राजशक्ति बनाम बाबाशक्ति- योगेन्द्र यादव

बेताल ने विक्रमादित्य से पूछा,‘कल तक जो सरकार बाबा रामदेव के सामने
बिछी जा रही थी, वही अचानक दल-बल सहित उनके आंदोलन पर चढ़ क्यों बैठी? अगर
बाबा लोकशक्ति के प्रतीक हैं तो सरकार की हिम्मत कैसे हुई कि उनके अनशन को
तोड़े? अगर बाबा झूठे हैं, तो सरकार उनसे इतनी डरी क्यों थी?’ इक्कीसवीं
सदी के बेताल और विक्रमादित्य किसी पेड़ नहीं बल्कि एक बड़ी टीवी स्क्रीन
के नीचे खड़े थे. पिछले 24 घंटों से रामलीला मैदान से प्रसारित हो रही
छवियों का रसास्वादन कर रहे थे. टीवी रिपोर्टर पुलिस की ज्यादतियों की
दास्तान सुना रहे थे. जलियांवाला बाग से तुलना हो चुकी थी. उधर हरिद्वार से
बाबा रामदेव उवाच प्रसारित हो रहा था. इस कोलाहल के बीच अचानक म्यूट का
बटन दबा कर बेताल ने अपना प्रश्न दागा था.

विक्रमादित्य को एक बार तो लगा कि इस प्रश्न का उत्तर असंभव है. यूपीए
सरकार कब क्या करती है और क्यों, ये तो ऊपर वाला ही बता सकता है. जब भी सौ
प्याज और सौ जूते में से चुनने की नौबत आती है, तो ये सरकार पहले निन्यानवे
प्याज खाती है और फ़िर तौबा-तौबा करते हुए सौ जूते भी. यही नाटक तेलंगाना
में हुआ, यही जातीय जनगणना के मामले में हो रहा है. बाबा रामदेव प्रकरण इस
दिशाहीनता का अपवाद क्यों हों? जब सरकार मान- मनौव्वल कर रही थी तो उदार
नहीं कमजोर नजर आती थी. अब संकल्पवान नहीं बल्कि आततायी नजर आ रही है. पहले
बाबा विरोधी सरकार से खिन्न हुए. अब बाबा समर्थक सरकार से क्षुब्ध हैं.
यही इस सरकार की नियति है. लेकिन उसी क्षण विक्रमादित्य को एहसास हुआ कि
अगर ऐसा है भी तो यह केवल संयोग नहीं हो सकता. बेताल का सवाल अपनी जगह खड़ा
है, उत्तर खोजना ही पड़ेगा.

विक्रमादित्य के मन में कई जवाब कौंधे. वह चाहता तो परदे के पीछे दिल्ली
दरबार के नाटक का खुलासा कर सकता था. दिल्ली में अखबारनवीसी करते-करते
विक्रमादित्य को भी अब अंदर की खबर रहती थी. बता सकता था कि पीएम को लिखी
चिट्ठी का रहस्य क्या था. बाबा व सरकार में ’सेटिंग’ का खुलासा कर सकता था.
दिल्ली दरबार में किसने किसे टंगड़ी मारी, समझौता होता तो किसकी गुड्डी
चढ़ती, नहीं हुआ तो किसका नफ़ा हुआ. लेकिन आज उसे ऐसे जवाब व्यर्थ नजर आये.
दिल्ली दरबार के बड़े-बड़े खिलाड़ी उसे एक दूसरी बिसात के छोटे-छोटे मोहरे
नजर आये. उसे दिख रहा था कि चेहरे बदल भी जाते तो किस्सा नहीं बदलता.
उत्तर कहीं गहरे ही ढूंढना पड़ेगा.

