इतिहास के आईने में किसान आंदोलन– योगेंद्र यादव

इधर राहुल गांधी का भट्टा-परसौल में आना हुआ तो उधर चौधरी महेंद्र सिंह
टिकैत का जाना. पहली नजर में इन दोनों घटनाओं का आगे-पीछे होना विशुद्ध
संयोग है. लेकिन जरा गौर से देखें तो इस संयोग में गहरे निहितार्थ छिपे
दिखाई देते हैं. यहां किसान आंदोलन के भूत, वर्तमान और भविष्य को जोड़ने
वाले कुछ तार बिखरे पड़े हैं. राहुल गांधी का आना किसान आंदोलन की
तात्कालिक विजय का प्रतीक बना. बहुत अरसे बाद किसानों के किसी मुद्दे को
टीवी की सुर्खियां मिलीं. अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के दबाव के
चलते यह उम्मीद भी बंधी कि किसानों के दमन को नजरंदाज नहीं किया जायेगा.

इतिहास की दृष्टि से देखें तो यह तात्कालिक विजय किसान आंदोलन की
दीर्घकालिक पराजय का प्रतीक है. किसान आंदोलन को अगर गांधी-नेहरू परिवार के
उत्तराधिकारी की ओर ताकना पड़े, तो इसे पराजय ही कहा जा सकता है. अगर
किसान आंदोलन किसानी के स्वाभिमान के मुद्दे से फ़िसलते हुए मुआवजे के सवाल
पर आकर टिक जाये तो उसकी सफ़लता-विफ़लता दोनों में किसान की हार निश्चित
है.

टिकैत का जीवन किसान आंदोलन के गौरवमयी इतिहास और विखंडित वर्तमान को
समझने में मदद देता है. भारतीय राजनीति के शिखर पर टिकैत का उदय चौधरी चरण
सिंह के अवसान के बाद हुआ. बिजली की दरों पर वीर बहादुर सिंह के नेतृत्व
वाली कांग्रेस सरकार को झुका कर टिकैत ने अपना सिक्का जमाया. टिकैत का ठेंठ
गंवई व्यक्तित्व और किसी भी दबाव या लालच से ऊपर रहने की उनकी क्षमता से
बने व्यक्तित्व ने 1988 में बोट क्लब पर हुए ऐतिहासिक धरने को संभव बनाया.
कुछ दिन के लिए ही सही, ऐसा लगा जैसे ‘भारत’ ने ‘इंडिया’ को उसकी औकात बता
दी हो. अस्सी के दशक के तमाम किसान आंदोलनों के चरमोत्कर्ष का प्रतीक बना
यह धरना भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता था. लेकिन उस
बिंदु से आज तक की यात्रा किसान आंदोलन के पराभव और विघटन की कहानी है. आज
किसान और किसानी के सामने एक अभूतपूर्व संकट मुंह बाये खड़ा है, लेकिन देश
की राजनीति में इसकी गूंज कहीं सुनायी नहीं पड़ती. चरण सिंह के वारिस न तो
किसी गंठबंधन पर टिक सकते हैं, न ही राजनीति में किसी मुद्दे की गांठ बांध
सकते हैं. टिकैत और नंजुंदास्वामी के वारिस राजनीति में इधर उधर बिखरे हुए
हैं. शरद जोशी की राजनीति भाजपा की गोद में सिमट गयी है. राजनीति से बाहर
रहने वाली भारतीय किसान यूनियन की हैसियत किसी मजदूर यूनियन जितनी भी नहीं
है. अस्सी के दशक में ट्रैक्टरों से दिल्ली को घेरने का दुस्साहस रखने
वाला किसान आज खुद घिरा बैठा उसी दिल्ली से आये एक मोटर साईकिल सवार से आस
लगाता है.

किसान आंदोलन की इस दशा की पड़ताल करने पर हम महेंद्र सिंह टिकैत की
राजनीति की चार बुनियादी सीमाओं से रूब होते हैं. पहली सीमा क्षेत्रीय
है. टिकैत और उन जैसे अन्य किसान नेताओं की राजनीति एक इलाके में कैद होकर
रह गयी. किसान आंदोलन केवल उन इलाकों तक सीमित रहे जहां खुशहाल किसान
ट्यूबवेल और ट्रैक्टर की मदद से खेतीकरते हैं. दूसरी सीमा इससे जुड़े
सामजिक संकुचन की है. टिकैत सरीखे किसान नेताओं के मन में ले-देकर किसान का
मतलब था जमींदार. उस किस्म की किसान राजनीति में छोटे किसान की बात तो थी,
लेकिन उसकी चिंता नहीं थी. बटाईदार और खेतिहर मजदूर आंखों से ओझल थे. इस
सीमा का जातीय पहलू भी था. किसान आंदोलन की पैठ भूस्वामी जातियों के बाहर
पिछड़ी जातियों तक नहीं थी. दलित समाज के प्रति इसमें तिरस्कार का भाव था.
इन सब की बुनियाद में एक तीसरी वैचारिक सीमा थी. टिकैत के किसान आंदोलन ने
खेती की लागत और उपज के मूल्य के सवालों पर अपना ध्यान केंद्रित किया.
जाहिर है इसके कारण उन्हें एक तबके में लोकप्रियता भी मिली. लेकिन सबसे
बड़ा सवाल यह था कि विकास के वर्तमान ढांचे में क्या किसान को कभी न्याय
मिल पायेगा. किसानी को बचाने की मुहिम को गांव के पुनरोद्धार से कैसे जोड़ा
जाये? किसान को बेहतर दाम की मांग के सस्ते खाद्यान और भोजन की जरूरत से
सामंजस्य कैसे बैठाया जाये? चरण सिंह ने इन सवालों का सामना किया था और एक
वैकल्पिक दृष्टि पेश की थी. लेकिन यह सवाल चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की
राजनीति से गायब थे. चौथी सीमा राजनीति से संबंध को लेकर थी. टिकैत और
भारतीय किसान यूनियन के नेताओं ने दलगत राजनीति से दूरी बनाये रखी. उम्मीद
यह थी कि राजनीति के बाहर रहकर वे सत्ता पर नियंत्रण रख सकेंगे. किसान
आंदोलन की यही सब सीमाएं उसे फ़िर उसी मुख्यधारा की राजनीति के दरवाजे पर
ला खड़ा करती है जिसके विरुद्ध ये आंदोलन पैदा हुए थे.

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