दिसंबर
2008 में मैं आईआईटी मद्रास में भारतीय लोकतंत्र की अपूर्णताओं पर बोल रहा
था। इन्हीं में से एक बिंदु था राजनीतिक वंशवाद। मेरे बाद कनिमोझी का
व्याख्यान था। उन्होंने मेरे वक्तव्य के कुछ अंशों का खंडन करने का प्रयास
किया। उन्होंने कहा कि मैं युवा भारतीयों को अपनी पसंद का कॅरियर चुनने से
रोक रहा हूं। यदि किसी क्रिकेटर का बेटा क्रिकेटर बन सकता है और किसी
संगीतकार की बेटी संगीतकार बन सकती है तो निश्चित ही किसी राजनेता के पुत्र
या पुत्री के राजनीति में आने पर एतराज करना अलोकतांत्रिक है।
मैं उनके तर्को से सहमत न हुआ। पहली बात तो यह कि राजनेताओं के
नाते-रिश्तेदार सीधे उच्चस्तरीय राजनीति से अपनी पारी की शुरुआत करते हैं।
या तो वे कनिमोझी और राहुल गांधी की तरह सीधे सांसद बन जाते हैं या राजीव
गांधी की तरह पार्टी महासचिव बन जाते हैं या राबड़ी देवी की तरह सीधे
मुख्यमंत्री भी बन जाते हैं। लेकिन जिस व्यक्ति के कोई संपर्क न हों, उसे
पार्टी कार्यकर्ता के रूप में शुरुआत करनी पड़ेगी। दूसरी बात यह कि
राजनेताओं के सगे-संबंधी अनुचित रूप से सत्ता और संरक्षण का उपभोग करते
हैं। युवराज सिंह जो विज्ञापन करते हैं और उन्हें उसके लिए जो भुगतान किया
जाता है, वह उनके द्वारा मैदान पर किए जाने वाले प्रदर्शन का परिणाम हैं।
यहां यह तथ्य अप्रासंगिक है कि उनके पिता भी भारत के लिए क्रिकेट खेल चुके
हैं। दूसरी तरफ यदि अलागिरी या दयानिधि मारन प्रभावशाली राजनेताओं के पुत्र
न होते तो क्या वे कभी कैबिनेट मंत्री बन पाते?
बड़े नेताओं के पुत्रों या पुत्रियों द्वारा राजनीति में प्रवेश करने पर
उनकी पार्टी का महत्व घटता है। द्रमुक और अकाली दल दोनों ने ही सामाजिक
सुधारवादी दलों के रूप में शुरुआत की थी। द्रमुक ने जातिगत स्तर पर समानता
लाने का प्रयास किया तो अकाली दल ने सिखों को भ्रष्ट धर्मगुरुओं के
नियंत्रण से मुक्त कराने का प्रयास किया। दोनों ने ही क्षेत्रीय हितों को
उचित स्थान दिया। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने पिछड़ों और
वंचितों के हितों की रक्षा करने का दावा किया। वह विचाराधाराओं की राजनीति
का दौर था, लेकिन नेताओं की संतानों द्वारा राजनीति में प्रवेश करने के साथ
ही उनका ध्यान उन्हें सत्ता का हस्तांतरण करने पर केंद्रित हो गया। दस या
पांच साल पहले तक भी इन आलोचनाओं के प्रति कई मध्यवर्गीय भारतीयों का रवैया
भाग्यवादी ही रहता था। मुझे बताया गया है कि यह हमारे डीएनए में ही था।
हमारी याददाश्त तो हमें यही बताती थी कि बहुतेरी पार्टियां राजनीतिक
परिवारों द्वारा संचालित की जाती हैं। तो अब यह स्थिति कैसे बदल सकती थी?
