हमें राजनीति में विकल्प चाहिए, राजनीति के विकल्प चाहिए या फ़िर
वैकल्पिक राजनीति चाहिए? अन्ना हजारे और बाबा रामदेव प्रकरण ने यह सवाल देश
के सामने खड़ा कर दिया है. इसका उत्तर न तो रामदेव के पास था, न अन्ना
हजारे के पास लगता है. इस गहरे सवाल का जवाब खुद अपने भीतर खंगालने से ही
मिलेगा.
यह सवाल उठता ही नहीं अगर भ्रष्टाचार के सवाल पर सरकार की साख बची होती.
ईमानदार प्रधानमंत्री की सरकार बेईमानी की छवि में आकंठ डूबी है. यह जरूरी
नहीं कि यह सरकार पिछली सरकारों से ज्यादा भ्रष्ट हो. संभव है कि सब
सरकारें भ्रष्ट रही हों, इस बार भ्रष्टाचार की चर्चा और भंडाफ़ोड़ ज्यादा
हो रहा हो. यह भी संभव है कि एक दिशाहीन और थकी सरकार को उखाड़ने के लिए
ले-देकर भ्रष्टाचार का मुद्दा ही हाथ लगता है. जो भी हो, यह तय है कि अब
प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि सरकार की साख को बचा नहीं सकती है. खुद पैसा
न खाने वाले लेकिन पैसा खाने वालों से घिरे और बेबस नेता को अब ईमानदार
कहना मुश्किल होता जा रहा है.
यह सवाल इतना गहरा और तीखा न होता अगर मामला सिर्फ़ दिल्ली की सरकार का
होता. मनमोहन सिंह की सरकार दिल्ली में कुछ कर रही है या नहीं इससे आम
व्यक्ति को बहत लेना-देना नहीं होता. सरकार का भ्रष्टाचार उसके लिए पटवारी,
बाबू और थाने का भ्रष्टाचार है. अगर उसके लिए कलमाड़ी और राजा मुद्दे बनते
हैं तो इसलिए चूंकि वह हर दफ्तर में किसी कलमाड़ी को देखता है, हर सरकारी
ठेके में उसे किसीराजा का हाथ नजर आता है. दिल्ली की सरकार के भ्रष्टाचार
के प्रति जनाक्रोश पूरी व्यवस्था के प्रति अविश्वास का प्रतीक है.
यह सवाल उतना असंभव न लगता अगर स्थापित राजनीति में भ्रष्टाचार के
विकल्प दिखते. बोफ़ोर्स का सवाल जनता के दरबार में एक राजनेता ने उठाया था,
किसी गैर राजनीतिक जनांदोलन ने नहीं. लेकिन आज किसी पार्टी की ऐसी साख
नहीं कि वह भ्रष्टाचार के सवाल पर देश को आंदोलित कर सके. भाजपा अगर इस
सवाल पर बयानबाजी और रस्मी विरोध से आगे बढ़ेगी तो उसे कर्नाटक में अपनी
सरकार की करतूतों का जवाब देना पड़ेगा. प्रधानमंत्री पर उंगली उठाने पर
लोकसभा में विपक्ष की नेता को बेल्लारी के खदान माफ़िया से अपने संबंधों के
बारे में सफ़ाई देनी पड़ेगी. नीतीश कुमार और शिवराज सिंह चौहान व्यक्तिगत
रूप से भले ही ईमानदार हों, लेकिन उनका प्रशासन ईमानदार है ऐसा दावा तो वे
खुद भी नहीं कर पायेंगे. दूसरों की तुलना में माकपा के नेता आज भी बेहतर
हैं. लेकिन केरल व बंगाल में वाममोर्चे की सरकारों में भी शीर्ष के नेता
साफ़ थे, राज-काज भ्रष्टाचार में डूबा था. बसपा, सपा, राजद या फ़िर
द्रमुक-अन्नाद्रमुक जैसी पार्टियों की तो इस सन्दर्भ में चर्चा ही फ़िजूल
है.
स्थापित राजनीति के स्थापित विकल्पों से निराश आम नागरिक राजनीति को
मुसीबत की जड़ मानता है अखबार और टीवी इस राजनीति द्वेष को हवा देते हैं.
