‘खेतों
और फैक्टरियों में काम करने वाले हर मजदूर और कामगार को कम से कम इतना
अधिकार तो है ही कि वह इतनी मजदूरी पाए कि अपना जीवन सुख-सुविधा से बिता
सके..।’ वर्ष 1929 के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण दे रहे जवाहरलाल
नेहरू ने यह बात कही थी। इसके नौ दशक बाद स्वतंत्र भारत की केंद्र सरकार ने
कहा कि लोककार्य के लिए कानून द्वारा स्थापित न्यूनतम मजदूरी का भुगतान
सरकार द्वारा स्वयं नहीं किया जाएगा।
वर्ष 2009 में सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी
अधिनियम के तहत कामगारों की मजदूरी को सौ रुपया प्रतिदिन की सीमा पर स्थिर
कर दिया था। नतीजा यह रहा कि समय के साथ कई राज्यों में मजदूरी की दरें
न्यूनतम मजदूरी के स्तर से नीचे गिर गईं। खाद्य पदार्थो की बढ़ती कीमतों के
कारण स्थिति और चिंताजनक हो गई। असंगठित निर्धन श्रमिकों को सीधे-सीधे
प्रभावित करने वाले इस फैसले की देशभर में कई हलकों में निंदा की गई। इसके
फलस्वरूप सरकार इस पर सहमत हो गई कि मजदूरी को मुद्रास्फीति के अनुरूप
बढ़ाया जाएगा, लेकिन न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करने के मसले पर उसने अपना
रुख बरकरार रखा।
सामाजिक-आर्थिक न्याय का भरोसा जताने वाले अपने ही कानूनों को लागू करने
में भारतीय गणतंत्र की नाकामी का लंबा इतिहास है। भूमि सुधार और बंधुआ
मजदूरी पर कानूनी रोक, सूदखोरी, मैला साफ करने की कुप्रथा, छुआछूत और घरेलू
हिंसा से संबंधित कानूनों का नियमित रूप से उल्लंघन किया जाता रहा है।
लेकिन न्यूनतम मजदूरी को स्थिर रखने का निर्णय एक अलग श्रेणी में आता है,
क्योंकि यहां राज्यतंत्र खुद ही एक बुनियादी कानूनी संरक्षण की अवज्ञा कर
रहा है। न्यूनतम मजदूरी केवल आजीविका को ही सुनिश्चित करती है। या अगर
सर्वोच्च अदालत के शब्दों का उपयोग करें तो यह ‘निम्नतम सीमाओं को इस स्तर
पर निश्चित कर देता है जिसके नीचे कभी कोई मजदूरी जा ही नहीं सकती।’
अपने बचाव में सरकार का तर्क यह है कि मनरेगा परंपरागत रोजगार नहीं है,
बल्कि वास्तव में वह बेरोजगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा भुगतान की योजना
है। सूखा राहत कार्यो के लिए न्यूनतम मजदूरी देने से बचने के लिए भी सरकार
ने इसी तरह की दलील दी थी। जस्टिस भगवती ने साफ किया था कि ‘ऐसा नहीं है कि
सरकार द्वारा कोई अनुदान या सहायता दी जा रही है और ऐसा भी नहीं है कि
श्रमिकों द्वारा किया जा रहा कार्य अनुपयोगी या समाज के लिए बेकार है’,
जिसकी पात्रता न्यूनतम मजदूरी के लिए किसी भी अन्य कार्य की तुलना में कम
मानी जाए।
केंद्र सरकार की चिंता यह भी है कि न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण राज्य
सरकारों द्वारा किया जाता है और वे सरकारी खजाने से ज्यादा से ज्यादा
सब्सिडी प्राप्त करने के लिए दरों का मनमाना निर्धारण कर सकते हैं। लेकिन
न्यूनतम मजदूरी के लिए तर्कपूर्ण मानदंडों की स्थापना करने के लिए कानून