हो सकता है अब चीजें बदलने लगें। वर्ष 2010 के बिहार चुनावों से ठीक पहले
लालू प्रसाद यादव ने अपने युवा पुत्र को मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत किया।
लेकिन नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने राजद को
चुनाव में कड़ीशिकस्त दी, जिन्होंने अपने परिजनों को राजनीति से दूर ही
रखा था। तमिलनाडु चुनाव से पहले एम करुणानिधि ने मतदाताओं को याद दिलाया कि
उनके द्वारा दशकों से तमिलों की सेवा की जा रही है। उनकी अपील खारिज कर दी
गई। तमिलों ने साहित्य में उनके योगदान को सराहा, लेकिन द्रमुक का एक
फैमिली फर्म में तब्दील होकर रह जाना उन्हें नहीं सुहाया। कई विशेषज्ञों ने
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत का अनुमान लगाया था, लेकिन यह किसी
ने नहीं कहा था कि तमिलनाडु में लड़ाई इतनी एकतरफा साबित होगी। बिहार से भी
ज्यादा तमिलनाडु को वंशवादी राजनीति के निषेध के रूप में देखा जाना चाहिए।
विद्वान विश्लेषक मुझे यह भी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी
पार्टी के पतन का प्रारंभ अखिलेश यादव को उनके पिता मुलायम सिंह यादव के
उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत करने के बाद हुआ था। अन्य नेताओं ने इससे
स्वयं को उपेक्षित महसूस किया और वे दूसरी पार्टियों में चले गए। वंशवादी
राजनीति के प्रति निषेध का भाव स्पष्ट जरूर है, लेकिन अभी यह व्यापक पैमाने
पर नहीं है। अगले साल पंजाब और उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव के बाद
बादल और यादव परिवार के साथ ही गांधी परिवार का भी भाग्य निर्धारित हो
जाएगा। इसके बावजूद हालिया रुझान तो यही बताते हैं कि आम आदमी कनिमोझी से
सहमत होने के बजाय मुझसे सहमत होगा।
वास्तव में यह संकेत भी मिल रहे हैं कि आम आदमी अब उन नेताओं को ज्यादा से
ज्यादा प्राथमिकता देना चाहेगा, जिनकी या तो कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं
है या जिनका अपने परिवार से कोई प्रत्यक्ष कनेक्शन नहीं है। मैंने नीतीश
कुमार का जिक्र किया। कोई नहीं जानता कि नीतीश के भाई या उनके बच्चे क्या
करते हैं। कुछ अन्य मुख्यमंत्री तो परिवार से और दूरी बनाए रखते हैं।
मायावती, नरेंद्र मोदी, जयललिता, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, ये सभी
अविवाहित हैं। निश्चित ही, नाते-रिश्तेदारों की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति ने ही
उन्हें स्वयं को अपने राज्य के हितों के प्रति समर्पित नेताओं के रूप में
प्रस्तुत करने में सहायता की है।
राजनीतिक वंशवाद के पतन पर भारतीय लोकतंत्र थोड़ी खुशी का अनुभव कर सकता
है। अलबत्ता जहां एक तरफ यह प्रवृत्ति फिर पनप सकती है, वहीं दूसरी तरफ यह
भी उल्लेखनीय है कि उसका स्थान लेने वाली नई परिपाटी भी लोकतांत्रिक
परंपराओं के बहुत अनुरूप नहीं है। आज तकरीबन आधे दर्जन राज्य किसी एक
व्यक्ति के इरादों या उसकी मनमर्जी के बंधक हैं। मुख्यमंत्री के रूप में
मायावती, नरेंद्र मोदी और जयललिता ने प्रभुत्ववादी प्रवृत्तियों का परिचय
दिया है। उनकी पार्टी और उनके राज्य को उनके व्यक्तित्व का ही विस्तार माना
