वेदांत, पोस्को और सिंधुदुर्ग। इन तीनों मामलों में मुद्दा एक ही है-खनन और संसाधन आधारित उद्योग के लिए एक सुविचारित नीति की आवश्यकता। पिछले दिनों सरकार ने उड़ीसा के पिछड़े कालाहांडी जिले में नियमगिरि पहाडिय़ों पर वेदांत को दी गई खनन की अनुमति वापस लेने का फैसला किया। उधर, उड़ीसा में पोस्को लौह अयस्क परियोजना पर गुप्ता समिति ने एक तरह से विभाजित फैसला दिया। इसके अलावा पश्चिमी घाट क्षेत्र में महाराष्ट्र सरकार द्वारा बॉक्साइट और लौह खनन के 46 लाइसेंस जारी किए जाने को लेकर पर्यावरण मंत्रालय ने चिंता जताई है। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो सही मायनों में स्थायी विकास की वास्तविक लागत और देश के लोगों का जीवनस्तर सुधारने की राष्ट्रीय जरूरत की जटिलता को हमारे सामने लाते हैं।
राहुल गांधी द्वारा डोंगरिया कोंध जनजाति के पक्ष में उठाई गई आवाज ने देश के राजनीतिक रूप से उपेक्षित रहे आदिवासी समाज का दर्जा न केवल कांग्रेस बल्कि अन्य राजनीतिक संगठनों की नजर में भी काफी ऊपर उठा दिया। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह कि इसने प्रभावित जनसंख्या के भविष्य के विकास की बात मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों से परे जाकर उठाई ताकि उनकी संस्कृति और जीवनशैली से बगैर छेड़छाड़ किए विकास के स्वीकार्य मानकों की पहुंच उन दूरदराज के लोगों तक सुनिश्चित कराई जा सके।
पर्यावरण संरक्षण, तटीय क्षेत्र के नियमन तथा वनाधिकारों से संबंधित राष्टï्रीय कानून बगैर किसी नीतिगत ढांचे के महज निर्देशक तत्त्वों की तरह प्रतीत होते हैं। उनसे कोई वांछित परिणाम हासिल करना संभव नहीं दिखता। इन मामलों में तदर्थ विशेषज्ञ समितियों की नियुक्ति न तो कोई स्थायी नीति उपलब्ध कराती है और न ही इससे राजनीतिक साझेदारी की प्रचलित धारणा में ही कुछ कमी आती है।
इस मामले में आदिवासी आबादी वाले कुछ अन्य देशों जैसे कि ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, न्यूजीलैंड, ब्राजील, पेरु, चिली, इंडोनेशिया आदि के अनुभव भी बहुत बेहतर नहीं रहे हैं। देशज संस्कृति के संरक्षण और विकास और आधुनिकता के लाभों को बांटने का मुद्दा हर जगह एक समान ही उभरकर आया है और इनसे निपटने में आमतौर पर आंशिक सफलता ही मिली है। ऐसे मामलों में नीतियों ने हमेशा प्रभावित लोगों का समर्थन हासिल करने की ओर ही कदम बढ़ाया है।
इस मुद्दे पर तत्काल विचार करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि देश के अधिकांश खनिज संपन्न जिले, संविधान की पांचवीं अनुसूची में अधिसूचित जनजातीय भूमि वाले हैं। देश भर में 30,000 से अधिक अवैध खदानों की मौजूदगी से यह साफ होता है कि पंचायत एक्सटेंशन टु शेड्यूल्ड एरियाज (पीईएसए) ऐक्ट के क्रियान्वयन में अपेक्षाकृत शिथिलता बरती गई है। इसके तहत जनजातीय पंचायतों और ग्राम सभाओं से सलाह मशविरा किया जाना जरूरी है। ऐसे में न केवल सैद्घांतिक मंजूरी वाले वेदांत और पोस्को बल्कि उन अवैध खदानों पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है जिनकी वजह से जनजातीय अधिकार, अभयारण्य और संस्कृति पर बुरा असर पड़ा है या वे नष्ट हो रही हैं।
