किसान-सरकार साझेदारी का मॉडल

भू-अर्जन कानून 1894 में
मामूली सा संशोधन कर ग्रामसभा की भूमि का उपयोग बदले जाने के बावजूद भारत
के गांवों के किसानों एवं भूमिहीनों के वंशजों का भविष्य सुनिश्चित किया जा
सकता है। इस संशोधन का नाम सक्रिय समूहों ने किसान-सरकार साझेदारी तय किया
है।




अगस्त में उत्तर प्रदेश के जिरकपुर हुए किसान आंदोलन के बाद विभिन्न
राजनीतिक पार्टियों ने एक स्वर में भू-अर्जन कानून 1894 में संशोधन की मांग
की थी। मामला सिर्फ मांग तक सीमित नहीं रहा, चौधरी अजित सिंह की अगुवाई
में वामपंथी दलों सहित विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस कानून में ऐसा संशोधन
करने की मांग को लेकर संसद पर प्रदर्शन कर डाला जिसके मुताबिक 85 फीसदी
भूमि निजी कंपनियां सीधे किसानों से खरीद सकें। यूपीए सरकार ने भी भू-अर्जन
कानून में संशोधन का कमोबेश ऐसा ही मसौदा तैयार कर रखा है।




इसके तहत कंपनियां किसानों से सीधे 70 फीसदी भूमि को खरीदेंगी, बाकी की 30
फीसदी भूमि सरकार सार्वजनिक हित के नाम पर अधिग्रहण कर कंपनियों को उपलब्ध
कराने का काम करेगी। भू-अर्जन कानून में ऐसा संशोधन होने के बाद भूमि मंडी
में बिकने वाले सामान की तरह हो जाएगी। ऐसी स्थिति में यह सवाल इस देश के
प्रभावित होने वाले किसान और भूमि पर निर्भर लोगों सहित इनके अधिकारों को
लेकर लड़ रहे जनसंगठन भी उठा रहे हैं कि कोई ऐसा संशोधन क्यों नहीं किया जा
सकता जिसके तहत किसानों की भूमि का उपयोग सरकारी या निजी योजना के लिए
बदले जाने के बावजूद उस भूमि पर भूमिहीन और उनके वंशजों का भविष्य
सुनिश्चित हो सके? राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भूमि को बचाने के लिए
जारी किसान आंदोलनों में सक्रिय एक समूह ऐसे मसौदे पर राष्ट्रीय सहमति
बनाने के लिए प्रयासरत है। भू-अर्जन कानून 1894 में मामूली सा संशोधन कर
ग्रामसभा की भूमि का उपयोग बदले जाने के बावजूद भारत के गांवों के किसानों
एवं भूमिहीनों के वंशजों का भविष्य सुनिश्चित किया जा सकता है। इसका नाम
सक्रिय समूहों ने किसान-सरकार साझेदारी तय किया है।




भू-अर्जन कानून 1894 की मौजूदा धारा 4 के अंतर्गत किसी भी किस्म की आपत्ति
आमंत्रित करते हुए प्राथमिक अधिसूचना जारी की जाती है, धारा-5ए के अंतर्गत
आपत्ति पर विचार किया जाता है और अंतिम घोषणा धारा-6 के अंतर्गत जारी की
जाती है। इसके बाद, धारा-9 के अंतर्गत मुआवजे का दावा दर्ज करने के लिए
अधिसूचना जारी की जाती है और धारा-11 के अंतर्गत निर्णय की घोषणा कर दी
जाती है। इन प्रक्रियागत आवश्यकताओं के पूरा होने के बाद सरकार द्वारा जमीन
का अधिग्रहण कर लिया जाता है। इस प्रक्रिया में जमीन मालिकों और अन्य
प्रभावित लोगों के पास भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अपनी आवाज उठाने के लिए
सिर्फ एक मौका होता है और वह है धारा-4 के अंतर्गत जारी अधिसूचना का जवाब
देना। लेकिन इस अधिकार का कोई मतलब नहीं रह गया है और भूमि अधिग्रहण
प्राधिकार लोगों के आपत्ति करने के बाद भी भूमि अधिग्रहण का निर्णय कर लेते
हैं।न्यायालय ने इस अधिकार के प्रयोग की कोई सीमा नहीं तय की है, जिसे
सर्वाधिकार क्षेत्र सिद्धांत के अंतर्गत तर्कसंगत ठहराया जाता है।




प्रस्तावित संशोधन के तहत पहली मांग जो किसान और गांव के प्रभावित लोग कर
सकते हैं, वह यह कि धारा-4 के अंतर्गत प्रभावित होन वाले किसानों और भूमि
पर निर्भर लोगों से सलाह-मशविरा करना चाहिए। धारा-4 की अधिसूचना में स्वयं
यह कहा जाना चाहिए कि योजना के लिए चिह्न्ति की जाने वाली जमीन का सरकारी
या निजी क्षेत्र की योजनाओं के लिए किसान-सरकार साझेदारी के तहत लीज पर
विकास किया जाएगा। इसके बाद धारा-5ए की कार्यवाही के तहत सक्षम प्राधिकार
द्वारा खुली जनसुनवाई आयोजित की जानी चाहिए।






इससे लोगों को भू-उपयोग की बदली किए जाने, किसान-सरकार साझेदारी के तहत लीज
पर भूमि देने की तमाम की शर्तो पर सामूहिक विचार रखने का मौका मिलेगा।
धारा-6 में जारी घोषणा के अंतर्गत वह शर्त स्पष्ट होनी चाहिए जिसके अंतर्गत
किसी भी योजना के लिए भू-उपयोग बदलकर किसान-सरकार साझेदारी के तहत सरकारी
या निजी योजना के लिए भूमि लीज पर दी जानी हो।




धारा-9 में प्रदान किए गए अवसर का उपयोग किसान-सरकार साझेदारी की खास शर्तो
को आगे बढ़ाने में किया जा सकता है। धारा-11 के अंतर्गत होने वाले निर्णय
की घोषणा में उन समझौतों की शर्तो को शामिल किया जा सकता है। इस तरह
प्रक्रिया के तौर पर, विकास करने वाली एजेंसी (सार्वजनिक या निजी) और
किसानों सहित भूमिहीन मजदूरों के बीच साझेदारी के तौर पर भूमि विकास के
वैचारिक गठन का समायोजन मौजूदा कानूनी ढांचे में ही किया जाना संभव है।

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