जाता है। जल्द ही ममता बनर्जी भी इस श्रेणी में आ सकती हैं। उन्हें लंबे
समय से ‘दीदी’ के नाम से जाना जाता रहा है। बीते कुछ सालों से जब वे
स्पष्टत: संभावित मुख्यमंत्री थीं, उनकी पार्टी के साथी उन्हें ‘लीडर’ कहकर
बुलाने लगे। उनकी जीत केबादसंभव है उन्हें ‘सुप्रीमो’ कहा जाने लगे।
अगर मुझे व्यक्तिवाद या वंशवाद में से किसी एक का चयन करना पड़े तो शायद
मैं व्यक्तिवाद का चयन करूंगा। लेकिन सबसे अच्छा तो यही होगा कि चयन करने
की नौबत ही न आए।
2008 में मैं आईआईटी मद्रास में भारतीय लोकतंत्र की अपूर्णताओं पर बोल रहा
था। इन्हीं में से एक बिंदु था राजनीतिक वंशवाद। मेरे बाद कनिमोझी का
व्याख्यान था। उन्होंने मेरे वक्तव्य के कुछ अंशों का खंडन करने का प्रयास
किया। उन्होंने कहा कि मैं युवा भारतीयों को अपनी पसंद का कॅरियर चुनने से
रोक रहा हूं। यदि किसी क्रिकेटर का बेटा क्रिकेटर बन सकता है और किसी
संगीतकार की बेटी संगीतकार बन सकती है तो निश्चित ही किसी राजनेता के पुत्र
या पुत्री के राजनीति में आने पर एतराज करना अलोकतांत्रिक है।
मैं उनके तर्को से सहमत न हुआ। पहली बात तो यह कि राजनेताओं के
नाते-रिश्तेदार सीधे उच्चस्तरीय राजनीति से अपनी पारी की शुरुआत करते हैं।
या तो वे कनिमोझी और राहुल गांधी की तरह सीधे सांसद बन जाते हैं या राजीव
गांधी की तरह पार्टी महासचिव बन जाते हैं या राबड़ी देवी की तरह सीधे
मुख्यमंत्री भी बन जाते हैं। लेकिन जिस व्यक्ति के कोई संपर्क न हों, उसे
पार्टी कार्यकर्ता के रूप में शुरुआत करनी पड़ेगी। दूसरी बात यह कि
राजनेताओं के सगे-संबंधी अनुचित रूप से सत्ता और संरक्षण का उपभोग करते
हैं। युवराज सिंह जो विज्ञापन करते हैं और उन्हें उसके लिए जो भुगतान किया
जाता है, वह उनके द्वारा मैदान पर किए जाने वाले प्रदर्शन का परिणाम हैं।
यहां यह तथ्य अप्रासंगिक है कि उनके पिता भी भारत के लिए क्रिकेट खेल चुके
हैं। दूसरी तरफ यदि अलागिरी या दयानिधि मारन प्रभावशाली राजनेताओं के पुत्र
न होते तो क्या वे कभी कैबिनेट मंत्री बन पाते?
बड़े नेताओं के पुत्रों या पुत्रियों द्वारा राजनीति में प्रवेश करने पर
उनकी पार्टी का महत्व घटता है। द्रमुक और अकाली दल दोनों ने ही सामाजिक
सुधारवादी दलों के रूप में शुरुआत की थी। द्रमुक ने जातिगत स्तर पर समानता
लाने का प्रयास किया तो अकाली दल ने सिखों को भ्रष्ट धर्मगुरुओं के
नियंत्रण से मुक्त कराने का प्रयास किया। दोनों ने ही क्षेत्रीय हितों को
उचित स्थान दिया। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने पिछड़ों और
वंचितों के हितों की रक्षा करने का दावा किया। वह विचाराधाराओं की राजनीति
का दौर था, लेकिन नेताओं की संतानों द्वारा राजनीति में प्रवेश करने के साथ
ही उनका ध्यान उन्हें सत्ता का हस्तांतरण करने पर केंद्रित हो गया। दस या
पांच साल पहले तक भी इन आलोचनाओं के प्रति कई मध्यवर्गीय भारतीयों का रवैया
भाग्यवादी ही रहता था। मुझे बताया गया है कि यह हमारे डीएनए में ही था।
हमारी याददाश्त तो हमें यही बताती थी कि बहुतेरी पार्टियां राजनीतिक
परिवारों द्वारा संचालित की जाती हैं। तो अब यह स्थिति कैसे बदल सकती थी?
