राजनीतिक हकीकत के छह सूत्र — योगेन्द्र यादव

तो बिहार में क्या होगा? अगर आप छह दिन बिहार में घूम कर आयें तो दिल्ली में हर कोई इसी सवाल से आपका स्वागत करता है. सवाल के पीछे  चुनावी सटोरिये  की गिद्ध दृष्टि या फ़िर राजनीति के कीड़े की उत्सुकता तो होती ही है. लेकिन बिहार की बात निकलते ही कहीं एक औपनिवेशिक दर्प टपकने लगता है.

आप कितना ही कह लीजिये कि राजनीतिक चेतना में बिहार अधिकांश देश से बहुत आगे है, लेकिन ’ये बिहारी कब सुधरेंगे’ वाला भाव पसरने लगता है.छह चरणों के चुनाव का जायजा छह दिन में लगा लेना तो किसी के बस की बात नहीं है. अब तक दो चरण हो चुके हैं, और चुनाव प्रक्रिया के बीचोंबीच चुनावी परिणाम का आकलन करने का यहां कोई इरादा नहीं है.

यूं भी सीटों की चुनावी भविष्यवाणी से तौबा कर चुका हूं. लेकिन छह चरण के इस चुनाव के बहाने बिहार की बदलती राजनीतिक हकीकत के बारे में छह दिन में जो सीख पाया उसके छह सूत्र पेश कर रहा हूं.

 

 

पहला सूत्र : बिहार के विकास की बात करना अभी जल्दबाजी है, लेकिन विकास की आस जरूर बंधी है. पिछले पांच साल में बिहार के चहुंमुखी विकास के दावे बेशक अतिशयोक्ितपूर्ण हैं. ओर्थक वृद्धि के आंकड़े जरूर भ्रामक हैं. लेकिन जिसे आमतौर पर विकास कहा जाता है (इस बिजली, पानी, सड़क केंद्रित धारणा को ’बिपास’ कहें तो बेहतर होगा) उसके कुछ पहलुओं में पिछले पांच साल में आशातीत बदलाव हुआ है.

राज्य के हर कोने में सड़कों का कायापलट हो गया है. सरकारी अस्पतालों में डाक्टर जाने लगे हैं और मरीज भी. स्कूलों में अध्यापक बढ़े हैं और बच्चों को मिलने वाली सुविधाएं भी. यह बदलाव सिर्फ़ पटना या चंद शहरी इलाकों में ही नहीं, कमोबेश पूरे राज्य में हुआ है. इसका मतलब यह नहीं कि शिक्षा का स्तर या सेहत सुधर गयी है, गरीबी और बदहाली मिटने की तो बात ही छोड़िये.

बिजली, उद्योग और रोजगार के अवसर अभी जस के तस हैं, नये   शिक्षकों की गुणवत्ता से हर कोई नाराज है, सड़कों में भी बहुत काम बाकी है. लेकिन तीन दशक के बाद बिहार में आस लौटी है.

दूसरा सूत्र : सुशासन अभी दूर की कौड़ी है, लेकिन शासन वापस आया है. औरत-मर्द, गरीब-अमीर, अगड़ा-पिछड़ा हर कोई मानता है कि दबंगई, रंगदारी, अपहरण और बाहुबल के जोर से बेगार पहले से बहुत घटे हैं. लालू-राबड़ी राज के अंतिम दिनों का ’अंधेर नगरी चौपट राजा’वाला माहौल खत्म हुआ है.

भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ, शायद पहले से कुछ बढ़ा  ही है. लेकिन जनता को भरोसा है कि नीतीश कुमार अब इस पर कुछ करेंगे.  फ़िलहाल जनता चुनाव से पहले कुछ दबंग नेताओं से नीतीश कुमार के समझौते को नजरंदाज करने को तैयार है. बढ़ती अफ़सरशाही ङोलने को तैयार है.

अगर सुशासन जनकल्याण के लिए और जनता के प्रति जवाबदेह सरकार का नाम है तो बाकी देश की तरह बिहार इससे कोसों दूर है. बस कोई पच्चीस-तीस साल बाद (जगन्नाथ मिश्र के कांग्रेस राज में शुरु हुए युग के बाद से) शासन वापिस आया है, सरकार दिखने लगी है.

 

 

 

तीसरा सूत्र : मीडिया निष्पक्ष भले ही न हो, लेकिन उसकी कही हर बातझूठ नहीं है. विकास और सुशासन के नाम पर प्रचार के चलते बिहार का मीडिया सत्तारूढ़ सरकार के साथ खड़ा नजर आता है. अपनी छवि के प्रति अति-सजग नीतीश कुमार सरकार द्वारा प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीकों से मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिशें जानकार लोगों से छुपी नहीं हैं.