/> में संशोधन करते हुए इस स्थिति को सुधारा जा सकता है।
यह तर्क भी दिया जाता रहा है कि ग्रामीण श्रमिकों को अच्छी मजदूरी मुहैया
कराए जाने से बाजार चौपट हो जाता है। इस धारणा का खमियाजा किसानों को
भुगतना पड़ता है, जिन्हें श्रमिकों की मजदूरी का बोझ भी उठाना पड़ता है।
भारत के अधिकांश छोटे किसान केवल पारिवारिक श्रम पर ही निर्भर करते हैं।
कभी-कभी यह उल्लेख भी किया जाता है कि हिंदी ग्रामीण पट्टी से पंजाब जाकर
काम करने वाले प्रवासी कामगारों की संख्या कम होती जा रही है, जिससे
किसानों की वित्तीय स्थिति को नुकसान पहुंचा है। लेकिन हकीकत यह है कि
किसान द्वारा मजदूरी पर 30 फीसदी से भी कम व्यय किया जाता है। उस पर बीज,
उर्वरक, बिजली जैसे अन्य उत्पादों और सुविधाओं का बोझ अधिक होता है।
किसानों पर निश्चित ही खेतीबाड़ी का आर्थिक बोझ है और राज्य सरकार द्वारा
कामगारों को सम्मानजनक मजदूरी से वंचित करने के स्थान पर उनकी सहायता करनी
चाहिए।
सरकार को एक आदर्श नियोक्ता की भूमिका निभानी चाहिए। सरकार जिस सीमा तक
ऊंची मजदूरी पर काम देगी, निजी नियोक्ताओं को भी उसी सीमा तक मजदूरी बढ़ानी
पड़ेगी, क्योंकि तब कर्मचारियों के पास वैकल्पिक स्रोत होंगे। चंद्रशेखर
और जयती घोष द्वारा किए गए अध्ययन बताते हैं कि मनरेगा ने निश्चित ही
कामगारों की मजदूरी में इजाफा किया है।
केंद्र सरकार इस डर से कामगारों को अच्छी मजदूरी देने से हिचकिचा रही है,
क्योंकि इससे सरकारी खजाने को नुकसान पहुंच सकता है। लेकिन अदालत ने वर्ष
1967 में ही यह निर्देश दिया था कि किसी भी स्थिति में न्यूनतम मजदूरी का
भुगतान किया जाए और इसमें मुनाफा, सरकार की वित्तीय स्थिति या कम वेतन पर
कामगारों की उपलब्धता जैसी स्थितियों पर विचार न किया जाए। निश्चित ही यह
सरकार के साथ ही निजी नियोक्ताओं पर भी लागू होता है। जब भी सरकार यह कहती
है कि उसके पास गरीबों में निवेश करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तो
सरकार की इस कथित मितव्ययिता की तुलना मोटी तनख्वाहों, निजी क्षेत्र के लिए
कर संबंधी छूटों, शहरों के बुनियादी ढांचों और कॉमनवेल्थ खेल जैसे महंगे
आयोजनों में होने वाले भारी-भरकम सरकारी खर्च से करनी चाहिए।
सर्वोच्च अदालत ने अपने तीन अलग-अलग फैसलों में यह आदेश दिया था कि न्यूनतम
मजदूरी के मानकों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता और श्रमिकों को इससे वंचित
करने की स्थिति में इसे ‘जबरिया कराए गए श्रम’ की श्रेणी में रखा जा सकता
है। जो लोग केवल विकास की भाषा समझते हैं, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि
कामगारों को अच्छी मजदूरी मुहैया कराने का मतलब होगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था
में सुधार। नेहरू की तरह, हमें सबसे पहले मेहनतकश लोगों के प्रति अपने
नैतिक दायित्व को याद रखना चाहिए। भारतीय गणतंत्र को अपने इस लक्ष्य को
भूलना नहीं चाहिए।