हो सकता है अब चीजें बदलने लगें। वर्ष 2010 के बिहार चुनावों से ठीक पहले
लालू प्रसाद यादव ने अपने युवा पुत्र को मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत किया।
लेकिन नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने राजद को
चुनाव में कड़ीशिकस्त दी, जिन्होंने अपने परिजनों को राजनीति से दूर ही
रखा था। तमिलनाडु चुनाव से पहले एम करुणानिधि ने मतदाताओं को याद दिलाया कि
उनके द्वारा दशकों से तमिलों की सेवा की जा रही है। उनकी अपील खारिज कर दी
गई। तमिलों ने साहित्य में उनके योगदान को सराहा, लेकिन द्रमुक का एक
फैमिली फर्म में तब्दील होकर रह जाना उन्हें नहीं सुहाया। कई विशेषज्ञों ने
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत का अनुमान लगाया था, लेकिन यह किसी
ने नहीं कहा था कि तमिलनाडु में लड़ाई इतनी एकतरफा साबित होगी। बिहार से भी
ज्यादा तमिलनाडु को वंशवादी राजनीति के निषेध के रूप में देखा जाना चाहिए।
विद्वान विश्लेषक मुझे यह भी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी
पार्टी के पतन का प्रारंभ अखिलेश यादव को उनके पिता मुलायम सिंह यादव के
उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत करने के बाद हुआ था। अन्य नेताओं ने इससे
स्वयं को उपेक्षित महसूस किया और वे दूसरी पार्टियों में चले गए। वंशवादी
राजनीति के प्रति निषेध का भाव स्पष्ट जरूर है, लेकिन अभी यह व्यापक पैमाने
पर नहीं है। अगले साल पंजाब और उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव के बाद
बादल और यादव परिवार के साथ ही गांधी परिवार का भी भाग्य निर्धारित हो
जाएगा। इसके बावजूद हालिया रुझान तो यही बताते हैं कि आम आदमी कनिमोझी से
सहमत होने के बजाय मुझसे सहमत होगा।
वास्तव में यह संकेत भी मिल रहे हैं कि आम आदमी अब उन नेताओं को ज्यादा से
ज्यादा प्राथमिकता देना चाहेगा, जिनकी या तो कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं
है या जिनका अपने परिवार से कोई प्रत्यक्ष कनेक्शन नहीं है। मैंने नीतीश
कुमार का जिक्र किया। कोई नहीं जानता कि नीतीश के भाई या उनके बच्चे क्या
करते हैं। कुछ अन्य मुख्यमंत्री तो परिवार से और दूरी बनाए रखते हैं।
मायावती, नरेंद्र मोदी, जयललिता, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, ये सभी
अविवाहित हैं। निश्चित ही, नाते-रिश्तेदारों की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति ने ही
उन्हें स्वयं को अपने राज्य के हितों के प्रति समर्पित नेताओं के रूप में
प्रस्तुत करने में सहायता की है।
राजनीतिक वंशवाद के पतन पर भारतीय लोकतंत्र थोड़ी खुशी का अनुभव कर सकता
है। अलबत्ता जहां एक तरफ यह प्रवृत्ति फिर पनप सकती है, वहीं दूसरी तरफ यह
भी उल्लेखनीय है कि उसका स्थान लेने वाली नई परिपाटी भी लोकतांत्रिक
परंपराओं के बहुत अनुरूप नहीं है। आज तकरीबन आधे दर्जन राज्य किसी एक
व्यक्ति के इरादों या उसकी मनमर्जी के बंधक हैं। मुख्यमंत्री के रूप में
मायावती, नरेंद्र मोदी और जयललिता ने प्रभुत्ववादी प्रवृत्तियों का परिचय
दिया है। उनकी पार्टी और उनके राज्य को उनके व्यक्तित्व का ही विस्तार माना
जाता है। जल्द ही ममता बनर्जी भी इस श्रेणी में आ सकती हैं। उन्हें लंबे
समय से ‘दीदी’ के नाम से जाना जाता रहा है। बीते कुछ सालों से जब वे
स्पष्टत: संभावित मुख्यमंत्री थीं, उनकी पार्टी के साथी उन्हें ‘लीडर’ कहकर
बुलाने लगे। उनकी जीत केबादसंभव है उन्हें ‘सुप्रीमो’ कहा जाने लगे।
अगर मुझे व्यक्तिवाद या वंशवाद में से किसी एक का चयन करना पड़े तो शायद
मैं व्यक्तिवाद का चयन करूंगा। लेकिन सबसे अच्छा तो यही होगा कि चयन करने
की नौबत ही न आए।