नई दिल्ली [सुरेंद्र प्रसाद सिंह]। मौसम विभाग के अनुमानों को ठेंगा
दिखाते आये मानसून पर इस बार फिर अल निनो का प्रकोप भारी पड़ सकता है। बड़ी
परेशानी यह है कि मौसम विभाग इस बार भी अल निनो की चाल पढ़ने में जल्दबाजी
दिखा रहा है।
मानसून का इतिहास बता रहा है कि जब भी अल निनो का प्रभाव हुआ तो मानसून
रास्ता भटक ही गया। पिछले सौ सालों में अल निनो ने 18 बार भारतीय उप
महाद्वीप में आने वाले मानसून का रास्ता रोका है।
मौसम विज्ञानी भी मानते हैं कि अगर इस बार अल निनो का प्रभाव मई से आगे
बढ़ा तो मानसून का केरल तट तक निर्धारित समय से पहुंचना संभव नहीं हो
पाएगा। यानी दिल्ली में मानसून किसी भी हाल में जुलाई से पहले नहीं पहुंच
पाएगा। पिछले एक दशक में तीन बार अल निनो का कुप्रभाव दिखा है, जब देश में
सूखे की स्थिति पैदा हुई।
वर्ष 2009 के अल निनो के असर को देश भूला नहीं है, जब देश के ढाई सौ से
अधिक जिले प्रचंड सूखे की चपेट में आ गए थे, और सामान्य से 23 फीसदी कम
बारिश हुई। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी बज गई थी। वर्ष
2002 और 2004 में भी खेती बाड़ी प्रभावित हुई थी। वर्ष 2002 में तो अल निनो
की वजह से 65 फीसदी कम बारिश हुई थी।
अल निनो के हालात तब पैदा होते हैं, जब गहरे समुद्र की ऊपरी सतह का तापमान सामान्य से तीन डिग्री सेल्सियस अथवा इससे अधिक हो जाए।
मौसम विभाग के आंकड़ों के हिसाब से पिछले सौ वर्षो में 23 बार अल निनो
का असर रहा, लेकिन सिर्फ 18 बार ही भारत में सूखे की स्थिति पैदा हुई। जबकि
पांच बार मौसम सामान्य रहा है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि हर
बार ऐसा नहीं होता है। पिछले 50 सालों में औसतन प्रत्येक तीन साल बाद सूखा
पड़ा है, जिसमें ज्यादातर बार अल निनो एक बड़ा कारक साबित हुआ।
क्या है अल निनो
अल-निनो एक ऐसी मौसमी परिस्थिति है जो प्रशांत महासागर के पूर्वी भाग
यानी दक्षिणी अमेरिका के तटीय भागों में महासागर के सतह पर पानी का तापमान
बढ़ने की वजह से पैदा होती है। माना जाता है कि अल-निनो लगभग सात सालों में
एक बार लौटता है।
प्रभाव
इसकी वजह से मौसम का सामान्य चक्र गड़बड़ा जाता है। नतीजतन बाढ़ और सूखे
जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आशंका बलवती होती है। हालांकि इसकी वजह से
चक्रवात और तूफान की संभावनाएं कम हो जाती है।