इसमें कोई संदेह नहीं कि कानकुन बैठक से दुनिया के देशों को बहुत कम उम्मीद
थी और नतीजा भी ठीक वैसा ही रहा। कोपेनहेगन बैठक में शेष विश्व और
औद्योगिक देशों के बीच जिन बिंदुओं को लेकर तकरार थी उनका कोई समाधान नहीं
निकला। अब चर्चा का बिंदु इस पर है कि किसे कितना ज्यादा प्रदूषण फैलाने का
अधिकार है अथवा होना चाहिए। आर्थिक लाभ और पर्यावरण संतुलन को लेकर पूरा
विश्व दो अलग-अलग छोर पर खड़ा नजर आ रहा है। विकसित देश अपने विकास की कीमत
पर पर्यावरण को ज्यादा महत्व नहीं देना चाह रहे तो विकासशील देश पर्यावरण
के अपने योगदान के हिस्से का उचित मूल्य मांग रहे हैं। यह बड़ी दुविधा की
स्थिति है कि किसी को भी धरती के अस्तित्व की बजाय अपने-अपने लाभ और विकास
की चिंता सता रही है। इस संदर्भ में कानकुन बैठक एक निर्णायक मोड़ वाली
बैठक साबित हो सकती थी। विभिन्न देशों के बीच सहमति के लिए जो रोडमैप तैयार
करने की बात हो रही है, वह एक दीर्घकालिक कार्यसमूह बनाने पर निर्भर है।
पश्चिमी मीडिया इसकी काफी तारीफ भी कर रहा है। इस बारे में आलोचकों का भी
यही कहना है कि दुनिया के देशों ने थोड़ा ही सही, लेकिन सहमतिमूलक एक छोटा
कदम तो उठाया। यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित ही है कि कार्बन डाइआक्साइड के
उत्सर्जन में कटौती के मुद्दे पर भविष्य में किस तरह के कदम उठाए जाएंगे।
इस बारे में मेरी कुछ अलग ही धारणा है। पहला यह कि जिन समस्याओं से हम जूझ
रहे हैं उसके प्रति हमें गंभीर होना होगा। यदि अभी कोई कदम नहीं उठाए जाते
तो 2020 तक वैश्विक ताप में 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। इसे रोकने के लिए
हमें 44 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड की रखनी होगी। वर्तमान में कुल कार्बन
डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन लगभग 48 अरब टन है। इससे यह साफ है कि हमारी धरती
पर आवश्यकता से 4 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड अभी भी ज्यादा है और 2020 तक
स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या हो सकता है? 2007 में बाली
जलवायु सम्मेलन में निर्धारित मानक के मुताबिक 2020 तक औद्योगिक देशों को
1990 के स्तर से 40 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने पर बहस हुई थी।
इस पर भी सहमति हुई थी कि भारत और चीन समेत विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन
की मात्रा बढ़ने से रोकने में मदद करेंगे इसके लिए विकसित देशों को आर्थिक
और तकनीकी मदद करनी थी। परंतु औद्योगिक विकसित देशों ने न तो आर्थिक मदद का
अपना वादा निभाया और न ही टेक्नोलॉजी मुहैया कराया। इन मुद्दों के अलावा
यह तय होना था कि औद्योगिक देशों द्वारा कुल उत्सर्जन में कितनी कटौती की
जाएगी और इसकी समयावधि क्या होगी? इस बारे में कानकुन सम्मेलन के अंत में
औद्योगिक देशों की तरफ से कोई निश्चित समयसीमा तय नहीं की गई, बावजूद इसके
कि इस समस्या के लिए उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है।
सम्मेलन में औद्योगिक देशों ने अनिवार्य की बजाय स्वैच्छिक कटौती की बात
कही, जिसके तहत 1990 के स्तर से 15 प्रतिशत
थी और नतीजा भी ठीक वैसा ही रहा। कोपेनहेगन बैठक में शेष विश्व और
औद्योगिक देशों के बीच जिन बिंदुओं को लेकर तकरार थी उनका कोई समाधान नहीं
निकला। अब चर्चा का बिंदु इस पर है कि किसे कितना ज्यादा प्रदूषण फैलाने का
अधिकार है अथवा होना चाहिए। आर्थिक लाभ और पर्यावरण संतुलन को लेकर पूरा
विश्व दो अलग-अलग छोर पर खड़ा नजर आ रहा है। विकसित देश अपने विकास की कीमत
पर पर्यावरण को ज्यादा महत्व नहीं देना चाह रहे तो विकासशील देश पर्यावरण
के अपने योगदान के हिस्से का उचित मूल्य मांग रहे हैं। यह बड़ी दुविधा की
स्थिति है कि किसी को भी धरती के अस्तित्व की बजाय अपने-अपने लाभ और विकास
की चिंता सता रही है। इस संदर्भ में कानकुन बैठक एक निर्णायक मोड़ वाली
बैठक साबित हो सकती थी। विभिन्न देशों के बीच सहमति के लिए जो रोडमैप तैयार
करने की बात हो रही है, वह एक दीर्घकालिक कार्यसमूह बनाने पर निर्भर है।
पश्चिमी मीडिया इसकी काफी तारीफ भी कर रहा है। इस बारे में आलोचकों का भी
यही कहना है कि दुनिया के देशों ने थोड़ा ही सही, लेकिन सहमतिमूलक एक छोटा
कदम तो उठाया। यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित ही है कि कार्बन डाइआक्साइड के
उत्सर्जन में कटौती के मुद्दे पर भविष्य में किस तरह के कदम उठाए जाएंगे।
इस बारे में मेरी कुछ अलग ही धारणा है। पहला यह कि जिन समस्याओं से हम जूझ
रहे हैं उसके प्रति हमें गंभीर होना होगा। यदि अभी कोई कदम नहीं उठाए जाते
तो 2020 तक वैश्विक ताप में 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। इसे रोकने के लिए
हमें 44 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड की रखनी होगी। वर्तमान में कुल कार्बन
डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन लगभग 48 अरब टन है। इससे यह साफ है कि हमारी धरती
पर आवश्यकता से 4 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड अभी भी ज्यादा है और 2020 तक
स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या हो सकता है? 2007 में बाली
जलवायु सम्मेलन में निर्धारित मानक के मुताबिक 2020 तक औद्योगिक देशों को
1990 के स्तर से 40 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने पर बहस हुई थी।
इस पर भी सहमति हुई थी कि भारत और चीन समेत विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन
की मात्रा बढ़ने से रोकने में मदद करेंगे इसके लिए विकसित देशों को आर्थिक
और तकनीकी मदद करनी थी। परंतु औद्योगिक विकसित देशों ने न तो आर्थिक मदद का
अपना वादा निभाया और न ही टेक्नोलॉजी मुहैया कराया। इन मुद्दों के अलावा
यह तय होना था कि औद्योगिक देशों द्वारा कुल उत्सर्जन में कितनी कटौती की
जाएगी और इसकी समयावधि क्या होगी? इस बारे में कानकुन सम्मेलन के अंत में
औद्योगिक देशों की तरफ से कोई निश्चित समयसीमा तय नहीं की गई, बावजूद इसके
कि इस समस्या के लिए उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है।
सम्मेलन में औद्योगिक देशों ने अनिवार्य की बजाय स्वैच्छिक कटौती की बात
कही, जिसके तहत 1990 के स्तर से 15 प्रतिशत