विकास को गति प्रदान करने के लिए देश के उद्योग जगत को तेल एवं गैस आदि की ही भांति खनिज और धातुओं की भी आवश्यकता है। खनन उद्योग को भी अपने निवेश परपर्याप्त मुनाफा चाहिए। ऐसे में इस क्षेत्र में ढुलमुल नीति के चलते संचार, उद्योग, कृषि और सेवा क्षेत्र के बुनियादी विकास में होने वाले विदेशी पूंजी निवेश पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। देश को इस समय एक नई खनन नीति की आवश्यकता है जिसके तहत सभी वैधानिक, सशर्त स्वीकृति प्राप्त अथवा अवैध हर तरह की नई और मौजूदा खदानें आती हों। एन सी सक्सेना और मीना गुप्ता समितियों की रिपोर्ट सरकार द्वारा बनाई गई पिछली कई समितियों के काम का ही समाकलन था।
सरकार ने राजनीतिक इच्छाशक्ति के बल पर हाल में इस मसले से निपटने के लिए जो मंशा दर्शाई है उसके तहत यह जरूरी होगा कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों का वास्तविक मूल्यांकन करते हुए पर्यावरण के अनुकूल, अधिकार आधारित तथा कम लागत वाली नीति निर्धारित करने की कोशिश की जाए। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) द्वारा यूरोपीय देशों के कॉरपोरेट सेक्टर में कारोबारी प्रशासन और स्थायित्व को लेकर जो गैरबाध्यकारी दिशानिर्देश जारी किए गए हैं उन्हें भी राष्ट्रीय स्तर पर दिशानिर्देश तैयार करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। बाद में इन्हें कानून के रूप में भी ढाला जा सकता है। इसके तहत नई अथवा मौजूदा खनन परियोजनाओं अथवा बुनियादी ढांचा क्षेत्र या औद्योगिक परियोजनाओं के कारण लोगों के अधिकारों का हनन होने आदि के मामलों में ये दिशानिर्देश खासी प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं।
ऐसे अनेक अच्छे उदाहरण देखे जा सकते हैं। कनाडा की खनन कंपनी गोल्डकॉर्प ग्वाटेमाला में सामुदायिक संपत्ति अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए एक स्वतंत्र मानवाधिकार प्रभाव आकलन संबंधी अध्ययन करने और उसकी विस्तृत कार्ययोजना उपलब्ध कराने पर तैयार हो गई है। इसी तरह बीएचपी बिलिटन वैश्विक स्तर पर एक एथिक्स पैनल की स्थापना कर रही है जो त्रैमासिक स्तर पर कंपनी की कारोबारी संहिता के अनुपालन की स्थिति की समीक्षा करेगी। इसके अलावा उनकी निरंतरता समिति स्वास्थ्य, सुरक्षा, पर्यावरण और समुदायिक मामलों से जुड़े खतरों पर ध्यान केंद्रित करेगी। एंग्लो-अमेरिकंस सोशल वे गाइडलाइन पद्घति जो 24 बिंदुओं पर आधारित स्कोरकार्ड का इस्तेमाल करती है जिसमें स्वदेशी लोगों के अधिकार और उनकी शिकायतें आदि भी शामिल होते हैं। देश के संसाधन आधारित उद्योग जगत को भविष्य के विकास के लिए एक ऐसे रोडमैप की तलाश है जो पर्यावरण को बेहतर बनाए रखने के क्षेत्र में तो काम कर ही सके साथ ही कारोबार के लिए एक ऐसी आचार संहिता भी मुहैया करा सके जो प्रभावित जनसंख्या को उस विशिष्ट उद्योग में भी भागीदार बनाना सुनिश्चित कर सके। इस प्रक्रिया की शुरुआत मौजूदा स्वीकृति धारकों से की जा सकती है, वेदांत और पोस्को इसके अच्छे उदाहरण बन सकते हैं।
