चेरापूंजी में
सबसे ज्यादा बारिश होती है। फिर भी यहां पीने के पानी का संकट है। इसलिए
क्योंकि लोगों की घरों में पानी बचाकर रखने की आदत नहीं है। यहां पहाड़ ही
पानी का जरिया हैं। बहती धाराओं के नीचे बनाए गए कुंड या इनके नीचे खासतौर
पर रखी टंकियों में पानी जमा होता है। फिर पीवीसी पाइपों से सीधे घरों में
पहुंचता है। स्थानीय निवासी 50 वर्षीय केनी का सवाल यहां की जलसंस्कृति की
पूरी कहानी खुद ही कह देता है। उनसे जब पानी बचाने के बारे में पूछा गया तो
उन्होंने उल्टा सवाल दाग दिया, ‘आखिर हम क्यों बचाएं पानी और कैसे?’
हालात : जो सपने में नहीं सोचे थे
यहां पिछले पांच साल में हालात तेजी से बदले हैं। आबादी में बढ़ोतरी,
पर्यटकों की बढ़ती संख्या, औद्योगीकरण, पहाड़ों के खनन आदि से पेयजल संकट
गहराया है। करीब 80 साल पहले स्थापित रामकृष्ण मिशन के स्वामी अनुक्तानंद
बताते हैं, ‘दिसंबर से फरवरी के बीच पीने के पानी का संकट बढऩे लगा है।
हमने कभी सपने में नहीं सोचा था कि यहां भी ऐसा होगा। स्थानीय लोग इफरात
बारिश के चलते पानी की अहमियत नहीं जानते। न संरक्षण की आदत कभी रही।’
कोशिश: खर्चीली परियोजनाएं
मेघालय सरकार ने दो साल पहले छह किलोमीटर दूर स्थित नदी से चेरापूंजी को
पेयजल आपूर्ति की योजना बनाई। दूसरे शहरों की तरह खर्चीली परियोजना। लेकिन
शिलांग के भूविद् डॉ. एचजे सिमलेह कहते हैं, ‘इससे सिर्फ दस साल तक पेयजल
आपूर्ति हो पाएगी। वह भी तब जबकि नदी के जलग्रहण क्षेत्र को बचाकर रखा
जाए।’
समाधान: बहते पानी को रोकना
नॉर्थ-ईस्ट एंड हिल्स यूनिवॢसटी में पर्यावरण अध्ययन विभाग के प्रो. बीके
तिवारी कहते हैं, ‘मैदानों की तरह जल संरक्षण की तकनीकें यहां कारगर नहीं
हैं। पहाड़ की सतह से बेहिसाब बहते को रोकना ही यहां की समस्या का समाधान
है। इसके लिए छोटे चेकडेम बनाना होंगे।’ वे साथ ही चेतावनी भी देते हैं,
‘यहां घने जंगल नहीं हैं। बेतहाशा खनन पहाड़ों को खत्म कर रहा है। ऐसे में
बहते पानी की प्राकृतिक धाराएं कब सूख जाएं, कोई नहीं जानता।’
सबसे ज्यादा बारिश होती है। फिर भी यहां पीने के पानी का संकट है। इसलिए
क्योंकि लोगों की घरों में पानी बचाकर रखने की आदत नहीं है। यहां पहाड़ ही
पानी का जरिया हैं। बहती धाराओं के नीचे बनाए गए कुंड या इनके नीचे खासतौर
पर रखी टंकियों में पानी जमा होता है। फिर पीवीसी पाइपों से सीधे घरों में
पहुंचता है। स्थानीय निवासी 50 वर्षीय केनी का सवाल यहां की जलसंस्कृति की
पूरी कहानी खुद ही कह देता है। उनसे जब पानी बचाने के बारे में पूछा गया तो
उन्होंने उल्टा सवाल दाग दिया, ‘आखिर हम क्यों बचाएं पानी और कैसे?’
हालात : जो सपने में नहीं सोचे थे
यहां पिछले पांच साल में हालात तेजी से बदले हैं। आबादी में बढ़ोतरी,
पर्यटकों की बढ़ती संख्या, औद्योगीकरण, पहाड़ों के खनन आदि से पेयजल संकट
गहराया है। करीब 80 साल पहले स्थापित रामकृष्ण मिशन के स्वामी अनुक्तानंद
बताते हैं, ‘दिसंबर से फरवरी के बीच पीने के पानी का संकट बढऩे लगा है।
हमने कभी सपने में नहीं सोचा था कि यहां भी ऐसा होगा। स्थानीय लोग इफरात
बारिश के चलते पानी की अहमियत नहीं जानते। न संरक्षण की आदत कभी रही।’
कोशिश: खर्चीली परियोजनाएं
मेघालय सरकार ने दो साल पहले छह किलोमीटर दूर स्थित नदी से चेरापूंजी को
पेयजल आपूर्ति की योजना बनाई। दूसरे शहरों की तरह खर्चीली परियोजना। लेकिन
शिलांग के भूविद् डॉ. एचजे सिमलेह कहते हैं, ‘इससे सिर्फ दस साल तक पेयजल
आपूर्ति हो पाएगी। वह भी तब जबकि नदी के जलग्रहण क्षेत्र को बचाकर रखा
जाए।’
समाधान: बहते पानी को रोकना
नॉर्थ-ईस्ट एंड हिल्स यूनिवॢसटी में पर्यावरण अध्ययन विभाग के प्रो. बीके
तिवारी कहते हैं, ‘मैदानों की तरह जल संरक्षण की तकनीकें यहां कारगर नहीं
हैं। पहाड़ की सतह से बेहिसाब बहते को रोकना ही यहां की समस्या का समाधान
है। इसके लिए छोटे चेकडेम बनाना होंगे।’ वे साथ ही चेतावनी भी देते हैं,
‘यहां घने जंगल नहीं हैं। बेतहाशा खनन पहाड़ों को खत्म कर रहा है। ऐसे में
बहते पानी की प्राकृतिक धाराएं कब सूख जाएं, कोई नहीं जानता।’