केंद्रीय पूल में पंजाब के बाद सबसे अधिक योगदान देने वाले हरियाणा में
अनाज भंडारण पर राज्य सरकार उतनी तत्परता नहीं दिखा रही, जितनी अपेक्षित
है। कहने को तो निजी ठेकेदारों और भू-स्वामियों की मदद लेने की तैयारी की
जा रही है परतु खुले में पड़ा 55 लाख टन गेहू युद्ध स्तर के प्रयासों की माग
कर रहा है। भूमि अधिग्रहण नीति और खेल नीति ने हरियाणा को देश का सिरमौर
बना दिया तो ऐसी ही कारगर व त्वरित नीति अनाज भंडारण के लिए क्यों नहीं
बनाई जा रही। या तो सलाहकारों और सरकार के नीति निर्धारकों में संवादहीनता
है अथवा मामले की गंभीरता के बारे में सरकार को गुमराह किया जा रहा है। हर
साल खुले में अनाज भंडारण के लिए तिरपाल या पालीथिन खरीदने के लिए जितना धन
खर्चा जा रहा है, उससे हर साल सैकड़ों पक्के शेड बनवाए जा सकते है। करोड़ों
में खरीदे गए तिरपाल व पालीथिन चार से छह माह तक मुश्किल से चल पाते है
जिसका न कोई छोर होता है, न क्षितिज। बारिश के दौरान करोड़ों का अनाज भीगने
के बाद सड़ने लगता है। यदि पिछले 10 साल में खराब हुए अनाज की कीमत जोड़ी जाए
तो उससे इतने पक्के भंडारगृह बनवाए जा सकते थे जो आने वाले पाच साल तक की
उत्पादन वृद्धि को भी भंडार करने में सक्षम हो सकते थे। अब हालाकि भारतीय
खाद्य निगम ने निजी ठेकेदारों के साथ किराए के अनुबंध की अवधि बढ़ा कर 10
साल कर दी है।
सौ से अधिक ठेकेदार व भू-स्वामी भारतीय खाद्य निगम को किराए पर गोदाम
देने को तैयार हो गए है। इससे व्यवस्था में निश्चित तौर पर सुधार होगा परतु
राज्य सरकार को भारतीय खाद्य निगम से तालमेल करके ऐसे प्रबंधों पर गंभीरता
से विचार करना चाहिए जिसके तहत भंडारण का स्थायी इंतजाम हो, ठेकेदारों की
जरूरत न्यूनतम रह जाए। यानि सरकारी स्तर पर ही अनाज भंडारों का अधिक से
अधिक निर्माण हो और उनकी स्थायी मिल्कियत भी सरकार की हो। बड़ा अजीब संयोग
है हरियाणा में। कृषि भूमि लगातार घट रही है, भूमिगत जलस्तर भी लगातार गिरा
लेकिन अनाज की पैदावार में निरतर वृद्धि हो रही है। शहरीकरण की रफ्तार
कृषि विकास की गति के लिए अवरोध नहीं बनी। यह नहीं भूलना चाहिए कि हर वर्ष
सुरक्षित भंडारण के अभाव में अनाज सड़ने से सरकार की साख से भी दुर्गध उठने
लगती है।