वित्त मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक इस बारे में भारतीय रिजर्व बैंक [आरबीआइ], नाबार्ड और कुछ राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक समिति गठित की गई है। यह समिति देश में कृषि ऋण समितियों [पीएसी], बड़ी आदिवासी बहुउद्देश्यीय सहकारी समितियों [एलएएमपी], किसान सेवा समितियों [एफएसएस] के काम करने के तरीके का अध्ययन कर रही है। देश में फिलहाल 220 ऐसी पीएसी, एलएएमपी या एफएसएस हैं, जो बेहद सफलता से काम कर रही हैं। सरकार इनकी कामयाबी को और व्यापक करना चाहती है। देश की पूरी आबादी के वित्तीय उत्थान के लिए यह कदम बेहद कारगर साबित हो सकता है।
सूत्रों के मुताबिक केंद्र की सोच यह है कि कामयाब पीएसी, एलएएमपी या एफएसएस को सरकारी बैंकों, ग्रामीण बैंको या बड़ी सहकारी समितियों के साथ संबंद्ध कर दिया जाए। ये समितियां बड़े बैंकों की विभिन्न स्कीमों को अपने स्तर पर लागू करने का काम कर सकती हैं। एक विकल्प यह है कि इन्हें बैंकों के बतौर प्रतिनिधि [बैंकिंग करेस्पॉन्डेंट] काम करने का लाइसेंस दे दिया जाए। इसके बाद ये बैंकों के सारे उत्पाद मसलन जमा व कर्ज स्कीमों, बीमा वगैरह की बिक्री कर सकेंगी। माना जा रहा है कि अगले वर्ष के मध्य तक इस बारे में फैसला हो जाएगा।
देश के विभिन्न इलाकों में पीएसी, एलएएमपी और एफएसएस सफलतापूर्वक कार्य करती रही हैं। हाल के वर्षो में इनकी गतिविधियां जरूर प्रभावित हुई हैं, लेकिन सरकार मानती है कि उसकी वित्तीय समावेश योजना में ये अहम भूमिका निभा सकती हैं। मसलन देश में एक लाख से ज्यादा पीएसी हैं। इनके सदस्यों की संख्या 12.5 करोड़ से ज्यादा है। तमिलनाडु, उड़ीसा व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में ये अभी भी काफी मजबूत हैं। नाबार्ड के मुताबिक 60 फीसदी से ज्यादा पीएसी की हालत बेहद खराब है। इसी तरह से एलएएमपी के जरिए सरकार आदिवासी इलाकों में तमाम तरह की वित्तीय सेवाएं पहुंचाने की मंशा रख