भोपाल।
प्रदेश के 14 नगर निगमों में जल्द ही बिजली की बचत करने के लिए नया
प्रोजेक्ट शुरू किया जाएगा। इससे निगमों को करीब 25 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष
की बचत होगी। इससे बिजली बचाने के एवज में वे विदेशों से कार्बन का व्यापार
भी कर सकेंगे, जिससे उन्हें डॉलर के रूप में अतिरिक्त आमदनी भी होगी।
दरअसल, क्योटो प्रोटोकॉल के तहत वर्ष 2005 में हुए समझौते के मुताबिक भारत
में किसी प्रोजेक्ट द्वारा ग्रीन हाउस गैस (कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन,
नाइट्रोजन ऑक्साइड) आदि का उत्सर्जन मौजूदा स्तर से कम करने पर यूनाइटेड
नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) सर्टिफाइड इमरसन
रिडेक्शन (सीईआर) जारी करता है। विकसित देश सीईआर खरीदकर अपने यहां ग्रीन
हाउस गैसों के उत्सर्जन अधिक करने पर लगा जुर्माना भर सकते हैं। प्रदेश में
भी कार्बन ट्रेडिंग के लिए मप्र-क्लीन डेवलपमेंट मशीनिज्म एजेंसी
(एमपी-सीडीएमए) का गठन हुआ है। यह एजेंसी प्रदेश में ग्रीन हाउस गैसों का
उत्सर्जन कम करने वाले प्रोजेक्ट तैयार करने से लेकर, उन्हें स्वीकृति
दिलाने का काम कर रही है।
एजेंसी ने नगरीय प्रशासन विभाग के साथ मिलकर सभी 14 निगमों में बिजली बचत
करने के प्रोजेक्ट का खाका तैयार किया है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण
मंत्रालय ने इसे मंजूरी दे दी है। एनएफसीसीसी द्वारा इसकी स्वीकृति मिलते
ही यह प्रदेश का पहला प्रोजेक्ट हो होगा, जो प्रदेश में कार्बन का उत्सर्जन
कम करेगा। उत्सर्जन जितना कम होगा, उसी के हिसाब से प्रोजेक्ट को सीईआर
मिलेंगे।
कम होगा उत्सर्जन
प्रोजेक्ट के मुताबिक अभी निगमों द्वारा उपयोग की जा रही बिजली से
प्रतिवर्ष वातावरण में करीब 6 लाख 70 हजार टन कार्बन व ग्रीन हाउस गैसों का
उत्सर्जन होता है। नई तकनीक के बाद यह घटकर 4 लाख 5 हजार टन रह जाएगा। इस
तरह कार्बन उत्सर्जन में प्रतिवर्ष करीब 25 प्रतिशत की कमी आएगी।
एनएफसीसीसी द्वारा इसका मूल्यांकन करने के बाद प्रदेश को करीब 26 हजार
सीईआर मिलेंगे। इतने सीईआर बेचने पर निगमों को काफी लाभ होगा।
यह होगा फायदा
एक सीईआर की वर्तमान कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में अभी करीब 5 से लेकर 12
डॉलर तक है। हालांकि यह कीमत समय-समय पर बदलती रहती है, लेकिन यदि 12 डॉलर
के हिसाब से एमपी-सीडीएमए इन 26 हजार सीईआर को मौजूदा कीमतों पर बेचे तो
निगमों को तीन लाख 12 हजार डॉलर यानी करीब डेढ़ करोड़ रुपए की आमदनी
प्रतिवर्ष होगी। जाहिर है विकसित देशों को यह राशि बतौर हर्जाना चुकानी
होगी।
प्रदेश के 14 नगर निगमों में जल्द ही बिजली की बचत करने के लिए नया
प्रोजेक्ट शुरू किया जाएगा। इससे निगमों को करीब 25 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष
की बचत होगी। इससे बिजली बचाने के एवज में वे विदेशों से कार्बन का व्यापार
भी कर सकेंगे, जिससे उन्हें डॉलर के रूप में अतिरिक्त आमदनी भी होगी।
दरअसल, क्योटो प्रोटोकॉल के तहत वर्ष 2005 में हुए समझौते के मुताबिक भारत
में किसी प्रोजेक्ट द्वारा ग्रीन हाउस गैस (कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन,
नाइट्रोजन ऑक्साइड) आदि का उत्सर्जन मौजूदा स्तर से कम करने पर यूनाइटेड
नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) सर्टिफाइड इमरसन
रिडेक्शन (सीईआर) जारी करता है। विकसित देश सीईआर खरीदकर अपने यहां ग्रीन
हाउस गैसों के उत्सर्जन अधिक करने पर लगा जुर्माना भर सकते हैं। प्रदेश में
भी कार्बन ट्रेडिंग के लिए मप्र-क्लीन डेवलपमेंट मशीनिज्म एजेंसी
(एमपी-सीडीएमए) का गठन हुआ है। यह एजेंसी प्रदेश में ग्रीन हाउस गैसों का
उत्सर्जन कम करने वाले प्रोजेक्ट तैयार करने से लेकर, उन्हें स्वीकृति
दिलाने का काम कर रही है।
एजेंसी ने नगरीय प्रशासन विभाग के साथ मिलकर सभी 14 निगमों में बिजली बचत
करने के प्रोजेक्ट का खाका तैयार किया है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण
मंत्रालय ने इसे मंजूरी दे दी है। एनएफसीसीसी द्वारा इसकी स्वीकृति मिलते
ही यह प्रदेश का पहला प्रोजेक्ट हो होगा, जो प्रदेश में कार्बन का उत्सर्जन
कम करेगा। उत्सर्जन जितना कम होगा, उसी के हिसाब से प्रोजेक्ट को सीईआर
मिलेंगे।
कम होगा उत्सर्जन
प्रोजेक्ट के मुताबिक अभी निगमों द्वारा उपयोग की जा रही बिजली से
प्रतिवर्ष वातावरण में करीब 6 लाख 70 हजार टन कार्बन व ग्रीन हाउस गैसों का
उत्सर्जन होता है। नई तकनीक के बाद यह घटकर 4 लाख 5 हजार टन रह जाएगा। इस
तरह कार्बन उत्सर्जन में प्रतिवर्ष करीब 25 प्रतिशत की कमी आएगी।
एनएफसीसीसी द्वारा इसका मूल्यांकन करने के बाद प्रदेश को करीब 26 हजार
सीईआर मिलेंगे। इतने सीईआर बेचने पर निगमों को काफी लाभ होगा।
यह होगा फायदा
एक सीईआर की वर्तमान कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में अभी करीब 5 से लेकर 12
डॉलर तक है। हालांकि यह कीमत समय-समय पर बदलती रहती है, लेकिन यदि 12 डॉलर
के हिसाब से एमपी-सीडीएमए इन 26 हजार सीईआर को मौजूदा कीमतों पर बेचे तो
निगमों को तीन लाख 12 हजार डॉलर यानी करीब डेढ़ करोड़ रुपए की आमदनी
प्रतिवर्ष होगी। जाहिर है विकसित देशों को यह राशि बतौर हर्जाना चुकानी
होगी।