और फैक्टरियों में काम करने वाले हर मजदूर और कामगार को कम से कम इतना
अधिकार तो है ही कि वह इतनी मजदूरी पाए कि अपना जीवन सुख-सुविधा से बिता
सके..।’ वर्ष 1929 के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण दे रहे जवाहरलाल
नेहरू ने यह बात कही थी। इसके नौ दशक बाद स्वतंत्र भारत की केंद्र सरकार ने
कहा कि लोककार्य के लिए कानून द्वारा स्थापित न्यूनतम मजदूरी का भुगतान
सरकार द्वारा स्वयं नहीं किया जाएगा।
वर्ष 2009 में सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी
अधिनियम के तहत कामगारों की मजदूरी को सौ रुपया प्रतिदिन की सीमा पर स्थिर
कर दिया था। नतीजा यह रहा कि समय के साथ कई राज्यों में मजदूरी की दरें
न्यूनतम मजदूरी के स्तर से नीचे गिर गईं। खाद्य पदार्थो की बढ़ती कीमतों के
कारण स्थिति और चिंताजनक हो गई। असंगठित निर्धन श्रमिकों को सीधे-सीधे
प्रभावित करने वाले इस फैसले की देशभर में कई हलकों में निंदा की गई। इसके
फलस्वरूप सरकार इस पर सहमत हो गई कि मजदूरी को मुद्रास्फीति के अनुरूप
बढ़ाया जाएगा, लेकिन न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करने के मसले पर उसने अपना
रुख बरकरार रखा।
सामाजिक-आर्थिक न्याय का भरोसा जताने वाले अपने ही कानूनों को लागू करने
में भारतीय गणतंत्र की नाकामी का लंबा इतिहास है। भूमि सुधार और बंधुआ
मजदूरी पर कानूनी रोक, सूदखोरी, मैला साफ करने की कुप्रथा, छुआछूत और घरेलू
हिंसा से संबंधित कानूनों का नियमित रूप से उल्लंघन किया जाता रहा है।
लेकिन न्यूनतम मजदूरी को स्थिर रखने का निर्णय एक अलग श्रेणी में आता है,
क्योंकि यहां राज्यतंत्र खुद ही एक बुनियादी कानूनी संरक्षण की अवज्ञा कर
रहा है। न्यूनतम मजदूरी केवल आजीविका को ही सुनिश्चित करती है। या अगर
सर्वोच्च अदालत के शब्दों का उपयोग करें तो यह ‘निम्नतम सीमाओं को इस स्तर
पर निश्चित कर देता है जिसके नीचे कभी कोई मजदूरी जा ही नहीं सकती।’
अपने बचाव में सरकार का तर्क यह है कि मनरेगा परंपरागत रोजगार नहीं है,
बल्कि वास्तव में वह बेरोजगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा भुगतान की योजना
है। सूखा राहत कार्यो के लिए न्यूनतम मजदूरी देने से बचने के लिए भी सरकार
ने इसी तरह की दलील दी थी। जस्टिस भगवती ने साफ किया था कि ‘ऐसा नहीं है कि
सरकार द्वारा कोई अनुदान या सहायता दी जा रही है और ऐसा भी नहीं है कि
श्रमिकों द्वारा किया जा रहा कार्य अनुपयोगी या समाज के लिए बेकार है’,
जिसकी पात्रता न्यूनतम मजदूरी के लिए किसी भी अन्य कार्य की तुलना में कम
मानी जाए।
केंद्र सरकार की चिंता यह भी है कि न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण राज्य
सरकारों द्वारा किया जाता है और वे सरकारी खजाने से ज्यादा से ज्यादा
सब्सिडी प्राप्त करने के लिए दरों का मनमाना निर्धारण कर सकते हैं। लेकिन
न्यूनतम मजदूरी के लिए तर्कपूर्ण मानदंडों की स्थापना करने के लिए कानून
