शिक्षा और समृद्धि के साथ मनुष्य उदात्त होता है, यह आम धारणा है। लेकिन लड़कियों के प्रति भारतीय समाज का बनता नजरिया इस धारणा पर गहरी चोट करता है।
मशहूर पत्रिका ‘लैंसेट’ ने यह राज खोला है कि भारतीय समाज में जन्म से पहले
ही हत्या का शिकार हो रही बेटियां आमतौर पर वो हैं, जो सामान्यत: शिक्षित
और समृद्ध घरों में जन्म लेतीं।
यह आंकड़ा अपने आप में बेहद दुखद एवं चौंकाने वाला है कि 1980 से 2010 की
अवधि में एक करोड़ से भी ऊपर कन्या भ्रूणों की हत्या कर दी गई।
मगर यह बात और भी परेशान करने वाली है कि समाज के सबसे धनी 20 प्रतिशत
परिवारों में, अगर पहली संतान लड़की हो, तो दूसरी संतान के रूप में प्रति
1000 लड़कों पर तकरीबन 700 लड़कियां ही जन्म ले रही हैं।
ये वो परिवार हैं, जहां माताएं कम से कम दसवीं तक शिक्षित हैं। इसके विपरीत
20 फीसदी सबसे गरीब परिवारों में, जहां माताएं अशिक्षित हैं, 1991 के बाद
लिंगानुपात में कोई गिरावट नहीं आई है।
जाहिर है, धनी परिवारों में लड़कों की चाहत ज्यादा है और चूंकि वे पहुंच
एवं आर्थिक स्थिति की वजह से आधुनिक मेडिकल सुविधाओं का इस्तेमाल करने में
सक्षम हैं, इसलिए कन्या भ्रूण हत्या के गैरकानूनी, अमानवीय और निर्मम तरीके
का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं।
इस संदर्भ में ‘लैंसेट’ का यह निष्कर्ष गौरतलब है- ‘भारत में कन्या भ्रूण
हत्या में भारी बढ़ोतरी हुई है, खासकर उस स्थिति में जब पहली संतान लड़की
हो। भारत की ज्यादातर आबादी अब उन राज्यों में रहती है, जहां इस रूप में
लिंग चयन आम है।’
स्पष्ट है, जन्म से पहले लिंग परीक्षण और कन्या भ्रूण हत्या रोकने के कानून
प्रभावी नहीं हुए हैं। धनी-मानी लोगों के लिए किसी कानून को धता बता देना
मुश्किल नहीं होता और इस संदर्भ में भी यही हो रहा है। लेकिन इसके सामाजिक
परिणाम भयावह हैं।
‘लैंसेट’ के अध्ययन ने खतरे की घंटी बजाई है, लेकिन क्या समाज सुनने को तैयार है?
मशहूर पत्रिका ‘लैंसेट’ ने यह राज खोला है कि भारतीय समाज में जन्म से पहले
ही हत्या का शिकार हो रही बेटियां आमतौर पर वो हैं, जो सामान्यत: शिक्षित
और समृद्ध घरों में जन्म लेतीं।
यह आंकड़ा अपने आप में बेहद दुखद एवं चौंकाने वाला है कि 1980 से 2010 की
अवधि में एक करोड़ से भी ऊपर कन्या भ्रूणों की हत्या कर दी गई।
मगर यह बात और भी परेशान करने वाली है कि समाज के सबसे धनी 20 प्रतिशत
परिवारों में, अगर पहली संतान लड़की हो, तो दूसरी संतान के रूप में प्रति
1000 लड़कों पर तकरीबन 700 लड़कियां ही जन्म ले रही हैं।
ये वो परिवार हैं, जहां माताएं कम से कम दसवीं तक शिक्षित हैं। इसके विपरीत
20 फीसदी सबसे गरीब परिवारों में, जहां माताएं अशिक्षित हैं, 1991 के बाद
लिंगानुपात में कोई गिरावट नहीं आई है।
जाहिर है, धनी परिवारों में लड़कों की चाहत ज्यादा है और चूंकि वे पहुंच
एवं आर्थिक स्थिति की वजह से आधुनिक मेडिकल सुविधाओं का इस्तेमाल करने में
सक्षम हैं, इसलिए कन्या भ्रूण हत्या के गैरकानूनी, अमानवीय और निर्मम तरीके
का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं।
इस संदर्भ में ‘लैंसेट’ का यह निष्कर्ष गौरतलब है- ‘भारत में कन्या भ्रूण
हत्या में भारी बढ़ोतरी हुई है, खासकर उस स्थिति में जब पहली संतान लड़की
हो। भारत की ज्यादातर आबादी अब उन राज्यों में रहती है, जहां इस रूप में
लिंग चयन आम है।’
स्पष्ट है, जन्म से पहले लिंग परीक्षण और कन्या भ्रूण हत्या रोकने के कानून
प्रभावी नहीं हुए हैं। धनी-मानी लोगों के लिए किसी कानून को धता बता देना
मुश्किल नहीं होता और इस संदर्भ में भी यही हो रहा है। लेकिन इसके सामाजिक
परिणाम भयावह हैं।
‘लैंसेट’ के अध्ययन ने खतरे की घंटी बजाई है, लेकिन क्या समाज सुनने को तैयार है?