उनसे कहा जा सकता है कि वे इस संबंध में एक कार्य योजना प्रस्तुत करें कि उनकी प्रस्तावित अथवा आगामी योजनाओं में ऊपर उल्लिखित प्रावधान किए जाएंगे। इससे एक राष्ट्रीय नीति के लिए ढांचा तो उपलब्ध हो ही जाएगा।
राहुल गांधी द्वारा डोंगरिया कोंध जनजाति के पक्ष में उठाई गई आवाज ने देश के राजनीतिक रूप से उपेक्षित रहे आदिवासी समाज का दर्जा न केवल कांग्रेस बल्कि अन्य राजनीतिक संगठनों की नजर में भी काफी ऊपर उठा दिया। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह कि इसने प्रभावित जनसंख्या के भविष्य के विकास की बात मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों से परे जाकर उठाई ताकि उनकी संस्कृति और जीवनशैली से बगैर छेड़छाड़ किए विकास के स्वीकार्य मानकों की पहुंच उन दूरदराज के लोगों तक सुनिश्चित कराई जा सके।
पर्यावरण संरक्षण, तटीय क्षेत्र के नियमन तथा वनाधिकारों से संबंधित राष्टï्रीय कानून बगैर किसी नीतिगत ढांचे के महज निर्देशक तत्त्वों की तरह प्रतीत होते हैं। उनसे कोई वांछित परिणाम हासिल करना संभव नहीं दिखता। इन मामलों में तदर्थ विशेषज्ञ समितियों की नियुक्ति न तो कोई स्थायी नीति उपलब्ध कराती है और न ही इससे राजनीतिक साझेदारी की प्रचलित धारणा में ही कुछ कमी आती है।
इस मामले में आदिवासी आबादी वाले कुछ अन्य देशों जैसे कि ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, न्यूजीलैंड, ब्राजील, पेरु, चिली, इंडोनेशिया आदि के अनुभव भी बहुत बेहतर नहीं रहे हैं। देशज संस्कृति के संरक्षण और विकास और आधुनिकता के लाभों को बांटने का मुद्दा हर जगह एक समान ही उभरकर आया है और इनसे निपटने में आमतौर पर आंशिक सफलता ही मिली है। ऐसे मामलों में नीतियों ने हमेशा प्रभावित लोगों का समर्थन हासिल करने की ओर ही कदम बढ़ाया है।
इस मुद्दे पर तत्काल विचार करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि देश के अधिकांश खनिज संपन्न जिले, संविधान की पांचवीं अनुसूची में अधिसूचित जनजातीय भूमि वाले हैं। देश भर में 30,000 से अधिक अवैध खदानों की मौजूदगी से यह साफ होता है कि पंचायत एक्सटेंशन टु शेड्यूल्ड एरियाज (पीईएसए) ऐक्ट के क्रियान्वयन में अपेक्षाकृत शिथिलता बरती गई है। इसके तहत जनजातीय पंचायतों और ग्राम सभाओं से सलाह मशविरा किया जाना जरूरी है। ऐसे में न केवल सैद्घांतिक मंजूरी वाले वेदांत और पोस्को बल्कि उन अवैध खदानों पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है जिनकी वजह से जनजातीय अधिकार, अभयारण्य और संस्कृति पर बुरा असर पड़ा है या वे नष्ट हो रही हैं।
