‘क्या
आप जानते हैं कि हमारे देश में चुनाव कैसे होते हैं? पिता के लिए शराब,
मां के लिए कपड़े और बच्चे के लिए भोजन।’ ‘आखिर इस देश में क्या भ्रष्ट
नहीं है? भारत का केंद्रीय व्यसन या दोष भ्रष्टाचार है; भ्रष्टाचार की
केंद्रीय धुरी है चुनावी भ्रष्टाचार; और चुनावी भ्रष्टाचार की केंद्रीय
धुरी हैं कारोबारी घराने।’
उपरोक्त उक्तियां अन्ना हजारे द्वारा कही गई बातों जैसी लगती हैं। हालांकि
ये बातें एक पूर्ववर्ती पीढ़ी से जुड़ी हैं, जब भ्रष्टाचार के खिलाफ टीएन
शेषन जैसा एक और धर्मयोद्धा देशभर के मध्यवर्गीय लोगों के बीच एक उम्मीद
बनकर उभरा था।
आपको शेषन याद हैं? अपनी धुन के पक्के मुख्य चुनाव आयुक्त, जिनकी
‘भ्रष्टाचार विरोधी जंग’ ने नब्बे के दशक के मध्यवर्ती दौर में राजनेताओं
में भय और मध्यमवर्गीय लोगों के मन में विस्मय की लहर पैदा कर दी थी। शेषन
के प्रयास अनाप-शनाप चुनावी खर्च पर लगाम कसने के रूप में नजर आए, लेकिन
रिटायर होने के कुछ ही महीनों बाद उन्होंने नेताओं की जमात में शामिल होते
हुए उन्हें पछाड़ने की कोशिश की। वर्ष 1997 में वह शिवसेना के प्रत्याशी के
रूप में राष्ट्रपति का चुनाव हार गए, जबकि 1999 में गांधीनगर में कांग्रेस
समर्थित प्रत्याशी के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ 1 लाख 80 हजार मतों
से हारे। दो बार हारने के बाद शेषन राजनीति से रिटायर हो गए और चेन्नई में
शांतिपूर्ण जीवन जी रहे हैं, जहां उन्हें रोटरी क्लब जैसी संस्थाओं द्वारा
तो गले लगाया गया, लेकिन जनता द्वारा भुला दिया गया।
क्या अन्ना हजारे की नियति भी शेषन जैसी होगी? आज जय-जयकार और कल विस्मरण।
हालांकि शेषन और हजारे में काफी फर्क हैं। शेषन ने अपना प्रभुत्व अपने पद
से अर्जित किया। उन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त रहते हुए इस निष्क्रिय पड़े
संस्थागत पद को ऐसी शक्ति से ओत-प्रोत कर दिया, जिसका दशकों से अभाव था।
इसके उलट हजारे किसी सरकारी ओहदे पर नहीं हैं, बल्कि कुछ हद तक चलते-फिरते
फकीर हैं, जो किसी भी मसले पर आवाज उठा सकते हैं।
अहं के वशीभूत होकर शेषन यह भूल गए कि एक बार उन्होंने अपना पद छोड़ा, तो
उनके अधिकार भी चले जाएंगे। हजारे को ऐसा कोई डर नहीं है। वस्तुत: उन्होंने
अपना यह कद राजनीतिक तंत्र से बाहर रहते हुए तैयार किया है। उन्हें एक
स्वतंत्र गांधीवादी के तौर पर देखा जा रहा है, जो व्यक्तिगत मिसाल पेश करते
हुए भ्रष्ट सरकारी मशीनरी के खिलाफ एक तरह का नैतिक आंदोलन छेड़ने के लिए
हमेशा तैयार है। शेषन अपनी जिंदगी में ज्यादातर शासकीय नौकरशाह रहे और इस
लिहाज से वह एक सरकारी नुमाइंदे थे। हजारे सैन्य चालक हैं, जो ग्रामसेवक बन
गए। वह सत्ता के मोह से अछूते हैं।
हालांकि शेषन और हजारे दोनों को ही मध्यवर्ग के लोगों का व्यापक समर्थन
मिला, लेकिन उनके बीच एक बड़ा अंतर भी है। नब्बे के दशक में भारतीय
मध्यवर्ग राजनीतिक भ्रष्टाचार के समक्ष पूरी तरह लाचार नजर आ रहा था। लेकिन
आज उसके पास चौबीसों घंटे चलने वाले खबरिया चैनलों के रूप में एक नया
हथियार है। हजारे के आंदोलन ने मध्यवर्ग को भी आंदोलित कर दिया क्योंकि