ऐसी तसवीर पेश करते हैं मानो इस देश के अफ़सर, व्यापारी, डॉक्टर और अध्यापक
सदाचारी हैं और सिर्फ़ नेताबेईमान हैं, या फ़िर बाकी सब की बेईमानी के
लिए राजनेता जिम्मेवार हैं. इसलिए जब कोई गैर-राजनीतिक व्यक्ति या संगठन
भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज उठाता है तो जनता की सहानुभूति उनसे जुड़ती है.
जनमत के सहारे ये छोटे व्यक्ति या संगठन रातों-रात राष्ट्रीय पटल पर छा
जाते हैं. सरकार का तख्ता हिलता दिखाई देता है. लेकिन तभी राजनीति विरोध की
इस राजनीति की सीमाएं दिखाई देने लगतीहैं. पिछले कुछ हफ्तों में हमने देखा
है कि राजनीति के इन विकल्पों के सहारे भ्रष्टाचार का मुकाबला नहीं हो
सकता.
बाबा रामदेव का आन्दोलन राजनीति विरोध की राजनीतिक सीमाओं की एक मिसाल
है. योग, धर्म और आस्था के संगम का प्रतीक बने बाबा के अनशन ने लाखों या
शायद करोड़ों भारतीयों के मन में राजनीति के शुद्धीकरण की आस जगाई थी. अब
जाहिर है कि बाबा के पास न तो र्धम की नैतिक शक्ति थी, न गुरु की मर्यादा
और न ही योगी की स्थितप्रज्ञता. अब जब बाबा के ट्रस्टों की संपत्ति की बात
निकली है तो लगता है दूर तलक जायेगी. अन्ना हजारे और उनकी टीम का अनुभव
इतना बुरा नहीं है. उनके आन्दोलन में नैतिक बल और मर्यादा का पुट ज्यादा
था. लेकिन गांधीवादी अनशन करना एक बात है और उसके सहारे आन्दोलन को परिणती
तक पंहचाना दूसरी बात है. अनशन समाप्त होने के बाद से अन्ना की टीम का आचरण
अटपटा ऩजर आता है. उनकी मांगो में सत्य के आग्रह से ज्यादा हठ, उनके
बयानों में संयम की कमी और रणनीति में राजनीतिक सूझ-बूझ की कमी दिखाई देती
है.बेशक, सरकार और उसके गुगरें ने अन्ना के सहयोगियों को बदनाम करने और
उनमें फ़ूट के बीज बोने में कसर नहीं छोड़ी. लेकिन एक आन्दोलनकारी को इसकी
शिकायत करने का हक़ नहीं है.
अन्ना और रामदेव के आन्दोलन एक ओर तो स्थापित राजनीति के खोखलेपन और एक
विकल्प की अनिवार्यता को जाहिर करते हैं. दूसरी ओर ये दोनों आन्दोलन गैर
राजनीतिक व राजनीति विरोधी विकल्पों की सीमाए भी दर्शाते हैं. देश को जिस
विकल्प की तलाश है. वो न तो सत्ताधारी दल के बाहर स्थापित दलों में मिलेगा.
देश को राजनीतिक विकल्पों की नहीं एक वैकल्पिक राजनीति की तलाश है. उस
वैकल्पिक राजनीति की तलाश करने के लिए हमें अंधेरे में लालटेन लेकर निकलने
की जरूरत नहीं है. इसके लिए जरूरीविचार और ऊर्जा देश के भीतर मौजूद है.
इनकी दृष्टि भी व्यापक है.
विडम्बना यह है कि जिस वैकल्पिक राजनीति की तलाश देश को है वो खुद जनता
की तलाश में है. हमारे सामने होते हए भी टीवी के पर्दो से ओझल है, अख़बार
के पन्नों से गायब हैं, जनमानस पर दर्ज नहीं होता, भ्रष्टाचार विरोधी
आंदोलनों की ऊर्जा का एक छोटा सा भी अंश जनता को इस वैकल्पिक राजनीति से
जोड़ने में लग जाये, तो देश नैराश्यबोध से बच सकता है.