वे कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र के साहिब और श्रीमंत जब चाहे अपनी पगार बढ़ा लेते है लेकिन न्यूनतम मज़दूरी कब और कितनी बढ़े, इस पर कोई बात नहीं करता.
ये मजदूर रथ यात्रा भी निकाल रहे हैं. राज्य में सरकार ने हाल में न्यूनतम मज़दूरी बढ़ा कर 135 रूपए कर दी है. लेकिन इसमें नरेगा को शामिल नहीं किया.
हक़ के सत्याग्रही इस बात से बहुत उद्वेलित हैं. वे पूछते हैं कि नरेगा के मज़दूरों को इससे बाहर क्यों रखा गया है?
राज्य के ग्रामीण विकास मंत्री भरत सिंह के मुताबिक़ नरेगा के लिए केंद्रीय क़ानून बना हुआ है. केंद्र सरकार ही इसमें मज़दूरी की दर तय करती है.
आधार
सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय कहती हैं, "लोकतंत्र में श्रेणियाँ हैं. या तो ये वे सब मिलकर तय करें कि तनख्वाह का पैमाना क्या हो या एक दूसरे के बारे में तय करें. आप इस प्रजातंत्र के ढांचे को देखें, सांसद अपना वेतन तय कर लेते हैं, विधायक विधान सभा में वेतन भत्तों के लिए ख़ुद निर्णय कर लेते हैं. ऐसे ही कर्मचारी, अधिकारी कितना वेतन, भत्ते और सुविधाएँ मिले, ये अपने आप तय कर लेते हैं. ये किस आधार पर होता है, कोई नहीं जानता."
"लोकतंत्र में श्रेणियाँ हैं. या तो ये वे सब मिलकर तय करें कि तनख्वाह का पैमाना क्या हो या एक दूसरे के बारे में तय करें. आप इस प्रजातंत्र के ढांचे को देखें, सांसद अपना वेतन तय कर लेते हैं, विधायक विधान सभा में वेतन भत्तों के लिए ख़ुद निर्णय कर लेते हैं. ऐसे ही कर्मचारी, अधिकारी कितना वेतन, भत्ते और सुविधाएँ मिले, ये अपने आप तय कर लेते हैं. ये किस आधार पर होता है, कोई नहीं जानता"
अरुणा रॉय
उन्होंने कहा कि अगर आप अधिकारी और नेताओं का वेतन देखें और मज़दूर पर नज़र डालें तो बहुत फ़र्क है. रात दिन का अंतर है. पेट वही है, खाना वही है, व्यवस्था वही है, महंगाई वही है. मज़दूर की पगार नहीं बढती, उनके भत्ते बढ़ते रहते है.
अरुणा राय पूछती हैं- आख़िर क्यों? सियासी रथ यात्राओं के दौर में हक़ सत्याग्रही भी एक रथ पर चढ़ गए.
इस रथ यात्रा में सामाजिक कार्यकर्ता शंकर केंद्रीय भूमिका में हैं. उनके लिए रथ यात्रा नई नहीं है. ये रथ यात्रा ना तो किसी मंदिर के लिए है और ना ही किसी धर्म स्थल के ध्वंस के लिए.
शंकर पहले ‘राजवाणी’ और ‘घोटला’ रथ यात्रा निकल चुके हैं. इस बार ‘खज़ाना’ रथ यात्रा है. वे कहने लगे- सरकारी खज़ाने को चंद लोग खा रहे हैं.
मूल्यांकन
उन्होंने कहा, ”इस देश में एक फ़ीसदी लोग ख़ुद अपनी तनख्वाह तय कर लेते हैं. लेकिन मज़दूर को एक सौ रूपए नाप तौल कर दिए जाते हैं. ज़्यादातर मामलों में सरकारी अमला इन सौ रूपए में भी अपना हिस्सा लूट लेता है. वेतन में भारी भेदभाव है. हम दो सौ रूपए न्यूनतम मज़दूरी मांग रहे हैं. सरकार राजस्थान में 19 हज़ार करोड़ का राजस्व जुटाती है लेकिन 22 हज़ार करोड़ रूपए वेतन और पेंशन में देने पड़ते हैंजबकि इन लोगों के काम का कोई मूल्यांकन नहीं कर सकता.
"इस देश में एक फ़ीसदी लोग ख़ुद अपनी तनख्वाह तय कर लेते हैं. लेकिन मज़दूर को एक सौ रूपए नाप तौल कर दिए जाते हैं. ज़्यादातर मामलों में सरकारी अमला इन सौ रूपए में भी अपना हिस्सा लूट लेता है. वेतन में भारी भेदभाव है. हम दो सौ रूपए न्यूनतम मज़दूरी मांग रहे हैं. सरकार राजस्थान में 19 हज़ार करोड़ का राजस्व जुटाती है लेकिन 22 हज़ार करोड़ रूपए वेतन और पेंशन में देने पड़ते हैं जबकि इन लोगों के काम का कोई मूल्यांकन नहीं कर सकता"
शंकर, सामाजिक कार्यकर्ता
बीकानेर ज़िले में नोखा के एक मज़दूर रावत राम कहते हैं, "नरेगा में मज़दूरी देरी से और कम मिलती है. एक, दो तीन माह में मिले तो भी ठीक है. लेकिन कई-काई माह बाद हमें मज़दूरी मिलती है. हमारे यहाँ आठ रूपए से लेकर 80 रुपए तक की मज़दूरी मिलती है."
राज्ये में 65 लाख परिवार ऐसे हैं, जिनके घर की रसोई को नरेगा से मिली मेहनताने की रकम रोशन करती है. रावतराम ऐसे ही परिवारों में से हैं.
त्रिलोचन शास्त्री भारतीय प्रबंध संस्थान में प्रोफ़ेसर हैं. वे कहते हैं, "नरेगा में मज़दूरी काम को नाप तौल कर दी जाती है. लेकिन क्या किसी नौकरशाह, प्रोफ़ेसर और राजनेता के काम को भी नापा जाता है. वो अच्छा करें, बुरा करें, कम करें, ज़्यादा करें, उनके पैसे तो बढ़ते रहते हैं. उन्हें समय पर मिल भी जाते हैं, हम इस फ़र्क के ख़िलाफ़ हैं.
वे वोट डालते है तो उन्हें भाग्य विधाता कहा जाता है. वे सड़क, सेतु और बांध बनाते हैं तो उन्हें भारत का निर्माता कहा जाता है. लेकिन अब वे मज़दूरी के लिए निकले तो उन्हें पता लगा वे तो याचक है. अफसर और नेता ही दाता है.