टीवी गूंगा था, लेकिन छवियों का हमला जारी था. परदे पर जलियांवाला बाग
से तुलना का एक बयान चल रहा था. विक्रमादित्य का ध्यान बंटा. मन हुआ कि
बेताल को कंधे पर लादकर देश के कोने-कोने में ले जाये और उसे दिखाए कि
पुलिस की जोर जबरदस्ती का मतलब क्या होता है. कश्मीर और मणिपुर की घाटी
में, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के जंगलों में, देश के कोने-कोने में जहां भी
मजदूरों और किसानों के आंदोलन चल रहे हैं. वो दिखाना चाहता था कि जो कल
दिल्ली में हुआ वो इस देश में हररोज कहीं न कहीं होता है. टीवी से पूछना
चाहता था कि पुलिस की ज्यादती तभी खबर क्यों बनती है जब वो दिल्ली के
आस-पास होती है? कभी कोई सलवा जुडूम और कश्मीर के आंदोलन पर संसद के
अधिवेशन की मांग क्यों नहीं करता?

टीवी पर नैतिक शक्ति के एक बयान ने उसे फ़िर बेताल के सवाल की ओर मोड़ा.
हां, सीधा जवाब तो है. सरकार बाबा से इसलिए डरी हुई थी कि राजसत्ता को
नैतिक शक्ति के सामने झुकना पड़ता है. लेकिन यहां भी मामला उलझा हुआ था.
बाबा के पास लोकप्रियता है, भक्तों और चेलों की फ़ौज है, देश के कोने-कोने
में लाखों लोगों की कृतज्ञता की पूंजी भी है. उनकी भाषा में आम आदमी की
चिंता है, लेकिन अब भी उनके पास वो नैतिक आभा नहीं है, जो अन्ना हजारे के
पास है. जनसंघर्ष और जनांदोलन का वह अनुभव नहीं है जो इस देश के हजारों
राजनीतिक कार्यकर्ताओं के पास है.

सरकार बाबा की नैतिक आभा से नहीं, खुद अपनी भ्रष्ट छवि से डरी हुई थी.
देश का आम आदमी मानता है कि नेताओं ने देश को लूट कर अकूत संपत्ति देश के
बाहर जमा की हुई है. भ्रष्टाचार के मामले में कोई पार्टी दूध से धुली नहीं
है. कर्नाटक के अनुभव के बाद भाजपा तो कतई नहीं. पर इस सवाल पर कांग्रेस की
छवि कुछ ज्यादा ही खराब है. पिछले सात साल से एक ईमानदार प्रधानमंत्री
वाली इस सरकार ने एक कदम भी नहीं उठाया है जिससे यह भरोसा बने कि सरकार इस
काले धन को वापस लाने के बारे में गंभीर है. बाबा के अनशन से सरकार को यह
सवाल उठने का डर था. यह सवाल एक धर्मगुरु उठाये उससे सरकार को अपने अधर्म
का पर्दाफ़ाश होने की चिंता थी. लेकिन अगर ऐसा था तो सरकार की इसे भंग
करने की हिम्मत कैसे हुई? जाहिर है, कपिल सिब्बल और बाबा की बातचीत में
काफ़ी कुछ ऐसा रहा होगा जिसका खुलासा अभी नहीं हुआ है.

अब तक टीवी स्क्रीन को ताकते-ताकते बेताल बोर और अधीर हो चुका था. जाहिर
है वो कोई लंबा जवाब सुनने के मूड में नहीं था. अपनी ही विचार यात्रा से
थके विक्रमादित्य ने एक संक्षिप्त सा उत्तर दिया. ’ऊपर से देखने पर सरकार
और बाबा रामदेव एक-दूसरे के विरोधी हैं. पहली नजर में खुद सरकार की दोनों
भूमिकाएं विरोधाभासी हैं. लेकिन एक गहरे स्तर पर राजनीति और धर्म दोनों का
ह्रास राजशक्ति और बाबाशक्ति को जोड़ता है. जब राजनीति में धर्म चुक जाता
है तो राजनेता धर्मगुरुओं और बाबाओं के सामने बिछने लगता है. जब राजसत्ता
से नैतिक शक्ति का दंड गायब होता है तो उसके पास सिर्फ़ डंडा बचता है. जब
धर्म के दावों से सत्य की खनक गायब होने लगती है तो नीति विहीन राजनीति
हावी होने लगती है.’

विक्रमादित्य के कंधे से उतर बदस्तूर गायब होने से पहले बेताल ने रिमोट से टीवी बंद कर दिया था.

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