/> में संशोधन करते हुए इस स्थिति को सुधारा जा सकता है।
यह तर्क भी दिया जाता रहा है कि ग्रामीण श्रमिकों को अच्छी मजदूरी मुहैया
कराए जाने से बाजार चौपट हो जाता है। इस धारणा का खमियाजा किसानों को
भुगतना पड़ता है, जिन्हें श्रमिकों की मजदूरी का बोझ भी उठाना पड़ता है।
भारत के अधिकांश छोटे किसान केवल पारिवारिक श्रम पर ही निर्भर करते हैं।
कभी-कभी यह उल्लेख भी किया जाता है कि हिंदी ग्रामीण पट्टी से पंजाब जाकर
काम करने वाले प्रवासी कामगारों की संख्या कम होती जा रही है, जिससे
किसानों की वित्तीय स्थिति को नुकसान पहुंचा है। लेकिन हकीकत यह है कि
किसान द्वारा मजदूरी पर 30 फीसदी से भी कम व्यय किया जाता है। उस पर बीज,
उर्वरक, बिजली जैसे अन्य उत्पादों और सुविधाओं का बोझ अधिक होता है।
किसानों पर निश्चित ही खेतीबाड़ी का आर्थिक बोझ है और राज्य सरकार द्वारा
कामगारों को सम्मानजनक मजदूरी से वंचित करने के स्थान पर उनकी सहायता करनी
चाहिए।
सरकार को एक आदर्श नियोक्ता की भूमिका निभानी चाहिए। सरकार जिस सीमा तक
ऊंची मजदूरी पर काम देगी, निजी नियोक्ताओं को भी उसी सीमा तक मजदूरी बढ़ानी
पड़ेगी, क्योंकि तब कर्मचारियों के पास वैकल्पिक स्रोत होंगे। चंद्रशेखर
और जयती घोष द्वारा किए गए अध्ययन बताते हैं कि मनरेगा ने निश्चित ही
कामगारों की मजदूरी में इजाफा किया है।
केंद्र सरकार इस डर से कामगारों को अच्छी मजदूरी देने से हिचकिचा रही है,
क्योंकि इससे सरकारी खजाने को नुकसान पहुंच सकता है। लेकिन अदालत ने वर्ष
1967 में ही यह निर्देश दिया था कि किसी भी स्थिति में न्यूनतम मजदूरी का
भुगतान किया जाए और इसमें मुनाफा, सरकार की वित्तीय स्थिति या कम वेतन पर
कामगारों की उपलब्धता जैसी स्थितियों पर विचार न किया जाए। निश्चित ही यह
सरकार के साथ ही निजी नियोक्ताओं पर भी लागू होता है। जब भी सरकार यह कहती
है कि उसके पास गरीबों में निवेश करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तो
सरकार की इस कथित मितव्ययिता की तुलना मोटी तनख्वाहों, निजी क्षेत्र के लिए
कर संबंधी छूटों, शहरों के बुनियादी ढांचों और कॉमनवेल्थ खेल जैसे महंगे
आयोजनों में होने वाले भारी-भरकम सरकारी खर्च से करनी चाहिए।
सर्वोच्च अदालत ने अपने तीन अलग-अलग फैसलों में यह आदेश दिया था कि न्यूनतम
मजदूरी के मानकों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता और श्रमिकों को इससे वंचित
करने की स्थिति में इसे ‘जबरिया कराए गए श्रम’ की श्रेणी में रखा जा सकता
है। जो लोग केवल विकास की भाषा समझते हैं, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि
कामगारों को अच्छी मजदूरी मुहैया कराने का मतलब होगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था
में सुधार। नेहरू की तरह, हमें सबसे पहले मेहनतकश लोगों के प्रति अपने
नैतिक दायित्व को याद रखना चाहिए। भारतीय गणतंत्र को अपने इस लक्ष्य को
भूलना नहीं चाहिए।