विकास को गति प्रदान करने के लिए देश के उद्योग जगत को तेल एवं गैस आदि की ही भांति खनिज और धातुओं की भी आवश्यकता है। खनन उद्योग को भी अपने निवेश परपर्याप्त मुनाफा चाहिए। ऐसे में इस क्षेत्र में ढुलमुल नीति के चलते संचार, उद्योग, कृषि और सेवा क्षेत्र के बुनियादी विकास में होने वाले विदेशी पूंजी निवेश पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। देश को इस समय एक नई खनन नीति की आवश्यकता है जिसके तहत सभी वैधानिक, सशर्त स्वीकृति प्राप्त अथवा अवैध हर तरह की नई और मौजूदा खदानें आती हों। एन सी सक्सेना और मीना गुप्ता समितियों की रिपोर्ट सरकार द्वारा बनाई गई पिछली कई समितियों के काम का ही समाकलन था।
सरकार ने राजनीतिक इच्छाशक्ति के बल पर हाल में इस मसले से निपटने के लिए जो मंशा दर्शाई है उसके तहत यह जरूरी होगा कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों का वास्तविक मूल्यांकन करते हुए पर्यावरण के अनुकूल, अधिकार आधारित तथा कम लागत वाली नीति निर्धारित करने की कोशिश की जाए। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) द्वारा यूरोपीय देशों के कॉरपोरेट सेक्टर में कारोबारी प्रशासन और स्थायित्व को लेकर जो गैरबाध्यकारी दिशानिर्देश जारी किए गए हैं उन्हें भी राष्ट्रीय स्तर पर दिशानिर्देश तैयार करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। बाद में इन्हें कानून के रूप में भी ढाला जा सकता है। इसके तहत नई अथवा मौजूदा खनन परियोजनाओं अथवा बुनियादी ढांचा क्षेत्र या औद्योगिक परियोजनाओं के कारण लोगों के अधिकारों का हनन होने आदि के मामलों में ये दिशानिर्देश खासी प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं।
ऐसे अनेक अच्छे उदाहरण देखे जा सकते हैं। कनाडा की खनन कंपनी गोल्डकॉर्प ग्वाटेमाला में सामुदायिक संपत्ति अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए एक स्वतंत्र मानवाधिकार प्रभाव आकलन संबंधी अध्ययन करने और उसकी विस्तृत कार्ययोजना उपलब्ध कराने पर तैयार हो गई है। इसी तरह बीएचपी बिलिटन वैश्विक स्तर पर एक एथिक्स पैनल की स्थापना कर रही है जो त्रैमासिक स्तर पर कंपनी की कारोबारी संहिता के अनुपालन की स्थिति की समीक्षा करेगी। इसके अलावा उनकी निरंतरता समिति स्वास्थ्य, सुरक्षा, पर्यावरण और समुदायिक मामलों से जुड़े खतरों पर ध्यान केंद्रित करेगी। एंग्लो-अमेरिकंस सोशल वे गाइडलाइन पद्घति जो 24 बिंदुओं पर आधारित स्कोरकार्ड का इस्तेमाल करती है जिसमें स्वदेशी लोगों के अधिकार और उनकी शिकायतें आदि भी शामिल होते हैं। देश के संसाधन आधारित उद्योग जगत को भविष्य के विकास के लिए एक ऐसे रोडमैप की तलाश है जो पर्यावरण को बेहतर बनाए रखने के क्षेत्र में तो काम कर ही सके साथ ही कारोबार के लिए एक ऐसी आचार संहिता भी मुहैया करा सके जो प्रभावित जनसंख्या को उस विशिष्ट उद्योग में भी भागीदार बनाना सुनिश्चित कर सके। इस प्रक्रिया की शुरुआत मौजूदा स्वीकृति धारकों से की जा सकती है, वेदांत और पोस्को इसके अच्छे उदाहरण बन सकते हैं।
उनसे कहा जा सकता है कि वे इस संबंध में एक कार्य योजना प्रस्तुत करें कि उनकी प्रस्तावित अथवा आगामी योजनाओं में ऊपर उल्लिखित प्रावधान किए जाएंगे। इससे एक राष्ट्रीय नीति के लिए ढांचा तो उपलब्ध हो ही जाएगा।
(लेखक यूरोपीय संघ में भारत के राजदूत रहे हैं।)