यूं भी बिहार के मीडिया पर आज भी अगड़ी जातियों का वर्चस्व है. उनके स्वार्थ और पूर्वाग्रह नीतीश सरकार से जुड़े हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि नीतीश के पक्ष में जाने वाली हर खबर झूठी है. पिछले चुनावों में मीडिया की तस्वीर और गरीब-गुरबा के जनमत से उभरने वाली छवि दो विपरीत संकेत देती थीं. इस बार ऐसा दिखाई नहीं देता.

 

 

चौथा सूत्र : जाति का चश्मा हटा नहीं है, लेकिन उसका नंबर बदल गया है. बाकी देश की तरह जाति बिहार के समाज, राजनीति और मन में बसी है. आम वोटर नेताओं, पार्टियों और सरकार को जाति के चश्मे से देखता रहा है, इस बार भी देखेगा. फ़र्क यही है कि पहले किसी भी सरकार से कामकाज की संभावना इतनी दूरस्थ थी कि जाति के चश्मे से अपने स्वजातीय उम्मीदवार और नेता के सिवा और कुछ दिखता ही नहीं था.

अब यह संभावना नजदीक के चश्मे से भी दिखने लगी है. समाज में जातीय समीकरण पलटने से इस चश्मे का नंबर भी बदला है. अगड़ों में नीतीश के प्रति अनुराग कम होने की भरपाई अति-पिछड़ों के जबरदस्त समर्थन और महादलित व पसमांदा मुसलमानों में सेंध से हो सकती है. उधर  राजद-लोजपा गंठबंधन के पक्ष में यादव और पासवान जाति का ध्रवीकरण पहले से ज्यादा हुआ है, लेकिन बाकी सब तरफ़ उन्हें नुकसान हो सकता है.

 

 

पांचवा सूत्र : लालू का सूरज डूबा नहीं है, लेकिन यह चुनाव नीतीश के इर्द-गिर्द हो रहा है. लालू प्रसाद यादव बिहार में सामाजिक क्रांति के अगुवा रह चुके है. पिछड़े और गरीब आज भी उन्हें स्नेह और सम्मान से देखते हैं. लेकिन जिस आवाज का उठना लालू प्रसाद ने संभव बनाया, आज नीतीश कुमार उस आवाज को सुनने और उसकी अपेक्षाएं पूरी करने के प्रतीक बन रहे हैं. इस लिहाज से यह चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व के इर्द-गिर्द सिमट रहा है. उनके आभामंडल के सामने उनका अपना दल छोटा पड़ रहा है, भाजपा और राजग तो कहीं चर्चा में भी नहीं हैं.

 

 

छवां सूत्र : चुनाव पूरे हो जायेंगे, लेकिन असली चुनौती अब शु  होती है. पिछली बार जदयू-भाजपा गंठबंधन लालू-राबड़ी राज के विरुद्ध आक्रोश के बल पर सत्ता पा गया था. इस बार अगर उनकी सत्ता में वापसी होती है, तो उस जनादेश के साथ जनाकांक्षाएं भी जुड़ी होंगी. इस बार लोग न्यूनतम से संतुष्ट नहीं होंगे. सिर्फ़ अध्यापकों की बहाली नहीं, बल्कि शिक्षा मांगेगे.

रंगदारी घटने भर से खुश नहीं होंगे, दैनंदिन भ्रष्टाचार का खात्मा चाहेंगे. पूछेंगे कि इन सड़कों पर चलकर हम कहां जाएं. बदहाली से छुटकारा चाहेंगे, रोजगार मांगेंगे, अमन के  साथ-साथ इंसाफ़ भी मांगेंगे. नीतीश की राजनैतिक चुनौती वहां शु  होगी. इन्हें सोचना पड़ेगा कि क्या बिहार का विकास महाराष्ट्र और पंजाब की नकल से किया जा सकता है या नहीं. पूछना होगा कि परिवर्तन कि    राजनीति कहां तक अफ़सरशाही के सहारे की जासकतीहै.

बटाईदार ही नहीं पूरे भूमि के सवाल पर एक राय  बनानी पड़ेगी.बिहार का यह चुनाव बचपन में पढ़ी बाबा खड़ग सिंह की कहानी याद दिलाता है. अगर नीतीश कुमार इस बार चुनाव नहीं जीतते हैं तो बिहार में कोई सरकार फ़िर कभी सड़कें नहीं बनायेगी, विकास और सुशासन का नाम भी नहीं लेगी. लेकिन साथ ही साथ यह चुनाव रेणु की कालजयी कृति ’मैला आंचल’की भी याद दिलाता है.

अगर नीतीश चुनाव जीत कर विकास और सुशासन की उसी डगर पर चलते हैं जो विश्व बैंक और योजना आयोग ने तय की है तो एक बार फ़िर बावनदास को मरने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.

 

(लेखक सीएसडीएस दिल्ली में सीनियर फ़ेलो)

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