनके साथ समझौते के प्रयास किए गए।
ओडीशा के जगतसिंघपुर में जिन ग्रामीणों की भूमि स्टील प्लांट के लिए
अधिगृहीत कर ली गई है, वे अहिंसक प्रतिरोध कर रहे हैं। बाजार आधारित विकास
अब लोकतांत्रिक ढांचे की सीमाओं से जूझने लगा है।
भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों का जोर नेताओं पर है, लेकिन वे
भ्रष्टाचार के कॉपरेरेट आयामों के बारे में लगभग कुछ नहीं कह रहे हैं।
टेलीकॉम, गैस, कोयला और रियल एस्टेट संबंधी विवादों के बाद यह एक गंभीर चूक
है।
अधिकांश राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आने के बाद खामोशी अख्तियार कर लेती
हैं। भारत को संतुलन की दरकार है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिरोध के
/> स्वरमुखर हो सकते हैं। लोकतंत्र में यह भी संभव है कि शासकों को सत्ता से
बेदखल कर दिया जाए। लेकिन भारत में लोकतंत्र को राजतंत्र की एक लंबी विरासत
से जूझना पड़ता है।
उसे एक ऐसे सामाजिक ढांचे से जूझना पड़ता है, जहां गुणवत्ता से अधिक जोर इस
बात पर होता है कि आपके माता-पिता कौन थे। लोकतंत्र के पैर मजबूत करने के
लिए नियम-कायदों की दरकार है, लेकिन नियम-कायदे केवल व्यवस्थापिका पर ही
नहीं, बल्कि कॉपरेरेट पर भी लागू होने चाहिए। तभी असंतोष का यह दौर सुधारों
का पथ प्रशस्त कर सकेगा।
और यूपीए सरकार के बीच लोकपाल बिल पर चला आ रहा गतिरोध एक तरह से समाप्त
हो गया है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी असहमतियों पर सहमत हैं। दोनों ही जल्द से
जल्द लोकपाल चाहते हैं, लेकिन नई व्यवस्था बनाने की प्रक्रियाओं के बारे
में वे एकमत नहीं हो सकते।
हकीकत यह है कि दोनों ही पक्ष मानते हैं कि वे लड़ाई जीत चुके हैं। बाबा
रामदेव ने अपने आंदोलन के दौरान जिस तरह की अतिभाषिता का परिचय दिया और जिस
तरह से संघ परिवार परिदृश्य में दाखिल हुआ, उसने एक व्यापक आंदोलन को
कमजोर किया।
संवाद प्रक्रिया के प्रति कोई जागरूकता नहीं दिखाई गई। सिविल सोसायटी की
अधिकतम सीमा यह थी कि प्रधानमंत्री और उच्चतर न्यायपालिका को लोकपाल के
दायरे में लाया जाए, लेकिन यही उनकी न्यूनतम सीमा भी थी। कोई भी निर्वाचित
सरकार अपना अवमूल्यन किए बिना ऐसी मांगों के सामने नहीं झुक सकती।
जहां तक यूपीए का सवाल है तो उसका वास्तविक संकट अन्ना हजारे और उनके साथी
नहीं हैं। उसका वास्तविक संकट भाजपा भी नहीं है, जो अब यह बता पाने में
विवश है कि बेंगलुरू में कर्नाटक के मुख्यमंत्री लोकायुक्त के दायरे में
क्यों नहीं आ सकते। सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रति वास्तविक चुनौती उसके अपने
रिकॉर्ड की है।
२जी घोटाला अब भी डीएमके के दिग्गजों की नाक में दम किए हुए है। कैग की
रिपोर्ट निजी क्षेत्र के एक मुख्य प्लेयर के लिए गैस के मूल्य निर्धारण के
संबंध में अहम सवाल खड़े करती है। कॉमनवेल्थ खेलों की पूरी कहानी अब भी
सामने आना बाकी है।
दो साल पहले कांग्रेस के लिए प्रधानमंत्री की बेदाग छवि एक बहुत बड़ी
चुनावी संपत्ति थी। वे आज भी निजी आरोपों से अछूते हैं, लेकिन लगता है कि
चीजें अब उनके नियंत्रण से बाहर होती जा रही हैं। पार्टी प्रमुख के समक्ष
सरकार के मुखिया की कमजोर स्थिति वाली यह अजीबोगरीब व्यवस्था वर्ष 1948 में
नेहरू और आचार्य कृपलानी के बीच हुए सुप्रसिद्ध शक्ति परीक्षण की याद
दिलाती है।
एक ऐसे प्रधानमंत्री के लिए अहम संरचनागत परिवर्तनों को प्रभावित करना कठिन
ही होगा, जिसका अपना कोई राजनीतिक आधार न हो। परिवार और पार्टी की 37 साल
लंबी परंपरा को तोड़ते हुए सोनिया और राहुल ने सरकार से दूरी बनाए रखना तय
किया है। जब नेहरू, इंदिरा या राजीव क्रमश: 17, 15 और 5 वर्षो तक
प्रधानमंत्री थे, तब कभी किसी को इस बात में कोई संदेह नहीं रहा था कि
परिस्थितियां पूरी तरह किसके नियंत्रण में हैं।
राहुल गांधी के राज्यारोहण की प्रतीक्षा की जा रही है। वे विभिन्न नीतिगत
मसलों पर धावा बोल देते हैं, लेकिन वे कभी किसी एक विषय पर पर्याप्त समय तक
केंद्रितनहीं रहते। इस बात पर भी बहस होना अभी बाकी है कि बिहार, केरल और
तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों में युवा उम्मीदवारों को हार का सामना क्यों
करना पड़ा।
विद्यार्थियों और मीडिया से चर्चा करते हुए राहुल गांधी ने किसी भी सांसद
की तुलना में अधिक रेडिकल बातें कही हैं, जैसे: चुनावी राजनीति महंगा सौदा
है, इसके दरवाजे राजनीतिक घरानों के सदस्यों या रईसों और रसूखदारों के सिवा
सभी के लिए बंद होते हैं। ये बातें बहुत अच्छी हैं, लेकिन सवाल यह है कि
उन्होंने इन समस्याओं का सामना करने के लिए यूथ विंग या कांग्रेस में
वास्तव में कितनी ऊर्जा का संचार किया है?
किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी के लिए सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों और चुने गए
विकल्पों की दिशा स्पष्ट होनी चाहिए। लेकिन मौजूदा हालात देखकर लगता है
२क्क्९ के आम चुनाव के बाद सरकार की गति अवरुद्ध हो गई है। जिन लोगों ने
सोचा था कि वाम दलों की रुखसती के बाद तेजी से आर्थिक सुधार होंगे, वे
निराश हुए हैं।
जो गरीबों के कल्याण के लिए सशक्त नीतियों के पक्षधर थे, वे भी खाद्य
सुरक्षा बिल पास होने का इंतजार कर रहे हैं। किसानों को ध्यान में रखकर भू
अधिग्रहण नीति बनाने के मामले में सरकार हरियाणा और उत्तरप्रदेश से भी पीछे
है। वन अधिकार और सूचना का अधिकार अधिनियम पिछले सदन में पास किए गए थे।
दोनों ही मामलों में सरकार के समक्ष कई विचार और सुझाव थे और परिणाम
समृद्धकारी रहे।
इसके बावजूद हालात बदल गए। लोकतंत्र का बीज भले ही 1950 में लागू हुए
संविधान और 1952 के बाद से लगातार हो रहे आम चुनावों ने बोया हो, लेकिन
लोकतांत्रिक प्रतिरोध हाल के सालों में ही जमीनी स्तर पर नई ऊर्जा से भर
पाए हैं।
पहले उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ और फिर नोएडा में किसानों द्वारा किए गए दो
विरोध प्रदर्शनों के बाद मायावती सरकार को अपनी नीतियों में संशोधन करना
पड़ा। फरीदाबाद-मानेसर ऑटो प्लांट्स में 50 हजार कामगारों की हड़ताल को
पुलिस ने कुचलने की कोशिश नहीं की, उनके साथ समझौते के प्रयास किए गए।
ओडीशा के जगतसिंघपुर में जिन ग्रामीणों की भूमि स्टील प्लांट के लिए
अधिगृहीत कर ली गई है, वे अहिंसक प्रतिरोध कर रहे हैं। बाजार आधारित विकास
अब लोकतांत्रिक ढांचे की सीमाओं से जूझने लगा है।
भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों का जोर नेताओं पर है, लेकिन वे
भ्रष्टाचार के कॉपरेरेट आयामों के बारे में लगभग कुछ नहीं कह रहे हैं।
टेलीकॉम, गैस, कोयला और रियल एस्टेट संबंधी विवादों के बाद यह एक गंभीर चूक
है।
अधिकांश राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आने के बाद खामोशी अख्तियार कर लेती
हैं। भारत को संतुलन की दरकार है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिरोध के
/> स्वरमुखर हो सकते हैं। लोकतंत्र में यह भी संभव है कि शासकों को सत्ता से
बेदखल कर दिया जाए। लेकिन भारत में लोकतंत्र को राजतंत्र की एक लंबी विरासत
से जूझना पड़ता है।
उसे एक ऐसे सामाजिक ढांचे से जूझना पड़ता है, जहां गुणवत्ता से अधिक जोर इस
बात पर होता है कि आपके माता-पिता कौन थे। लोकतंत्र के पैर मजबूत करने के
लिए नियम-कायदों की दरकार है, लेकिन नियम-कायदे केवल व्यवस्थापिका पर ही
नहीं, बल्कि कॉपरेरेट पर भी लागू होने चाहिए। तभी असंतोष का यह दौर सुधारों
का पथ प्रशस्त कर सकेगा।