यह उन बच्चों की संख्या है जो न तो स्कूल जाते हैं और न ही मजदूर हैं. तो फ़िर ये करोड़ों बच्चे क्या हैं, कहां हैं और कैसे हैं- इसका हिसाब किसी भी किताब या रिकॉर्ड में नहीं मिलता. इस सात करोड़ 20 लाख के आंकड़े में 14 से 18 साल तक के बच्चे नहीं जोड़े गये हैं. अगर उन्हें भी जोड़ दें तो देश के बच्चों की हालत बेहद दुबली नजर आती है.
देखा जाये तो भारत में बच्चों की उम्र को लेकर भी अलग-अलग परिभाषायें हैं. संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में बच्चों की उम्र 0 से 18 साल रखी गयी है. लेकिन भारत में बच्चों के उम्र की सीमा 14 साल ही है. इतना ही नहीं, अलग-अलग अधिनियमों के मुताबिक बच्चों की उम्र बदलती जाती है. जैसे किशोर-न्याय अधिनियम, 2000 में 18 साल, बाल-श्रम अधिनियम, 1886 में 14 साल, बाल-विवाह अधिनियम में लड़के के लिए 21 साल और लड़की के लिए 18 साल की उम्र तय की गयी है.
खदानों में काम करने की उम्र 15 और वोट देने की उम्र 18 साल है. इसी तरह शिक्षा के अधिकार बिल, 2008 में बच्चों की उम्र 6-14 साल रखी गयी है. इस कानून के तहत छह से कम और 14 से अधिक उम्र वालों के लिए शिक्षा का बुनियादी हक नहीं मिल सकेगा.इस तथ्य को 2001 की जनगणना के उस आकड़े से जोड़कर देखना चाहिए, जिसमें पांच साल से कम उम्र के छह लाख बच्चे घरेलू कामकाज में उलङो हुए हैं.
कानून के ऐसे भेदभाव से अशिक्षा और बाल मजदूरी की समस्याएं उलझती जाती हैं. सरकारी नीति और योजनाओं में भी बच्चों की उम्र को लेकर उदासीनता दिखाई देती है. 14 साल तक के बच्चे युवा-कल्याण मंत्रालय के अधीन रहते हैं. लेकिन 14 से 18 साल वाले बच्चे की सुरक्षा और विकास के सवाल पर चुप्पी साध ली जाती है.किशोर बच्चों की हालत भी बहुत खराब है.
2001 की जनगणना में किशोर बच्चों की संख्या 22 करोड़ 50 लाख है. यह कुल जनसंख्या का 22 प्रतिशत हिस्सा है. इसमें भी 53 प्रतिशत लड़के और 47 प्रतिशत लड़कियां हैं. यह सिर्फ़ संख्या का अंतर नहीं है, असमानता और लैंगिक-भेदभाव का भी अंतर है. 2001 की जनगणना में 0- 5 साल की उम्र वालों का लिंग-अनुपात 1000 879 है. जबकि15-19 साल वालों में यह 1000 858 है.
जिस उम्र में लिंग-अनुपात सबसे खराब है उसके लिए अलग से कोई रणनीति बननी थी. लेकिन उम्र की जरूरत और समस्याओं को अनदेखा किया जा रहा है.बात साफ़ है कि बच्चियां जैसे-जैसे किशोरियां बन रही हैं, उनकी हालत बद से बदतर हो रही है. देखा जाये तो बालिका शिशु बाल-विभाग, महिला व बाल-विकास के अधीन आता है. लेकिन एक किशोरी न तो बच्चीहै न ही औरत. इसलिए उसके लिए कोई विभाग या मंत्रालय जिम्मेदार नहीं होता.
इसलिए देश की किशोरियों को सबसे ज्यादा उपेक्षा सहनी पड़ती है. एक किशोरी की पहचान न उभर पाने के पीछे उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि समाज में मौजूद धारणाएं हैं. लड़की के जन्म के बाद ही उसे बहन, पत्नी और मां के दायरों से बांध दिया जाता हैं. उसे शुरुआत से ही समझौते की शिक्षा दी जाने लगती है.
किशोरियों को घरेलू काम, कम उम्र में शादी और मां बनने की जिम्मेदारियां निभानी होती हैं.इसलिए 6-14 साल के सभी बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देने के प्रावधान जाने के बावजूद 51 प्रतिशत लड़कियां आठवीं तक पढ़ाई छोड़ देती हैं. लड़की है तो उसे ऐसा ही होना चाहिए- इस तरह की बातें उसके जीने, सुरक्षा, विकास और भागीदारिता की राह में बाधा पैदा करती हैं. इस उपेक्षित समूह को उनकी मनमर्जी से जीने की आजादी का इंतजार है.
इससे उनके जीवन में स्थायी बदलाव आ सकेगा.फ़िलहाल ऐसे लक्षण दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते. उपेक्षित समूहों के साथ होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए दोहरे मापदंडों से बचना होगा. इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा के अधिकार बिल, 2008 में बच्चों की परिभाषा 0-18 साल तक की जाये. हरेक बच्चे को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का हक मिले. सरकार को बच्चों के स्वास्थ्य की जवाबदारी भी लेनी होगी.
इसके लिए वह बच्चों की शिक्षा पर जीडीपी का 10 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर 7 प्रतिशत खर्च करे.संयुक्त राष्ट्र कंवेन्शन के मुताबिक बाल अधिकारों का दायरा बढ़ाया जाये. बाल-मजदूरी अधिनियम,1986 को संशोधित करते हुए बच्चों को खतरनाक और गैर-खतरनाक कामों से रोकना होगा. योजनाएं बनाते समय बच्चों की उम्र, लिंग और वर्ग का ध्यान भी रखा जाये. राष्ट्रीय नीति के बुनियादी सिद्धांत में बराबरी की गारंटी हो. बच्चों और महिलाओं के लिए अलग से बनाये गए मंत्रालयों के पास काम की स्पष्ट रूपरेखा हो.
(लेखक बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था ””क्राइ’ के मीडिया सेल से जुड़े हैं)