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टीवी कैमरों ने इसे तुरंत लाखों-करोड़ों भारतीयों के घरों तक पहुंचा दिया।
जब शेषन नेताओं को आड़े हाथों ले रहे थे, उस वक्त देश में एक भी प्राइवेट
न्यूज चैनल नहीं था। लेकिन आज के दौर में जब अन्ना ने जंतर-मंतर पर आमरण
अनशन करने का फैसला किया, तो यह ऐसा घटनाक्रम हो गया, जो मानो टीवी के लिए
ही बना हो। ऐसे देश में जहां 10 करोड़ से ज्यादा घरों में केबल या सैटेलाइट
कनेक्शन हांे, अन्ना रातोंरात एक राष्ट्रीय शख्सियत के तौर पर उभर आए,
जहां तक पहुंचने में शेषन को वर्षो लगे थे।
हालांकि दोनों में कुछ चिंतनीय समानताएं भी हैं। शेषन की तरह हजारे भी कुछ
हद तक अधिनायकवादी प्रवृत्ति का शिकार लगते हैं, जिनका मानना है कि
गांधीवादी मूल्यों के साथ शिवाजी जैसी आक्रामकता को भी जोड़ा जाना चाहिए।
रालेगान सिद्धि में हजारे के ‘आदर्श ग्राम’ में किसी भी तरह की विरोधी या
वैकल्पिक विचारधारा की कोई जगह नहीं है और वहां शराबियों को सार्वजनिक रूप
से पीटने जैसे कुछ मामलों में जोर-जबरदस्ती भी चलती है। उनके अनेक करीबी
सहयोगियों में लोकतंत्र विरोधी प्रवृत्ति नजर आती है।
हालांकि हजारे हमेशा अपने इर्द-गिर्द के लोगों को लेकर पक्षपाती नहीं रहे
हैं, जिनमें से कुछ ने उनकी सरल मानसिकता का फायदा उठाने की कोशिश की। वर्ष
2005 में उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी, जब जस्टिस सावंत कमीशन की
रिपोर्ट में कहा गया, ‘श्री हजारे के जन्मदिन समारोह के लिए हिंद स्वराज
ट्रस्ट के फंड के 2.20 लाख रुपए खर्च करना गैरकानूनी था जो भ्रष्ट आचरण की
श्रेणी में आता है।’
जब समूचे आंदोलन की उम्मीदें सिर्फ एक व्यक्ति पर टिकी हों और वह भी एक ऐसे
व्यक्ति पर, जिसने खुद स्वीकार किया कि वह कोई महात्मा नहीं है, तो इसमें
भी खतरे हैं। दुर्भाग्य से ‘मिडिल क्लास एक्टिविज्म’ इतना परिपक्व नहीं है
कि रफ्तार पकड़ सके और मध्यवर्गीय लोगों में इतना भरोसा जगा सके जिससे वे
किसी ऐसे अवतार की तलाश में न रहें, जो आकर राजनीतिक दैत्यों का सर्वनाश कर
दे। शेषन के दौर में भ्रष्टाचार विरोधी हस्ताक्षर अभियान और सेमिनार चलते
थे। आज मोमबत्ती जुलूस और सोशल मीडिया नेटवर्क है। गुस्सा भले ही असली हो,
बदलाव की मंशा भी सद्भावनापूर्ण हो, लेकिन क्या इससे वास्तव में समाज का
कायाकल्प हो सकता है, यदि यह सोचे-समझे बयानों या ‘मेरा नेता चोर है’ जैसे
जुमलों से आगे नहीं जाता हो?
भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में किसी ‘जन-आंदोलन’ को सफलता तभी मिलेगी, जब यह
किसी लोकपाल या अन्ना हजारे तक सीमित न हो। हमें संगठित स्थानीय समुदायों
की जरूरत है, जो अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की ग्राम सभा से लेकर संसद
तक हर स्तर पर जवाबदेही सुनिश्चित करें। अन्ना की स्तुति करने के बजाय हम
त्याग और स्वैच्छिक सेवा की भावना को अंगीकार करें, जो उनके काम की पहचान
रही है। अन्ना भी एक और क्षणिक मध्यवर्गीय आइकॉन बनकर न रह जाएं, इसके लिए
हमें उनसे ज्यादा उनके संदेश को महत्व देना होगा।
राजदीप सरदेसाई
लेखक आईबीएन 18 के एडिटर-इन-चीफ हैं।